यदि आज मार्क ट्वेन, महादेवी वर्मा या सुभद्रा कुमारी चौहान जीवित होते तो वे मेरी बात से अवश्य सहमत होते.
बचपन चाहिए.
जीवन में बचपन का अस्तित्व ज़रूर बचाए रखा जाना चाहिए.
बल्कि मुझे तो कभी-कभी यही लगता है कि वास्तव में बचपन ही जीवन है. उसके बाद तो जीवन मिल जाने की विवशता है. जिस तरह हम रोज़ नहा-धोकर साफ़ कपड़े पहनते हैं,बस यही समय हमारा बचपन-काल है. इसके बाद का समय तो ऐसा ही है जैसे हम दूसरे दिन उन्हीं कपड़ों में बिना नहाए घूम रहे हों. तीसरे, चौथे और पांचवे दिन भी हम बिना कपड़े बदले, मैले ही घूमते रहें,तो यही हमारा आगे का लम्बा जीवन है.
मैं जानता हूँ, कि मैंने जो कह दिया, वह घोर अव्यावहारिक, काल्पनिक और बेतुका है. लेकिन फिर भी मैं यही कहता हूँ, कि व्यक्ति के जीवन का नहीं, बचपन का बीमा होना चाहिए. इसे खोया नहीं जा सकता, और खो जाने पर मुआवजा बनता है.
बात समाप्त करने से पहले एक बात स्पष्ट कर दूं. यहाँ बचपन से मेरा आशय उम्र के आठ-दस वर्ष हरगिज़ नहीं है.
मैं यह भी मानता हूँ कि किसी-किसी के पास अस्सी साल की उम्र तक बचपन ठहरता है. मैं उन्हीं कोमल संवेदनाओं को बचपन कह रहा हूँ, जो कुछ लोगों में ता-उम्र रहती हैं. वे कभी वयस्क नहीं होते, बूढ़े तो बिलकुल भी नहीं होते. हाँ पुराने, कमज़ोर, अशक्त ज़रूर हो सकते हैं. क्योंकि उम्र अपनी कीमत तो मांगती ही है.
अब बीमा कम्पनी इस बीमे के नियम, मानदंड और आयु-सीमा कैसे तय करे, यह वही जाने.बीमा कम्पनियां भी तो कुछ प्रयोग करें, कुछ जोखिम उठायें, कुछ नवोन्मेष की बात सोचें.
कुछ विकसित देशों में तो मुझे लगता है कि 'बुढ़ापे' का कंसेप्ट है ही नहीं.मैं कल्पना ही नहीं कर पाता कि चीन, जापान,कोरिया में तन से और अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस में मन से लोग बूढ़े कैसे होते होंगे?
:) अब आपने हमारे प्रिय साहित्यकारों के नाम लिये हैं तो आपके साथ-साथ उनके सम्मान में भी हमें सहमत होना ही पडेगा। कुछ ऐसा हो कि बचपन रहे और बचपना चला जाये।
ReplyDeletebachpan rahe, to usase sab ki rakhwali hoti rahegi.aapki sahmati ke liye aabhar.
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