पिछले दिनों अन्ना हजारे के सन्दर्भ में कुछ नेताओं ने संसद की सर्वोच्चता का हवाला देते हुए अन्ना को कुछ करने के लिए संसद में आने का न्यौता दिया, चाहे यह न्यौता चुनौती के रूप में ही था. इस पर अरविन्द ने यह प्रतिक्रिया भी दी कि आम आदमी भी संसद से ऊपर है. बात एक हद तक ठीक भी है, क्योंकि संसद में घुसने के लिए आम आदमी का वोट काम आता है. संसद की सर्वोच्चता व गरिमा जिन सांसदों पर निर्भर है, क्या वे भी उतने ही गरिमामय हैं?
१९८४ में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद दिल्ली में दंगों का ज़बरदस्त माहौल बना था. तुरंत निर्णय लेने वाला भी कोई व्यक्ति नहीं था. जो वरिष्ठ नेता अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर कुछ फैसले लेने भी लगे, उन्हें यह कह कर नकारा जाने लगा कि ये प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं.आनन-फानन में राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा हुई.इंदिरा गाँधी का अंतिम संस्कार हुआ तब वहां अराजकता का माहौल था. पूरी दुनिया से राष्ट्राध्यक्ष आ रहे थे, पर उनके सारे इंतजाम उनके देशों के दूतावासों पर ही निर्भर थे. जहाँ अंतिम संस्कार होना था, वहां कुछ कुर्सियां भी लगाईं गई थीं, जिनमे दूतावासों ने अपने-अपने नेताओं के लिए स्थान आरक्षित कर लिए थे. इंग्लैण्ड से तत्कालीन प्रधानमंत्री थैचर और महारानी की प्रतिनिधि के रूप में एक अन्य महिला आई थीं. जब वे वहां पहुँचीं, तो उनकी कुर्सियों पर हमारे कुछ सांसद कब्ज़ा जमा चुके थे. उनके आने के बाद भी किसी ने कुर्सी खाली करने की ज़हमत नहीं उठाई. वे चेहरे पर अप्रिय भाव लिए इधर-उधर देखती हुई अंततः खड़ी ही रहीं.
इतना ही नहीं, कुछ सांसदों ने तो उन पर ठीक उसी अंदाज़ में फिकरे भी कसे जैसे दिल्ली की बसों में शोहदे महिलाओं पर आये दिन कसते रहते हैं.
तो अन्ना, रामदेव, या अन्य यदि देश सेवा करना चाहते हैं, या फिर समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं, तो पहले "माननीय सांसद" बन कर बताएं, खाली आम आदमी होने से कुछ नहीं होता.
उस आम आदमी "जन" के प्रतिनिधि - जन-प्रतिनिधि ही सन्सद बनाते हैं - वे राजा-महाराजा-तानाशाह नहीं हैं, जनता की संसद में जनता के प्रॉक्सी भर हैं। लेकिन चूहे को मिल गयी हल्दी की गांठ तो वह अपने को पंसारी समझ बैठता है।
ReplyDeletethode din thahariye, pansari apni haldi ki hi ganth se apne badan ki sikaai karta nazar aane wala hai.
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