Wednesday, December 19, 2012

उगती प्यास दिवंगत पानी

मैंने एक बार आपसे कहा था कि किसी भी लेखक को हर उस विधा में लिखना चाहिए, जिसमें वह लिखना चाहे। मैंने भी उपन्यास, कहानी, कविता, निबन्ध, संस्मरण, लघुकथा, नाटक, क्षणिका, ग़ज़ल, गीत, व्यंग्य, समीक्षा, दोहे, छंद, यहाँ तक कि  "शब्दावली" भी, सब लिखा।
किन्तु प्रकाशकों-संपादकों ने मेरी "कविता" को थोड़ा उदासीनता से छापा। आप यह जानना चाहेंगे, कि  मुझे इस 'उदासीनता' की पहचान कैसे हुई? छाप तो दिया ही न ?
मैं बताता हूँ। मैं जब भी किसी अखबार या पत्रिका को कोई कविता भेजता था, तो वह छप तो जाती थी, किन्तु वे मुझे कई बार लिखते थे, कि  अब कोई ताज़ा कहानी भेजिए। बहरहाल, जब भी कहानी भेजी, कभी किसी ने यह नहीं कहा कि  अब कविता भेजिए। बल्कि कई बार तो ऐसा भी हो गया, कि  कुछ न भेजा,तो मित्र-संपादकों ने लिखा कि  कविता 'ही भेज दीजिये'। अब बताइये, समझदार को इशारा ही काफी है या नहीं?
इस तरह मेरी कुछ[ सब नहीं] कवितायेँ मेरे पास थीं। तभी मैंने एक युवा ब्लॉगर "मन्टू कुमार" के ब्लॉग पर कुछ कवितायें पढ़ीं। मुझे दाल में कुछ काला लगा। मतलब यह, कि  ब्लॉगर तो किशोर वय का, लेकिन कवितायें प्रौढ़। सच कहूं, मुझे लगा कि या तो कोई मझा हुआ लेखक पुरानी फोटो के साथ लिख रहा है,या किसी बच्चे के हाथ कोई डायरी लग गयी है।
संयोग देखिये, कुछ ही दिनों में मन्टू से मेरा प्रत्यक्ष मिलना हो गया। उसने मेरी शंका का निवारण मुस्कराते हुए किया, और मेरी ही मेज़ पर बैठ कर कुछ ताज़ा कवितायें लिख कर मुझे दीं।
उसकी और मेरी आयु में लगभग चालीस वर्ष का अंतर है। पर हम दोनों अपनी कुछ कवितायें जल्दी ही आपको पढवा रहे हैं।         

2 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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