मीडिया के गलियारों में पिछले दिनों बड़ी मायूसी से यह सवाल उठा कि दुनिया के श्रेष्ठ शिक्षा केन्द्रों की सूची में भारतीय शिक्षा केन्द्रों का कहीं अता-पता नहीं है। दुनिया के प्राचीनतम ज्ञान-गुरु का तमगा पा चुके देश का इस मुद्दे पर तिलमिलाना स्वाभाविक है। लेकिन पिछले कुछ समय से शिक्षा को लेकर हमारे सरोकारों में जो बुनियादी बदलाव आया है, उसके चलते यह अस्वाभाविक भी नहीं है कि हम इस दौड़ में पिछड़े सिद्ध हों।
आज भारत के किसी भी कोने में स्थित ऐसा कोई विद्यालय नहीं है जिसके "सर्वश्रेष्ठ" विद्यार्थी से यदि पूछा जाए, कि वह अपना उच्च अध्ययन कहाँ करना चाहता है, तो वह देश के ही किसी संस्थान का नाम ले। हमारे मेधावी विद्यार्थियों की यह समझ कोई एक दिन में नहीं बनी है।
इसका सीधा कारण "राजनीति की हमारी लत" है। हम जब भी किसी भारतीय संस्थान को आगे बढ़ता देखते हैं, अपने अक्षम और 'सिफारिशी' नौनिहालों को किसी भी बहाने [आधार नहीं] उसमें घुसाने की जोड़-तोड़ में लग जाते हैं। फिर जिस नाव में पत्थर भरे जायेंगे उसका हश्र और क्या होगा? जो देश "सबको पानी, सबको रोटी,सबको छत", जैसी समस्या अभी तक हल न कर पाया हो, वह "सबको शिक्षा" देने की मुहिम में कहाँ खडा होगा?
आज भारत के किसी भी कोने में स्थित ऐसा कोई विद्यालय नहीं है जिसके "सर्वश्रेष्ठ" विद्यार्थी से यदि पूछा जाए, कि वह अपना उच्च अध्ययन कहाँ करना चाहता है, तो वह देश के ही किसी संस्थान का नाम ले। हमारे मेधावी विद्यार्थियों की यह समझ कोई एक दिन में नहीं बनी है।
इसका सीधा कारण "राजनीति की हमारी लत" है। हम जब भी किसी भारतीय संस्थान को आगे बढ़ता देखते हैं, अपने अक्षम और 'सिफारिशी' नौनिहालों को किसी भी बहाने [आधार नहीं] उसमें घुसाने की जोड़-तोड़ में लग जाते हैं। फिर जिस नाव में पत्थर भरे जायेंगे उसका हश्र और क्या होगा? जो देश "सबको पानी, सबको रोटी,सबको छत", जैसी समस्या अभी तक हल न कर पाया हो, वह "सबको शिक्षा" देने की मुहिम में कहाँ खडा होगा?
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