Tuesday, September 20, 2011

गुड़ और मिठास का रिश्ता अर्थात गीतों का अगंभीर अर्थशास्त्र

फिल्मों में गीत लिखना मुश्किल काम है.क्योंकि यहाँ पहले गीत नहीं लिखे जाते, बल्कि पहले संगीत तैयार होता है, फिर संगीत के टुकड़े को सुन कर उसमे शब्द भरे जाते हैं.कई बार गीतकार शब्द भरने से पहले निर्माता की जेब टटोलते हैं.वहां उन्हें जितना गुड़ मिलता है, उतनी ही मिठास वे भर देते हैं गीत में.
निर्माता ने कहा-पैसे की कोई चिंता मत कीजिये, ये लीजिये पूरा पैसा एडवांस. गीत का मुखड़ा देखिये-
धानी चुनरी पहन सज के बन के दुल्हन जाउंगी उनके घर जिनसे लागी लगन आयेंगे जब सजन जीतने मेरा मन कुछ न बोलूंगी मैं मुख न खोलूंगी मैं बज उठेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ ये कहेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ...
गीतकार ने मेहनताना माँगा,निर्माता ने कहा-ये तो बहुत ज्यादा है. हम इसका आधा ही दे पाएंगे.तो लीजिये सुनिए गीत का मुखड़ा-
वो हैं ज़रा खफा खफा कि नैन यूँ मिलाये हैं कि हो हो ,हो हो,हो हो, हो ...
गीतकार ने पैसा माँगा.निर्माता ने कहा,इतना बजट कहाँ है?मुश्किल से एक तिहाई दे पाएंगे.गीत का मुखड़ा यूँ बना-
ये हवा ये हवा ये हवा,ये घटा ये घटा ये घटा...
अब देखिये,निर्माता कड़का निकला.बोला-पैसे वैसे की बात मत करो, अभी तो कुछ नहीं है, बाद में देखेंगे.ये मुखड़ा तैयार हुआ गीत का-
ललाई लाई लाई ललाई ललाई लाई,ललाई लाई लाई ललाई ललाई लाई...
निर्माता बहुत ही छोटा था.बोला-पैसे वैसे भूल जाओ,तुम्हारा गीत ले रहे हैं, यही अहसान मानो.देखिये क्या गीत लिखा गया-
गाओ यारो गाओ ,नाचो यारो नाचो ...
तो इसे कहते हैं-जितना गुड़, उतनी मिठास.

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