पत्नी आकर पति से बोली- सुनो जी, तीन दिन से आटा ख़त्म है, आज भी खिचड़ी ही खानी पड़ेगी.
पति ने कहा, खिचड़ी को मार गोली, वो देख, उनकी एक कार खराब हो गई, अब पति-पत्नी दोनों एक ही कार में जा रहे हैं.
जब विकास-शील देश अमेरिका की मंदी पर बात करते हैं, तो कुछ ऐसा ही नज़ारा होता है. हम अपनी गरीबी सहने के तो बरसों से आदी हैं, पर दूसरों की अमीरी सहने के अभ्यस्त अब तक नहीं हो पाए. यदि कोई अमेरिकी कंपनी बंद होती है तो भारतीय मीडिया उसे इस अंदाज़ में पेश करता है, मानो हमारी लॉटरी निकल आई हो. यूरोप,जापान या अमेरिका के कष्ट हमारे अपने ज़ख्मों पर मरहम लगाते हैं.
जबकि मज़ेदार बात यह है कि हम हर छोटी से छोटी बात में इन्हीं की नक़ल करते हैं.
"ग्लोबलाइज़ेशन" अब एक सर्वव्यापी प्रक्रिया है. एक बर्तन में बहुत सारा पानी है, दूसरे में थोड़ा कम, और तीसरे में बहुत कम.अब हम तीनों के पैंदे एक नली से जोड़ देते हैं. ज्यादा पानी वाले बर्तन से कुछ पानी रिस कर उस बर्तन में जाना शुरू हो जायेगा, जिसमें बहुत कम है. ऐसी स्थिति में ज्यादा भरे बर्तन का आभार मानने की जगह यदि उसका उपहास किया जाये, तो कम भरा बर्तन अपना नुक्सान तो करेगा ही, वैश्वीकरण की प्रक्रिया को भी रोक देगा.
हम सम्पन्न होने के सपने भी देखते जाएँ और सम्पन्नता से ईर्ष्या भी रखें, तो हमारा यह दोगलापन कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं गढ़ सकता. मीडिया को भी 'तथाकथित' मंदी का सटीक आर्थिक विश्लेषण करके कलम चलानी चाहिए. हम यह भी नहीं भूल सकते कि हमारी आर्थिक उन्नति सम्पन्न देशों से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करके ही होगी, उनके प्रति नकारात्मक द्रष्टिकोण रख कर नहीं.
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