हमारे देश में कभी यह बात आम थी। बड़े -बड़े राजा-महाराजाओं तक को सत्ता की ज़िम्मेदारी सौंपने से पूर्व राज्य के संत-साधुओं और पीर-फकीरों से राय-मशविरा किया जाता था। धर्माचार्यों और पंडितों-ज्ञानियों की बात का वजन था। धीरे-धीरे ख़ास की जगह आम आदमी ने लेली और वह 'वोटर' बन कर सबका भाग्य-नियंता बन गया।
कहा जा रहा है कि ऐतिहासिक कुम्भ के अवसर पर इस बार देश-भर के साधू-संत अपनी प्राचीन काल वाली भूमिका को दोहराएंगे, और वे देश को अगला प्रधान मंत्री चुनने के लिए अपना मंतव्य बताएँगे।
भूली-बिसरी बातों का फिर-फिर लौटना अच्छा लगता है। देखें, वे क्या कहते हैं।
वैसे पुरानी परम्पराएँ हमने पूरी तरह छोड़ी भी कहाँ हैं। पहले हम राजा के वंश से ही तो नया उत्तराधिकारी चुनते थे। कुछ लोग इस परम्परा पर आमादा हैं, तो कुछ उस पर।
किसे सही कहा जाय, और किसे गलत।
फैसला समय करेगा।
कहा जा रहा है कि ऐतिहासिक कुम्भ के अवसर पर इस बार देश-भर के साधू-संत अपनी प्राचीन काल वाली भूमिका को दोहराएंगे, और वे देश को अगला प्रधान मंत्री चुनने के लिए अपना मंतव्य बताएँगे।
भूली-बिसरी बातों का फिर-फिर लौटना अच्छा लगता है। देखें, वे क्या कहते हैं।
वैसे पुरानी परम्पराएँ हमने पूरी तरह छोड़ी भी कहाँ हैं। पहले हम राजा के वंश से ही तो नया उत्तराधिकारी चुनते थे। कुछ लोग इस परम्परा पर आमादा हैं, तो कुछ उस पर।
किसे सही कहा जाय, और किसे गलत।
फैसला समय करेगा।
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