लोकतंत्र में सरकार सोचती है कि वोटर हमारा "अन्नदाता" है, तो इसके लिये कुछ किया जाय। और वह उसे मुफ्त में अन्न बाँटने लग जाती है।
वह वोटर के लिये ऐसी महायोजनाएं बना डालती है कि वे जाएँ और खिड़की से पैसा लेलें। यह बताना सरकार के प्रतिनिधि सरपंच का ज़िम्मा होता है कि ये पैसा किस काम का है।
सरकार अपनी खुद की सेहत के लिये वोटर को मुफ़्त दवा बांटती है और अपना इलाज विदेश में कराती है।
इस तरह सरकार अपने वोटर की दशा मन्दिरोँ के बाहर बैठे उन भिखारियों जैसी बना देती है, जिन्हें आप कहें, -"बाबा खाना खालो", तो वे डकार लेकर कहते हैँ-"खाना खाने के सौ रूपये लगेंगे"
आप सहम कर रह जाते हैं।
तो अब ईश्वर देश को इतना काम करने वाली सरकार न दे।
सरकार केवल इतना करे कि इन्सान के पास मेहनत और ईमानदारी वाला एक "अनिवार्य" रोज़गार हो, और वह उस से अपना और अपने परिवार का पेट इज़्ज़त से पाल सके।
वह वोटर के लिये ऐसी महायोजनाएं बना डालती है कि वे जाएँ और खिड़की से पैसा लेलें। यह बताना सरकार के प्रतिनिधि सरपंच का ज़िम्मा होता है कि ये पैसा किस काम का है।
सरकार अपनी खुद की सेहत के लिये वोटर को मुफ़्त दवा बांटती है और अपना इलाज विदेश में कराती है।
इस तरह सरकार अपने वोटर की दशा मन्दिरोँ के बाहर बैठे उन भिखारियों जैसी बना देती है, जिन्हें आप कहें, -"बाबा खाना खालो", तो वे डकार लेकर कहते हैँ-"खाना खाने के सौ रूपये लगेंगे"
आप सहम कर रह जाते हैं।
तो अब ईश्वर देश को इतना काम करने वाली सरकार न दे।
सरकार केवल इतना करे कि इन्सान के पास मेहनत और ईमानदारी वाला एक "अनिवार्य" रोज़गार हो, और वह उस से अपना और अपने परिवार का पेट इज़्ज़त से पाल सके।
बहुत सही लिखा है आपने .
ReplyDeleteDhanyawad
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