एक व्यक्ति व्यवस्थित और अनुशासित रहता है। समय पर खाना , समय पर सोना, समय पर उठना, समय पर आराम करना, समय पर कार्य करना।
दूसरा व्यक्ति लापरवाह और अस्त-व्यस्त है। न सोने का कोई टाइम है, न जागने का। न काम की कोई जवाबदेही, और न दिनचर्या का अता-पता।
दोनों के जीवन, संतुष्टि, उपलब्धियों आदि में जो भी अंतर हो, वह होगा, किन्तु दोनों की भीतरी-दुनिया में कोई विशेष अंतर नहीं होगा।
हाजमोला चाहिए? नहीं पची न बात?
असल में हमारे शरीर का जो खोल है, उसमें दो दीवारें हैं। एक तो बाहरी आवरण, जिस पर बाहर का वायुमंडल, रौशनी, शोर, सहयोग, संवेदना असर डालते हैं, और दूसरा भीतरी आवरण, जिससे हम अपने खून, प्राण, अंगों, अस्थि-मज्जा आदि से जुड़े हैं। मस्तिष्क रेफरी है। दोनों ओर संभालता है।
लापरवाह अस्त-व्यस्त आदमी बाहरी दबावों-लेट हो जाना, मज़ाक उड़ना, डांट खाना, नुक्सान हो जाना जैसे बाहरी हंटर या चाबुक को सहता है। अनुशासित आदमी तनाव, चिंता, खीज, भय, डिप्रेशन, अपेक्षा जैसे भीतरी दबावों को सहता है।
एक के कपड़े, सामान, बाल,मुद्रा अस्त-व्यस्त होती रहती है, दूसरे के शरीर के रस, एन्जाइम्स, शिराएँ, तंतु, कोशिकाएं अस्त-व्यस्त होते रहते हैं।
दोनों को ही बाद में सब ठीक करने के लिए समय, शक्ति, प्रयास, और इच्छा चाहिए।
दूसरा व्यक्ति लापरवाह और अस्त-व्यस्त है। न सोने का कोई टाइम है, न जागने का। न काम की कोई जवाबदेही, और न दिनचर्या का अता-पता।
दोनों के जीवन, संतुष्टि, उपलब्धियों आदि में जो भी अंतर हो, वह होगा, किन्तु दोनों की भीतरी-दुनिया में कोई विशेष अंतर नहीं होगा।
हाजमोला चाहिए? नहीं पची न बात?
असल में हमारे शरीर का जो खोल है, उसमें दो दीवारें हैं। एक तो बाहरी आवरण, जिस पर बाहर का वायुमंडल, रौशनी, शोर, सहयोग, संवेदना असर डालते हैं, और दूसरा भीतरी आवरण, जिससे हम अपने खून, प्राण, अंगों, अस्थि-मज्जा आदि से जुड़े हैं। मस्तिष्क रेफरी है। दोनों ओर संभालता है।
लापरवाह अस्त-व्यस्त आदमी बाहरी दबावों-लेट हो जाना, मज़ाक उड़ना, डांट खाना, नुक्सान हो जाना जैसे बाहरी हंटर या चाबुक को सहता है। अनुशासित आदमी तनाव, चिंता, खीज, भय, डिप्रेशन, अपेक्षा जैसे भीतरी दबावों को सहता है।
एक के कपड़े, सामान, बाल,मुद्रा अस्त-व्यस्त होती रहती है, दूसरे के शरीर के रस, एन्जाइम्स, शिराएँ, तंतु, कोशिकाएं अस्त-व्यस्त होते रहते हैं।
दोनों को ही बाद में सब ठीक करने के लिए समय, शक्ति, प्रयास, और इच्छा चाहिए।
आभार आदरणीय ।।
ReplyDeleteसीधा साधा अर्थ है, दोनों पर है दाब ।
दोनों को देना पड़े, अंत: बाह्य जवाब ।
अंत: बाह्य जवाब, एक को समय बांधता ।
नियम होय ना भंग, समय से *साँध सांधता ।
*लक्ष्य
अस्त-व्यस्त दूसरा, दूसरों में ही बीधा ।
डांट-डपट ले खाय, हमेशा सीधा सीधा ।।
sundar prastuti
ReplyDeleteसच है, संतुलन रहता ही है। "कुल मिलाकर" ज़िंदगी सब कुछ सपाट करती चलती है।
ReplyDeleteBahut-bahut Dhanyawad.
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