राजा इतिहास बनाते हैं, इतिहास से बनते नहीं हैं. अब राजाओं का ज़माना तो रहा नहीं, फिर भी राजा रह गए, इक्का-दुक्का ही सही.
लेकिन जितने भी रह गए, छाये हुए हैं. दस जनपथ के चौबारे से लेकर तिहाड़ तक राजाओं का ही बोलबाला है.
कहते हैं कि पहले राजा लोग अपने दरबार में दरबारियों की ऐसी फौज रखते थे, जिसका काम केवल राजाओं की तारीफ करना ही होता था.वह फौज यह नहीं देखती थी कि राजा ने क्या किया? बस, जो किया उसका गुणगान करना ही उसका अकेला काम होता था.
बाद में कुछ संतों ने कहा कि 'निंदक नियरे राखिये' तो कुछ दूरदर्शी राजाओं ने एकाध निंदक भी रखना शुरू कर दिया. लेकिन धीरे-धीरे राजा इस बात पर बिलकुल कन्फ्यूज़ हो गए कि निंदक रखें या चाटुकार?
अतः राजाओं ने सोच समझ कर कुछ ऐसे दरबारी रखने शुरू कर दिए जो निंदा और स्तुति दोनों में ही पारंगत थे. वे अपनों की स्तुति करते थे और दूसरों की निंदा.
समय ने पलटा खाया और लोकतंत्र में आम आदमी राजा बनने लगा तथा "राजा" दरबारी बनने लगे. राजाओं को निंदा और स्तुति, दोनों ही हुनर आते थे, अतः उनकी दूकान खूब चलने लगी. लोग केन्द्रीय मंत्री और मुख्य मंत्री की कुर्सियां छोड़-छोड़ कर दरबारी बनने लगे. जब भी आलाप लेते किसी न किसी अपने की तारीफ और पराये की बुराई कर देते.
सुबह के सूरज के साथ-साथ कुछ न कुछ बोल देना, बस यह उनका काम हो गया.
इतना ही नहीं, धीरे-धीरे राजा दरबारी मन्नतें भी मानने लगे. कभी मन्नत मांगते कि अन्ना भ्रष्ट हो जाएँ तो कभी दुआ मांगते कि कलमाड़ी निर्दोष हो जाएँ. अब जो हैं नहीं, वो कैसे हो जाएँ?
तो राजा दरबारियों ने संशोधन कर लिया कि अन्ना भ्रष्ट "सिद्ध" हो जाएँ और कलमाड़ी ईमानदार "सिद्ध" हो जाएँ.
aaj samachaar hai ki anna hazare do-teen din men maun-vrat todenge.kahin unki zabaan bhi pravaktaaon ki tarah fisal n jaye, aur bol den- ghotaala maine kiya tha, kalmadi nirdosh hain.
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