Sunday, February 26, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 5 ]

     मैं सोच रहा था कि चूहा अब भूखा होगा और चुपचाप मेज़ पर बैठ कर मेरे साथ कोई स्नैक्स शेयर करेगा. पर मेरे अनुमान के उलट उसकी व्यंग्य-भंगिमा बदस्तूर बनी हुई थी और वह प्लेटों की ओर पीठ करके सिंहासन पर नज़र गढ़ाए विक्रमादित्य से मुखातिब था. बारीक़ महीन आवाज़ में उसका बडबडाना जारी था- " ये जनाब अब तक रूपये को 'लक्ष्मी' मान कर पूजते रहे हैं, पर आज इन्होंने मुट्ठी भर लक्ष्मी देकर लिए डॉलर भी उस सरज़मीं पर लुटा डाले जहाँ चंगेज़ खान, तुगलक और नादिरशाह की रूहें अब तक आराम फरमा रही हैं."
     चूहे की बात से मैं तिलमिला गया और मेरी कॉफ़ी कुछ कसैली हो गई. मैंने एक शुगर-क्यूब उठा कर प्याले में डाला और धीरे-धीरे हिलाने लगा.
     सामने एक स्टोर था, जिसमें बहुत ही आकर्षक और मौलिक मुग़ल कारीगरी के एक से एक नायाब शोपीस रखे हुए थे. मैं उन्हें नजदीक से देखने की गरज से स्टोर में घुस गया.
     चूहे की तेज़ आवाज़ को दबाने के विचार से मैंने उठते-उठते सिंहासन और चूहे को एक ही जेब में डाल लिया. मेरी तरकीब काम कर गई. चूहा अब संयत और धीमे स्वर में बोल रहा था. मैं स्टोर के एक काउंटर पर रखे अरब के खुशबूदार खजूर खरीदना चाहता था. मेरा ख्याल था कि चूहा भी इन्हें खा लेगा. पर मैंने उनका दाम देखने के बाद उन्हें वापस काउंटर पर रख दिया, क्योंकि चूहे को इतनी महँगी फीस्ट देने का मेरा मन बिलकुल नहीं था. पास ही बज रहे संगीत की आवाज़ जब थोड़ी कम हुई तो जेब से चूहे और विक्रमादित्य की आत्मा का ख्याल निकल कर फिर मेरे मन में आ गया.
     चूहा कह रहा था - "ये जनाब अपनी भाषा का राग आलापते हुए दूसरों की भाषा और संस्कृति को नेस्तनाबूद करते घूमते रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि आज यदि ये एयरपोर्ट पर लगे निर्देश-पटों को पढ़ नहीं पाते तो अफ़्रीकी, यूरोपियन और एशियाई भीड़ के धक्के खाते हुए ये अज़रबैजान, होनोलूलू या ट्यूनीशिया के जहाज में चढ़ सकते थे... ऐसे में यही हवाई-अड्डा इनके लिए कुम्भ का मेला बन जाता और ये किसी भी द्वीप पर हिप्पियों की तरह घूमते पाए जा सकते थे. फिर इनकी मदद कोई मनमोहन देसाई नहीं कर पाता और ये मिल्टन के लॉस्ट पेरेडाइज में जिंदगी बिता देते."
     चूहे की बात सुन कर मुझे गुस्सा तो आया पर वह टॉफी, जो मैंने अभी खरीदी थी, इतनी स्वादिष्ट थी कि मैंने किसी भी विचार को उसके जायके के आड़े नहीं आने दिया. 
     उस स्टोर पर एक बहुत ही शानदार पठान-सूट टंगा हुआ था, हलके क्रीम कलर का. लेकिन उसे पसंद करने के बाद भी दो कारणों से उसे खरीदने का इरादा मुझे छोड़ना पड़ा. एक तो मैंने जितने रियाल डॉलर के बदले लिए थे, वे सूट खरीदने के लिहाज़ से थोड़े कम थे, दूसरे मेरे हैण्ड-बैग में उसके पैकेट को रखने के बाद जगह की थोड़ी तंगी हो जाने की आशंका थी. मैं बैग को अमेरिका के रास्ते तक थोड़ा खाली रखना चाहता था.क्योंकि मुझे उसमें थोड़ा 'समय' रखना था. इन दो स्पष्ट कारणों के अलावा एक तीसरा छिपा कारण उस सूट को न खरीदने का और भी था. [जारी...]   
           

2 comments:

  1. @ "ये जनाब अपनी भाषा का राग आलापते हुए दूसरों की भाषा और संस्कृति को नेस्तनाबूद करते घूमते रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि आज यदि ये एयरपोर्ट पर लगे निर्देश-पटों को पढ़ नहीं पाते तो अफ़्रीकी, यूरोपियन और एशियाई भीड़ के धक्के खाते हुए ये अज़रबैजान, होनोलूलू या ट्यूनीशिया के जहाज में चढ़ सकते थे... ऐसे में यही हवाई-अड्डा इनके लिए कुम्भ का मेला बन जाता और ये किसी भी द्वीप पर हिप्पियों की तरह घूमते पाए जा सकते थे. फिर इनकी मदद कोई मनमोहन देसाई नहीं कर पाता और ये मिल्टन के लॉस्ट पेरेडाइज में जिंदगी बिता देते."
    क्या बात कही है!

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