Sunday, May 11, 2014

इंदिरा गाँधी भी यही चाहती थीं

बरसात का मौसम शुरु होने में कुछ ही  दिन बाकी थे।  खेतों में जोशो-ख़रोश से हल चल रहे थे।  संसारगंज गाँव के बूढ़े किसान रतन ने सुबह तड़के ही बुवाई कर देने का मन बनाया और एक पोटली में गेंहूँ के बीज रात को ही सँभाल कर अपने सिरहाने की दीवार के आले में रख छोङे ताक़ि सुबह-सुबह उन्हें लेकर निकल सके।
रात को सबके सोने के बाद छोटी बहू चुपचाप उठी।  उसने सोचा, पिताजी हर  बार गेंहूँ उगा लाते हैँ,मक्के की रोटी तो कभी खाने को ही नहीं मिलती, क्यों न पोटली में थोड़े मक्के के बीज मिला डालूँ। ऐसा करके वह चुपचाप जा सोई।
कुछ देर बाद बड़े बेटे की आँख खुली।  उसने सोचा, मेरी पत्नी की तबीयत ठीक नहीं रहती,डॉक्टर कहता है इसे जौ का आटा खिलाओ, यहाँ तो किसी को उसकी चिंता है नहीं, मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। उसने मुट्ठी भर जौ पोटली में मिला दिये।
देर रात किसान की घरवाली की नींद खुली।  उसने सोचा, बिटिया साल में एक बार तो घर आती है, यहाँ भी उसे अपनी पसन्द का बाजरा कभी खाने को नहीँ मिलता। सोचते-सोचते उसने बीज की पोटली मेँ थोड़ा बाजरा बुरक दिया।
मौसम में जब फसल आई तो रतन का माथा ठनका। वह सब समझ गया, उसने मन ही मन ठान लिया कि अगले बरस जब वह बुवाई को आएगा तो बीज की पोटली को किसी को छूने भी नहीं देगा, उसे कलेजे से लगा कर सोयेगा।
रतन जैसी समझदारी बहुतों में होती है- इंदिराजी में भी थी, मोदीजी में भी।  
           

3 comments:

  1. अभी इतने मुल्यांकन का समय भी नहीं आया है कैसी परिस्थितियां रहती हैं इस बात पर बहुत निर्भर करेगा

    ReplyDelete
  2. Dhanyawad, yah mulyankan ke pahle ke matra anumaan hi hain, inka matlab kewal itnasa hai ki jin baton ke liye ek party ki aalochna ho rahi hai, vah doosri party me bhi kabhi n kabhi rahi hain .

    ReplyDelete

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...