Monday, September 12, 2011

बरखारानी,ज़रा थम के बरसो

बरसात भी बहुत लापरवाह है.चाहे जहाँ हो जाती है.अब दिल्ली में ही हो गई.यह भी नहीं सोचा,कम से कम ऐसे समय तो हो,जब कोई फैसले लेने वाला तो मौजूद हो.कितनी मुश्किल हो जाती है?
पानी बरसता है,तो सबसे पहले सड़कों को तोड़ता है,गड्ढे ही गड्ढे हो जाते हैं.ऐसे में जनता तो फिर भी किसी तरह कूद-फांद कर निकल लेती है,बेचारी सरकार मुसीबत में फंस जाती है.
अब यदि सरकार इन गड्ढों को भरवा दे,तो इन पर अड़ियल घोड़े रथ दौड़ाने लग जाते हैं.यदि न भरवाए,ऐसे ही छोड़ दे तो कीचड़ हो जाता है.और फिर दोहरी मुसीबत.एक तो बात-बात पर कीचड़ सरकार पर ही उछलने लगता है,दूसरे कीचड़ में ही 'कमल' खिलता है.कमल चाहे हमारा राष्ट्रीय फूल हो,सरकार को यह रास नहीं आता.सरकार इसे 'फ़ूल' ही समझती है.
वैसे सरकार इतनी बेबस भी नहीं है.किसी तालाब में ज्यादा कमल हों,तो सरकार के हाथ में भी कमला है.
लोकपाल चाहे किसी का हो,राज्यपाल तो सरकार का होता है.महिला सशक्तिकरण के दौर में गुलेल चलाना तो सब को आता है.लौह-पुरुषों को अशक्त करना भी तो महिला सशक्तिकरण है.
सचमुच बरसात बहुत लापरवाह है.

3 comments:

  1. होने दो जो हो रहा है।

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  2. पढ़कर याद आया कि स्पीड ब्रेकर देखकर पहला प्रश्न यही उठता था की जब सड़क ही स्पीड ब्रेकर हो तो अलग से लगाने की क्या ज़रुरत? लापरवाह बरसात की भली कही.

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