एक बार एक निर्जन टापू पर, एक हरे-भरे पेड़ पर एक बगुला कहीं से भटकता हुआ आ बैठा। कुछ देर इधर-उधर देखने और व्यवस्थित हो लेने के बाद उसके जेहन में आया कि इस समय फुर्सत का आलम है, तबियत भी चाक-चौबस्त है, क्यों न कुछ सार्थक किया जाय।
उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह आज अपने चारों ओर दिख रहे दृश्य की किसी भी एक समस्या को हल करेगा। उसे अपना विचार उत्तम लगा और इस बात पर उसे गर्व हो आया।
उसने बारीक़ी से चारों ओर देखना शुरू किया ताकि समस्याओं को चुन सके।
उसने देखा कि पानी के किनारे की रेत में सूरज की तेज़ किरणें पड़ने से बार-बार बाहर झाँक रहे एक केकड़े को बड़ी पीड़ा हो रही है, और वह मिट्टी से बाहर नहीं आ पा रहा है।
बगुले ने आलस्य छोड़ कर उड़ान भरी और केकड़े के ऊपर इस तरह मंडरा कर फड़फड़ाने लगा कि उस पर धूप न पड़े।सचमुच इसका असर हुआ, केकड़ा बाहर निकल कर रेत पर रेंगने लगा।
बगुले को प्रबल संतुष्टि हुई। उसके अंतर्मन से आवाज़ आई- " तुमने आज का अपने हिस्से का श्रम पूरा कर दिया है, अब तुम संसार से भोजन पाने के पात्र हो।"
बगुले ने एक भरपूर अंगड़ाई ली और झपट्टा मार कर केकड़े को खा गया।
वाह, आज इसी स्थ्तिी का ही चलन हो गया है जरुरत खुद ही संभल कर रहने की है
ReplyDeleteDhanyawad
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