बयानों पर भी बवंडर आ जाते हैं।
भारत के संविधान में नागरिकों के कुछ मौलिक अधिकार हैं, जिनमें एक है, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार।
कुछ दिनों पहले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के मंच से आशीष नंदी ने किसी वर्ग विशेष पर टिप्पणी कर दी, जिसके कारण उनके पीछे हथकड़ियाँ दौड़ पड़ीं।
लेकिन शायद कोर्ट में इन्हीं मौलिक अधिकारों ने उन्हें बचा लिया।
लिटरेचर फेस्टिवल के बीतते ही फिल्म फेस्टिवल शुरू हो गया। इसकी शुरुआत ही विवाद से हुई। इसमें शर्मीला टैगोर को लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया। इसके मिलते ही अभिनेत्री नगमा का बयान आ गया कि यह पुरस्कार उन्हें देने का आश्वासन दिया गया था, पर शर्मीला को दे दिया गया।
कुछ भी हो, बयानों ने ईवेंट्स के मीडिया कवरेज में तो जान डाल दी।
आजकल वैसे भी, कुछ होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना उसकी कवरेज होना।क्योंकि जो होता है, वो तो चंद लोगों के सामने होता है, पर कवरेज करोड़ों के सामने। अब ये बात और है कि ये 'करोड़ों' कवरेज को कौड़ियों के मोल समझते हैं। बेचारे ये भी क्या करें? इनकी समझ को कोई कुछ समझता भी तो नहीं। समझे भी कैसे? अब हर कोई तो समझदार होने से रहा।
भारत के संविधान में नागरिकों के कुछ मौलिक अधिकार हैं, जिनमें एक है, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार।
कुछ दिनों पहले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के मंच से आशीष नंदी ने किसी वर्ग विशेष पर टिप्पणी कर दी, जिसके कारण उनके पीछे हथकड़ियाँ दौड़ पड़ीं।
लेकिन शायद कोर्ट में इन्हीं मौलिक अधिकारों ने उन्हें बचा लिया।
लिटरेचर फेस्टिवल के बीतते ही फिल्म फेस्टिवल शुरू हो गया। इसकी शुरुआत ही विवाद से हुई। इसमें शर्मीला टैगोर को लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया। इसके मिलते ही अभिनेत्री नगमा का बयान आ गया कि यह पुरस्कार उन्हें देने का आश्वासन दिया गया था, पर शर्मीला को दे दिया गया।
कुछ भी हो, बयानों ने ईवेंट्स के मीडिया कवरेज में तो जान डाल दी।
आजकल वैसे भी, कुछ होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना उसकी कवरेज होना।क्योंकि जो होता है, वो तो चंद लोगों के सामने होता है, पर कवरेज करोड़ों के सामने। अब ये बात और है कि ये 'करोड़ों' कवरेज को कौड़ियों के मोल समझते हैं। बेचारे ये भी क्या करें? इनकी समझ को कोई कुछ समझता भी तो नहीं। समझे भी कैसे? अब हर कोई तो समझदार होने से रहा।
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