Tuesday, April 12, 2011

जानवरों से सीख लेने का समय

दुनिया में ' प्रत्यावर्तन ' होता रहा है। बल्कि प्रत्यावर्तन ही होता रहा है। वर्ना दुनिया गोल न होती। जिस तरह पहाड़ से चली किसी नदी के पत्थर पानी के वेग और ढलान के साथ लुढ़कते-लुढ़कते आकार में गोल हो जाते हैं, उसी तरह दुनिया का आकार भी लुढ़क-लुढ़क कर पुरानी बातों, पुराने मूल्यों और पुराने विचारों के फिर-फिर आने , और पुरानी वस्तुओं में समय के साथ नव्य आभा के निखरने के कारण ही होता है।हमें यह आकार अटल सत्य की तरह लगता है क्योंकि हम दुनिया की कुल उम्र की तुलना में एक अत्यल्प कालखंड में जीते हैं। हमारे नैतिक मूल्य भी इसी तरह हैं। यह काल के साथ विलुप्त हो जाते हैं, या नए मूल्य इन पर अपना आधिपत्य जमा लेते हैं, और फिर एक दिन इन की ज़रूरत फिर से महसूस की जाने लगती है।तसल्ली की बात यह है कि ये फिर से लौट भी आते हैं। लेकिन इसके लिए प्रयास करने पड़ते हैं। क्या यह बिना प्रयास किये भी लौट आते हैं? यह अभी तक पता नहीं चल सका है क्योंकि इनके लिए प्रयास शुरू हो ही जाते हैं। नैतिक मूल्यों के लिए छट-पटाये बिना कोई समय ज्यादा देर तक रह नहीं पाता ।अभी तक हम जो बात कर रहे थे वह सार्वभौमिक रूप में थी। अब हम भारतीय सन्दर्भ में बात करें।
हमारा वर्तमान समय नैतिक मूल्यों की छीछालेदर होने का समय है।छीछालेदर शब्द कोई सम्मानजनक शब्द नहीं है, किन्तु यह इसीलिए प्रयोग किया गया है, कि यह समय ही नैतिक मूल्यों के अपमान का समय है। हम सब राह चलते कहीं भी , कभी भी , किसी से भी और किसी तरह भी अपमानित हो सकते हैं।न कोई तर्क है, और न ही कोई स्पष्टीकरण। हम सब के भीतर बैठा जानवर सर्वथा बेलगाम है।

2 comments:

  1. नैतिक मूल्य अपने आप में ही प्रश्नचिन्ह हैं आज

    ReplyDelete
  2. aapne sahi kaha ki naitik muly aaj bemani hi hain. lekin is sthiti me bhi itni si asha ham man me avashy jagaye rakhen ki shayad yah bhi kabhi laut-laut aayen. ham duniya ke safar me zero naitikta se hi to chale the. fir aaj bhi asha badastur bani rahe ki hamari jo kamai lut gayee vah fir se hame mile.

    ReplyDelete

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...