Sunday, October 28, 2012

बुरी बात है किसी की आलोचना करना

आलोचना एक शास्त्र है, जिसके द्वारा किसी भी विचार को प्रतिक्रियात्मक संशोधनों के माध्यम से पुष्ट-दुरुस्त करके 'पूर्ण' बनाया जाता है। इसी के द्वारा उसका मूल्याङ्कन भी होता है।
आम तौर पर आलोचना का अर्थ किसी की बुराई से भी लिया जाता है। अपने इस अर्थ में आलोचना अच्छी नहीं मानी जाती। कहा जाता है कि  हम किसी की आलोचना न करके उसे सुझावों के माध्यम से सकारात्मक प्रतिक्रिया दें।
एक बार एक जंगल में कुछ जानवर इकट्ठे हुए तो बातों -बातों में यही चर्चा छिड़ गई कि किसी की निंदा करना अच्छी बात नहीं है। निंदा करने से कोई सुधरता नहीं है, उलटे हमेशा के लिए बिगड़ जाता है। यद्यपि कुछ जानवर यह भी कह रहे थे, कि  गलत बात की निंदा की ही जानी चाहिए, अन्यथा गलत बात को दोहराए जाने की आशंका बढ़ जाती है। अब दो गुट बन गए, बहस शुरू हो गई कि निंदा करना उचित है अथवा अनुचित। काफी देर तक बहस का कोई हल न निकलता देख कर किसी ने कहा- चलो, थोड़ी देर के लिए, इस चर्चा को विराम देते हैं। "इंटरवल" के बाद फिर सोचेंगे कि  क्या करना चाहिए।
सब इधर-उधर खेलने-खाने-तैरने-गाने में लग गए। देखते-देखते वातावरण हंसी-ख़ुशी में बदल गया।
तैरते-तैरते एक मछली अपनी सहेली से बोली- ये बतख इतने पैर फैला-फैला कर तैरती है कि  कभी भी चोट लग जाती है। बतख ने मछली की बात नहीं सुनीं क्योंकि पानी से बात बाहर नहीं जा रही थी। उधर बतख कछुए से कह रही थी कि ये मछली इतना ऊपर-नीचे तैरती है कि  इसकी टक्कर से गिरने की नौबत आ जाती है।बात भीतर पानी में नहीं गई। पेड़ पर बैठे कबूतर ने तोते से कहा- ये कौवा इतना बेसुरा है कि इसके बोलने से रात को नींद उचाट हो जाती है। संयोग से कौवा उस समय पानी पीने गया हुआ था, वहीँ उसे मेंढक कह रहा था- तुम तो अच्छी तरह पानी पीते हो, ये चील आती है तो पानी के साथ-साथ हमारे बच्चों को भी गड़प जाती है। चील ने कुछ नहीं सुना, क्योंकि वह ऊंचाई पर उड़ रही थी। नीचे खरगोश लोमड़ी से कह रहा था- ये चील उड़-उड़ कर अपने को थका कर भूख से बेहाल कर लेती है फिर नीचे आकर हम पर हमला करेगी। लोमड़ी सोच रही थी कि  खरगोश चुप हो तो वह चूहों की शिकायत करे, उसकी मांद को चारों ओर से खोद-खोद कर खोखला कर देते हैं, जिस से भीतर पानी भर जाता है। शुक्र था कि चूहे वहां नहीं थे, जो सुनलें।    

1 comment:

  1. ग़ज़ब!

    अपने ब्लॉग पर कभी कुछ कहा था। यह चिंतन पढकर कुछ कथन अनायास ही याद आ गये। आप जैसे गुण-ग्राहक के लिये तो दोहराव है परंतु अन्य पाठकों के लिये:

    - मैंने जीवन भर अपने आप से बातें की हैं। सच तो सच ही रहेगा, कोई सुने न सुने।
    - अगर आप मेरी बात का कोई भाग सुन न सके हों तो वह हिस्सा दोहरा दें, ताकि में फिर कह सकूँ।
    - जो बात अनसुनी रह गयी उसका कहना बेकार गया।
    - कर्कश गायन मुझे नापसन्द है भले ही मेरे स्वर में हो।
    - बुद्धिमान साम्य ढूंढते है परंतु अंतर का अपमान नहीं करते।
    - हम संसार को अपने अज्ञान की सीमाओं में ही समझते हैं।
    - नाच का अनाड़ी कैसे भी एक टेढा आंगन ढूंढ ही लेता है।
    - खुद करें तो मज़ाक, और करे तो बदतमीज़ी।
    - जिसने दोषारोपण किया ही नहीं, उसे "फॉरगिव ऐंड फॉरगैट" जैसे बहानों से क्या काम?

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