रोज़ मरता है पानी, कभी आँखों में, कभी खून में
नहीं मरती बेरहम प्यास
उगती है फिर-फिर अवांछित घास की तरह
इस प्यास के प्रेम में पड़कर कभी
समुद्र को पी जाएगी ज़मीन
नहीं मरती बेरहम प्यास
उगती है फिर-फिर अवांछित घास की तरह
इस प्यास के प्रेम में पड़कर कभी
समुद्र को पी जाएगी ज़मीन
चिल्ड शैंपेन के सिप की तरह
यदि नहीं समझे उसने धरती के दुःख
और न समझा पाया वो,
अपने दुःख धरती को.
पिसते रहेंगे वे लोग, जो दोनों के दुःख समझते हैं
अमेरिकी तटों से जापानी शिखरों तक
बरास्ता चीन और यूरोप के कुछ दमकते नगर
महँगी पड़ेगी चाँद-कलाओं को
हवाओं की दरिंदगी और पानियों की आवारगी
इससे पहले कि सागर ज्वालामुखी बन
लावा उगलें,
इससे पहले कि पर्वत
शर्म से पिघल कर बह जाएँ
इससे पहले कि रोने लगे
कतरा-कतरा इतिहास
भविष्य से खेलने वालों के
काले सपनों को पी जायेगी ज़मीन
चिल्ड शैम्पेन के सिप की तरह.
सुन्दर रचना! एक रत्नाकर है, एक रत्नगर्भा है और इन दोनों के बीच स्वार्थी मनुष्य वाकई भविष्य से खेल रहे हैं, यह भूलकर कि यह उनके अपने बच्चों का भविष्य भी है।
ReplyDeleteaapke 'ratnpaarkhi' ko dhanywad.
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