कुछ समय पहले अमेरिका से लौटे मेरे एक सहकर्मी ने मुझे टूरिस्ट विभाग का एक पब्लिकेशन देखने के लिए दिया. देखने के लिए इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि उसमें पढ़ने के लिए इतना मैटर नहीं था, जितनी तसवीरें थीं. वह टर्की का प्रकाशन था. हम उस समय एक प्रेस्टीजियस प्रकाशन पर काम कर रहे थे.
वे तसवीरें ऐसी थीं जैसे शीशे की सतह पर पारे से चित्र उकेरे गए हों.
ढेर सारी तसवीरों में एक फोटो मुझे याद हो कर रह गई. उस फोटो में एक लड़का अपनी दुकान पर बैठा फल बेच रहा था. वे फल देखने में ऐसे लग रहे थे, मानो उन्हें सूंघ कर देखा तो खुशबू आने लगेगी.
आज मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरा अपना कोई बाग़ उजड़ गया हो.जैसे मेरी याद के वे फल ज़हरीले हो गए हों. जैसे वह लड़का बेरोजगार हो गया हो, जिसे मैं जानता तक नहीं.कौन जाने, ज़ख़्मी ही हो गया हो? नहीं, इससे आगे नहीं सोचूंगा. बीज से अंकुर, अंकुर से पौधा, पौधे से पेड़, पेड़ से फूल, फूल से फल बड़ी मुश्किल से बनते हैं. किसी को हक़ नहीं है कि कोई फलों से भरे टोकरे को इस तरह मिट्टी में मिलादे. एक निर्दोष युवा सौदागर को बेवजह ज़ख़्मी कर दे.
ये हक़ किसी को भी नहीं है, भूकंप को भी नहीं.
दुखद!
ReplyDeletedard aadha ho gaya hai baant lene se
ReplyDeleteaapsa milta hi hai, bas chhaant lene se.