-अच्छा शादी है? हम तो नहीं आ पाएंगे,बेटे की कोचिंग है न.
-घर में मेहमान आये हैं तो क्या,इसे मत डिस्टर्ब करो,इसकी कल परीक्षा है.
-यह खेलता रहता है,घर में रह कर नहीं पढ़ पायेगा,इसे होस्टल में डाल दो.
-लेडीज़ संगीत में मैं कैसे आ सकती हूँ,बेटी को होमवर्क कराने की ज़िम्मेदारी तो मेरी ही है.
यह सब बातें सुन कर ऐसा लगता है कि एक ओर जीवन है,दूसरी ओर शिक्षा.अर्थात यदि शिक्षा से जुड़ना है,तो जीवन से हटना होगा.जीवन की उमंगों में रचना-बसना है तो शिक्षा को तिलांजलि देनी होगी."लंगोट धारण करके बालों को कटवा कर पच्चीस वर्ष तक पुस्तकों,ब्रह्मचर्य और गुरु के सान्निध्य में रहो,फिर जीवन में लौटना"यह पुरातन विचार तो अब अप्रासंगिक हो ही गया है.
जो लोग समझते हैं कि शिक्षा अब पटरी से उतर रही है,उन्हें समझना होगा कि शिक्षा अब जीवन से जुड़ना चाहती है.पढ़ते-पढ़ते कमा लो,कमाते-कमाते पढ़ लो,दोस्त की बर्थडे पार्टी में थे,या क्लास में,ज्यादा फर्क नहीं पड़ता.क्योंकि कक्षा में जो कुछ सिखाया जा रहा है,वह मित्रों के नोट्स में,टीवी पर,इंटरनेट पर या जीवन में है.कोई गुनाह नहीं किया,जो क्लास अटेंड नहीं की.किसी के अंक ज्यादा आये,किसी के कम,तो क्या?जिनके कम आये,उन्हें भी भूख तो लगेगी.उन्हें भी तन ढकना है.उन्हें भी छत चाहिए.शिक्षा कोई मछली फंसाने का कांटा नहीं है जिसमे आप जीवन की सम्पन्नता और सुविधा को फंसा कर अपने टोकरे में डाल लें.
जो शिक्षाविद ऐसा सोचते हैं कि शिक्षा ही जीवन को हड़प ले,बाक़ी सब गड्ढे में जाये,वे ज़रा और सोचें,यदि उन्हें प्रासंगिक बने रहना है.
ज्यादा ज़मीन वाले सरकार के निशाने पर आयें,ज्यादा पैसा बटोरने वाले ज्यादा टैक्स भरें,ज्यादा स्वास्थ्य कमाने वाले बाद में स्लिम होने के नुस्खे तलाशें,तो यह सब ज्यादा शिक्षा बटोरने वालों पर भी क्यों न लागू हो?यदि शिक्षा पद,पैसा,ख़ुशी और सम्पन्नता बटोरने वाला यन्त्र है तो इसे भी छीनने की कोशिश क्यों न हो?क्यों न इस पर भी डाके और छापे पड़ें.शिक्षा यदि जीने की निपट-चतुरता है,तो इसकी भी अधिकता को क्यों न "ब्लैक-लिस्ट"किया जाये?
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