जब आप ऐसी खबर पढ़ते हैं, कि प्रकृति अपना तांडव दिखा कर जन-जीवन अस्त-व्यस्त कर रही है तो मन में कुछ सवाल उठते हैं। कहीं बाढ़ ,कहीं अतिवृष्टि, कहीं तूफ़ान,कहीं बर्फ़बारी, कहीं अकाल, तो मन में आता है कि प्रकृति खुद अपने को तहस-नहस क्यों करना चाहती है? क्या इंसान प्रकृति का हिस्सा नहीं है?
लेकिन कभी ऐसा भी लगता है कि शायद प्रकृति इंसान से बात करना चाहती है, और इसीलिए वह कुछ कहने इसी तरह आती है।
जब ऊंची-ऊंची पर्वत-श्रृंखलाओं पर बर्फ गिरती है, तभी तो वेगवती नदियों का जन्म होता है। गंगोत्री से बहा पानी संगम पर आकर महा-कुम्भ में करोड़ों श्रद्धालुओं को पुण्य प्रदान कर रहा है। तो प्रकृति जब भी, जहाँ भी इंसान का अभिषेक करने की अभिलाषा से उमड़ पड़ती है, शायद उसके मन में इंसान का कल्याण ही हिलोरें लेता है।
इंसान में हिम्मत, साहस, चुनौती, जिजीविषा, जगाना भी तो प्रकृति का एक दायित्व ही है,तो इंसान को अकर्मण्यता से बचाने का प्रयास प्रकृति क्यों न करे?
क्या यह पुण्य नहीं है?
लेकिन कभी ऐसा भी लगता है कि शायद प्रकृति इंसान से बात करना चाहती है, और इसीलिए वह कुछ कहने इसी तरह आती है।
जब ऊंची-ऊंची पर्वत-श्रृंखलाओं पर बर्फ गिरती है, तभी तो वेगवती नदियों का जन्म होता है। गंगोत्री से बहा पानी संगम पर आकर महा-कुम्भ में करोड़ों श्रद्धालुओं को पुण्य प्रदान कर रहा है। तो प्रकृति जब भी, जहाँ भी इंसान का अभिषेक करने की अभिलाषा से उमड़ पड़ती है, शायद उसके मन में इंसान का कल्याण ही हिलोरें लेता है।
इंसान में हिम्मत, साहस, चुनौती, जिजीविषा, जगाना भी तो प्रकृति का एक दायित्व ही है,तो इंसान को अकर्मण्यता से बचाने का प्रयास प्रकृति क्यों न करे?
क्या यह पुण्य नहीं है?
सही सोच
ReplyDeleteDhanyawad
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