अभी ज्यादा समय नहीं गुज़रा है जब दुनिया की अधिकाँश बस्तियां काले मेघ से पानी बरसाने की गुहार लगा रही थीं. जब आसमान से पानी बरस रहा होता है तब थोड़ी देर के लिए ऐसा लगता है जैसे अम्बर धरती का स्नेह से अभिषेक कर रहा है.
मगर "थोड़ी देर" के लिए.उसके बाद यदि आकाश जल बरसाना बंद न करे तो ऐसा लगता है जैसे प्यास बुझने के बाद भी कोई अंजुरी में नीर बहा रहा है, और अमृत बर्बाद कर रहा है.
थाईलैंड का जलप्लावन ऐसा ही है. न जाने कब से पानी बरसता ही जा रहा है. बैंकॉक के हवाई-तलों पर पानी भर जाने से उड़ानें रद्द हो रहीं हैं और इस तरह शहर की यह अस्त-व्यस्त किंकर्तव्य-विमूढ़ता दुनियां भर को प्रभावित कर रही है.
ऐसा लगता है कि कई निर्दोष-निरीह लोग बिना किसी अपराध या भूल के अकारण कष्ट सह रहे हैं.
क्या हम इक्कीसवीं सदी को युद्धस्तर पर प्रकृति के अन्याय के खिलाफ खड़े होने में खर्च नहीं कर सकते? पीड़ितों के लिए बार-बार आर्थिक सहायता जुटाना एक बात है, और पीड़ा के आगमन को निरस्त करने के लिए प्राण-पण से जुट जाना दूसरी.
जैसे हम सब मिल कर अराजक शासकों को अपदस्थ करते हैं, क्या ऐसा कोई जरिया नहीं है कि हम उसी तरह एक-जुट होकर अनावृष्टि पर उतारू बादलों को अपदस्थ कर सकें?
मैं गलियों में खेल रहे बच्चों से निवेदन करता हूँ, कि जब खेल कर अपनी पढ़ने की मेज़ पर आओ, तब इस बात पर ज़रूर सोचना.
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