जब कोई राजा अपने शौर्य को दुनिया के सामने लाने के लिये अश्वमेघ यज्ञ करता तो शूरवीर उसके घोड़े को पकड़ने-रोकने के लिए इधर-उधर दौड़ा करते थे। यदि अकेले कुछ न कर पाएं, तो एक-दूसरे की मदद लेने में भी गुरेज़ नहीं करते थे, चाहे हाथी-घोड़े-पैदलों को एक साथ ही क्यों न दौड़ना पड़े । उनके हाथ लहूलुहान हो जाते, तो वाक़युद्ध शुरु हो जाता था।
मज़े की बात ये कि कोई कहता-"घोड़े को रोको, ये अपनी आंधी से सब तहस-नहस कर देगा," तो वहीँ कोई दूसरा कहता -"इस घोड़े की आँधी तो क्या,हवा तक नहीं है।"
यह सिलसिला तब तक चलता,जब तक राजा चक्रवर्ती सम्राट होकर महल में न आ जाता। उसके बाद कुछ हाथ जुड़ जाते, कुछ मले जाते।
मज़े की बात ये कि कोई कहता-"घोड़े को रोको, ये अपनी आंधी से सब तहस-नहस कर देगा," तो वहीँ कोई दूसरा कहता -"इस घोड़े की आँधी तो क्या,हवा तक नहीं है।"
यह सिलसिला तब तक चलता,जब तक राजा चक्रवर्ती सम्राट होकर महल में न आ जाता। उसके बाद कुछ हाथ जुड़ जाते, कुछ मले जाते।
बहुत खूब , सही और सटीक भी .
ReplyDeleteDhanyawad.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सही और सटीक बात कही है आपने , आज के हालात को देख कर
ReplyDeleteAabhaar!
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