सभी को आश्चर्य होता था, कि लोग उन्हें तुलसीदास न कह कर 'नेताजी' क्यों कहते हैं? वैसे उन्होंने या उनकी जानकारी में उनके किसी परिजन ने कभी रामायण पढ़ी नहीं थी, किन्तु शायद कभी किसी पूर्वज ने पढ़ ली होगी, उसी के पुण्य प्रताप से उन्हें रामायण के पात्रों से गहरा लगाव हो गया था.
वे बताते थे कि जैसे राम को घर से वनवास मिल गया था, वैसे ही उन्हें भी कालेज से निष्कासन मिल गया था.लोग कहते थे कि जैसे रावण ने सीता पर बुरी नज़र डाली थी, यह तो उनका रोज़ का काम था.अपनी लंका को सोने की बना लेने में जी-जान से जुटे ही थे. केवट से प्रभावित होकर उन्होंने देशी-विदेशी पुराने जहाज़[वे शिप को बड़ी नाव ही मानते थे] खरीदने-बेचने का कारोबार भी कर लिया था.हाल ही में उन्होंने दिल्ली में एक होटल भी खोल लिया था. लोग उनसे पूछते थे- इसमें क्या कन्द-मूल फल परोसेंगे?कुछ दिन बाद होटल पर बोर्ड भी लग गया- शबरी लंच होम.
वे गर्व से बताते थे-ये वीआइपी इलाका है, सब बड़े-बड़े लोग रहते हैं, सबकी रसोई में ढेर सारा भोजन बनता है, लेकिन सब चिड़ियों की तरह खाते हैं, ज़रा-ज़रा सा.बाक़ी नौकर-चाकरों के काम आता है या फिर फेंका जाता है.
तो? किसी ने पूछा.
वे बोले- तो क्या, राजतन्त्र की तरह ही लोकतंत्र में भी जनता अपने राजाओं का जूठा खाना पसंद करेगी. यह तो जनसेवा है, अन्न बचाने की योजना है.
किसी ने कहा-लेकिन आप जैसा समझ रहे हैं, वैसा है नहीं, राजतन्त्र में तो जनता ने प्रेम से राजा को जूठा खिलाया था, राजा का जूठा खाया नहीं था.
वे खिसिया कर सर खुजाने लगे. बोले- हाँ, तो मैंने कौन सी रामायण पढ़ी है, जब राजा ने जूठा खाया तो जनता को खाने में क्या परेशानी है?
बहुत खूब! आपके व्यंग्य वाकई कमाल के होते हैं। सरल सीमित शब्दों में बड़ी बात हंसते-हंसाते कह जाने की कला तो आपसे सीखनी पड़ेगी।
ReplyDeleteve mahan the jo raj kar gaye. ye "mahaaan" hain jo raj kar rahe hain, ham-aap to bas bahti ganga men hath dhone wale hain. tareef ke liye aapka dhanywad zaroor banta hai.
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