पिछले दिनों मैं अपने एक मित्र के घर बैठा था कि टीवी के कार्यक्रमों की चर्चा चल पड़ी। "लोग इन कार्यक्रमों को गंभीरता से नहीं लेते, इसलिए इनका स्तर भी गिरता जा रहा है", ऐसा कहने वाले एक सज्जन बता रहे थे कि कुछ समय पहले तक वे एक चैनल बड़े शौक से देखते थे, लेकिन अब उन्होंने उसे देखना छोड़ दिया है। कारण पूछने पर वे बोले- "वह चैनल ज़्यादातर एक ही हीरोइन की फ़िल्में और गाने दिखाता रहता है,जबकि उनमें कई तो ऐसी हैं जो बिलकुल चली भी नहीं थीं।"
एक अन्य मित्र बोले- "अरे भाई, वे तो फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष हैं।"
एक अन्य मित्र बोले- "नहीं-नहीं, वह तो पहले भी ऐसे ही एक दूसरी हीरोइन की फिल्मों पर मेहरबान था, हमेशा उन्हीं की फ़िल्में और गाने दिखाता रहता था।" ऐसा कह कर उन्होंने उस हीरोइन का नाम भी लिया।
मित्र धीरे से बोले-"हाँ, तब वो सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष थीं।"
[आशा पारेख और शर्मीला टैगोर से क्षमा याचना सहित]
एक अन्य मित्र बोले- "अरे भाई, वे तो फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष हैं।"
एक अन्य मित्र बोले- "नहीं-नहीं, वह तो पहले भी ऐसे ही एक दूसरी हीरोइन की फिल्मों पर मेहरबान था, हमेशा उन्हीं की फ़िल्में और गाने दिखाता रहता था।" ऐसा कह कर उन्होंने उस हीरोइन का नाम भी लिया।
मित्र धीरे से बोले-"हाँ, तब वो सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष थीं।"
[आशा पारेख और शर्मीला टैगोर से क्षमा याचना सहित]
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