Friday, September 30, 2011

सपने भी व्यावसायिक हो गए तो कैसे चलेगा ?

किसी समय प्रधानमंत्री जब विदेश यात्रा से लौटते थे तो एयरपोर्ट पर उनकी अगवानी के लिए सारा मंत्री-मंडल जाता था. सब आल्हादित होकर अपने नेता की मिजाज़-पुरसी करते थे, और मन ही मन सोचते थे कि देखें अब हमें क्या मिलेगा? 
अब तो न्यूज़ में भी विज्ञापन. कोई बात आप बिना विज्ञापन के सुन ही नहीं सकते. नींद में भी यदि आप समाचार सुनें तो बीच-बीच में ब्रेक के लिए तैयार रहिये. अब जब इतने दिनों बाद 'माननीय' वापस देश लौटे, तो  लगा था कि सारे छोटे-भैया मिलने आयेंगे, और भरत-मिलाप जैसा द्रश्य उपस्थित हो जायेगा. लेकिन विज्ञापनों ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा समाचार और विज्ञापन आपस में मिल गए . "ब्रेकिंग-न्यूज़" में बस इतना आया- "अंकल-अंकल आये, हमारे लिए क्या लाये? राजू के लिए इस्तीफ़ा, पप्पू के लिए इन्क्वायरी,सोनू के लिए बर्खास्तगी , चुन्नू के लिए सम्मन, मुन्नू के लिए तिहाड़ का टिकट. 
इससे पहले कि यह पता चल पाता कि यह समाचार है या विज्ञापन, झटपट कार्यक्रम 'अतीत के झरोखे से' शुरू हो गया. उदघोषिका हमारे उस गौरवशाली अतीत पर प्रकाश  डालने लगी, जब कभी हमारे नेताओं को विदेश जाने की ज़रुरत ही  नहीं पड़ती थी, केवल एक जेट विमान जाता था और उनके लिए चप्पल खरीद लाता था,या फिर उच्चाधिकार-प्राप्त प्रतिनिधि-मंडल विलायत जाकर कपड़ों पर इस्त्री करवा लाता था.तब यह गर्व करने की बात समझी जाती थी. अब तो ईर्ष्या की बात हो गई है.सपने भी व्यावसायिक हो गए तो कैसे चलेगा?    













Wednesday, September 28, 2011

'माननीय' की प्रेस-कॉन्फ्रेंस देख उन्होंने नूरजहाँ बनने की ठानी

जब उन्होंने देखा कि 'माननीय' की प्रेस-कॉन्फ्रेंस किसी कॉमेडी-शो की तरह हिट हो रही है, तो उन्हें बरबस जहाँगीर की याद हो आयी. साथ ही उन्हें यह भी याद आया कि अगर जहाँगीर कहीं कोई न्याय नहीं कर पा रहा, तो उन्हें उसकी मदद करनी चाहिए. आखिर वे भी तो नूरजहाँ की भूमिका में हैं? उनका दायित्व बनता है कि परदे के पीछे से जहाँगीर की ऐसे मदद करें, कि परदे के आगे जहाँगीर की किरकिरी न हो. वे नाश्ते की टेबल से ही शुरू हो गईं. 
बोलीं- सुनो जी, ये क्या हालत बना रखी है [देश की] कुछ लेते क्यों नहीं ? 
क्या लूं ? वे मायूसी से बोले. 
डिसीजन, उन्होंने सुझाया.
तू तो ऐसे पीछे पड़ जाती है, जैसे डिसीजन लेना मेरा काम हो ? वे बोले. 
तो किसका काम है ? उन्होंने हैरानी से पूछा. 
उनका नाम लेना मेरा काम नहीं है. उन्होंने पल्ला झाड़ लिया.
अच्छा बाबा, किसी का नाम-वाम मत लो, पर कमसे कम घोटालेबाजों को पकड़ो तो सही.उन्होंने शांति से समझाया. 
अरे पकडूं तो तब, जब वे कहीं भागें, वे तो मेरे चारों तरफ आराम से बैठे हैं. वे बोले. 
अजी, सच कहना, कहीं तुमभी उन्हीं में से ...  

Tuesday, September 27, 2011

देश की मदद नहीं करोगे बच्चो?

बच्चो, तुम आर्यभट्ट के देश में पैदा हुए हो. अबुल-फज़ल तुम्हारे पूर्वज हैं. एक से बढ़कर एक गणितज्ञ  अपने देश में हुए हैं, उनका स्मरण करो. आज देश के सामने एक बड़ी चुनौती है. आज तुम्हारे पास तरह-तरह के कंप्यूटर और कैलकुलेटर हैं. उनका सहारा लो, और देश की जिज्ञासा शांत करो. 
यह मत सोचो कि केवल लोकपाल ही देश हित में सोचते हैं. राज्यपाल भी देश की चिंता में दुबले होते हैं. आज एक राजभवन तुमसे मदद चाहता है. छोटे-छोटे दो सवाल तुम्हे हल करने हैं. कैसे भी दो, पर इनका उत्तर दो. यह देश की प्रतिष्ठा का सवाल है. 
हिसाब जानते हो न ? 
तो फ़टाफ़ट हिसाब लगा कर बताओ कि अगर गुजरात में  कुछ लाख लोग कुछ दिन खाना न खाएं तो कितना "खर्चा" आएगा ? 
दूसरा सवाल- यदि दिल्ली में  कुछ लोग कुछ करोड़ -अरब रुपया खा जाएँ तो देश को कितनी "बचत" होगी. 
राजभवन का फोन नंबर है ? तुम सीधे भी अपना उत्तर वहां बता सकते हो,वो क्या है न, राजभवन को थोड़ी जल्दी है. 

Monday, September 26, 2011

आज "माननीय" मीडिया से मुखातिब होंगे

जनता चाहती थी कि वे भ्रष्टाचार और घोटालों पर कुछ बोलें.मांग जायज़ थी. आखिर इतना सा हक़ तो जनता का भी बनता था कि एक के बाद एक घोटालों और भ्रष्टाचार-महोत्सवों के बाद उनके मुखारविंद  से सुनें कि अपनी कुर्सी के नीचे चूहों की तरह दौड़ते घोटालों के ज़ाहिर होने के बाद वे कैसा महसूस करते हैं. 
जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने आखिर प्रेस-कॉन्फ्रेंस रख ही ली. तमाम चैनलों को मानो महीनेभर का राशन एक साथ मिल गया. ताबड़तोड़ कवरेज़ के लिए लपके. जनता भी अपने-अपने घर में सांस रोक कर टीवी के सामने बैठ गयी. लाइव तो होना ही था.खखार कर उन्होंने कहना शुरू किया-
जब कुछ होता है, तो वह हो जाता है. जब हो जाता है, तब कुछ नहीं हो पाता.
एक युवा पत्रकार ने सवाल किया-सरकार जो करने के लिए कहती है, वो तो हो नहीं पाता, फिर ये सब कैसे हो जाता है? 
वे बोले-बोलने से ध्यान भंग होता है, चुपचाप सब हो जाता है. 
एक बुज़ुर्ग पत्रकार की आवाज़ आई-चुपचाप विकास क्यों नहीं होता? 
-क्योंकि आप बोल रहे हैं, चुप रहेंगे तो आपका भी विकास हो जायेगा. वे बोले. 
एक और आवाज़ आई-हमारे चुप रहने से क्या होगा,कोर्ट तो बोल रहे हैं. 
-देखिये जब कोर्ट बोल रहे हैं, तब हमारा बोलना ठीक नहीं है. वैसे भी जब रामपुर में घोटाला हुआ, तब मैं लक्ष्मणपुर में था.जब सड़क पर घोटाला हुआ, मैं हवाई यात्रा में था.जब रूपये में घोटाला हुआ, तब मेरी जेब में डॉलर थे. जब मेरे पीए ने मुझे फोन पर बताना चाहा,मेरा फोन स्विच ऑफ था. 
लेकिन आप लौटने के बाद तो कुछ कर सकते थे? पत्रकार झल्लाया. 
-तब मेरा मूड-ऑफ था. 

Sunday, September 25, 2011

नटों को चाहिए-चार बांस और एक लम्बी रस्सी

हमारे देश में रोटी कमाने के उतने ही तरीके हैं,जितने खाने वाले पेट. संसाधन कुछ भी हों, बस जोड़ी में हों.यदि आपके पास चार बांस और एक रस्सी हो तो आप कमा-खा सकते हैं.एक गला और एक ढपली हो तो आप भूखे नहीं रहेंगे.एक कमर और एक जोड़ी घुँघरू हों तो भी आपका पेशा चल निकलेगा. और एक जोड़ी खादी के कपड़े और एक लाल बत्ती वाली गाड़ी हो, तो भी आप जी लेंगे. 
चार बांस कहीं भी गाढ़ दीजिये, उन पर खींच कर रस्सी बांधिए, और दिखा दीजिये कोई भी करतब. जनता ताली भी बजाएगी और थाली में चिल्लर भी डालेगी. न आपको कोई रोकने वाला, न कोई टोकने वाला क्योंकि बांस भी आपके और रस्सी भी आपकी. रस्सी ऊँचाई पर बांधेंगे तो जनता सर उठा कर करतब देखेगी. नीचाई पर बांधेगे तो नज़रें झुका कर देखेगी.साथ में नट की आवाज़ भी खनकदार हुई तो सोने पे सुहागा. कुछ  भी कर सकते हैं, जनता को भायेगा ही. 
सबसे पहले रस्सी को धीरे-धीरे नीचे लाइए. देखिये गरीबी घटी? घट गई न? और नीचे लाइए. और घटी?बस ऐसे ही. घटा लीजिये, जितनी चाहिए. 
ये आ गई रस्सी बत्तीस फुट पर. बस. अब और कम नहीं. इतने बड़े मुल्क में इतने से गरीब तो चाहिए. 
'करतब' आता हो तो अमीरी-गरीबी क्या चीज़ है.  

Saturday, September 24, 2011

अब क्या तिहाड़ को "पांच सितारा"ही बना कर रहेंगे?

लगता है सारे विकास के बावजूद दिल्ली में अभी भी फाइव स्टार रिहायशों की कमी है.सारे के सारे वीआइपी एक ही जगह टूट कर पड़ रहे हैं.किरण बेदी वास्तव में बधाई की हक़दार हैं.अपने दिल्ली के कार्यकाल के दौरान उन्होंने  तिहाड़ में इतने सुधार किये, इतने सुधार किये कि अब तिहाड़ की रसोई की महक बड़े बड़ों को लुभा रही है.जिसे देखो, आने को आतुर है. जो लोग 'लोकपाल' की नज़रों के दायरे में आने तक में कतरा रहे थे वे भी तिहाड़ की ओर 'ताक'रहे हैं. देखे कब से हमारा भी नाम तिहाड़ की रोटियों पर लिखा है?यहाँ भी एडवांस बुकिंग? 
कभी आज़ादी की लड़ाई में बड़े-बड़े नेता,क्रांतिकारी और लोकसेवक जेल गए थे. शायद वक्त अब प्रायश्चित करे कि वे कौन लोग थे,और ये कौन लोग हैं.हो सकता है कि यही आधुनिक किला "तिहाड़" इन की आत्मा 'वाश' करके इन्हें बाहर  निकाले.लेकिन इन लोगों ने कोई 'सेकेण्ड लाइन' तैयार न कर रखी हो? देश एक बार तो संसद और सरकार "वेकेट" कराये.  

वेरी पुअर परफोर्मेंस सर !

विश्व का जनसँख्या में दूसरा सबसे बड़ा देश.ऐसे देश के जनसँख्या में सबसे बड़े राज्य के नेता.देश भी लोकतंत्र.जहाँ जिसके पीछे जितने ज्यादा लोग,वह उतना ही बड़ा नेता. सबसे बड़े राज्य के नेता बनने के बाद पूरे देश के प्रधानमंत्री बनने को आतुर नेता.न बन पाने के बावजूद कई राज्यों के राज्यपाल. पिच्चासी में से सत्तर बरस राजनीति में निकालने वाले नेता.राजनीति में भी ज़्यादातर समय सत्ता-पक्ष में बैटिंग करने वाले नेता. 
जो बात आम-आदमी के केस में नर्स या दाइयां कह देती हैं, वह बात कहने के लिए देश के न्यायालय को मजबूर कर देने वाले नेता.जिस देश में हर जन्मदिन या पुण्यतिथि के अवसर पर जनता को उकसा कर रक्तदान करवाया जाता है,उस देश में कोर्ट के आदेश के बावजूद जांच तक के लिए नमूने का एक बूँद रक्त न देने वाले नेता.
और एकसौ बीस करोड़ लोगों के देश में से केवल एक ,अकेला रोहित ही आपका बेटा निकला?
वेरी पुअर परफोर्मेंस सर!

Friday, September 23, 2011

दो जोड़ी कान, एक जोड़ी आँख और सात नंबर का ऊपर वाला होठ पैक कर दीजिये

विज्ञानं का बाज़ार जल्दी ही हमारे अवयवों को मशीनों के पुर्जों की तरह रिटेल में उपलब्ध कराने जा रहा है.जिस तरह आप अपनी गाड़ी के लिए मनचाही लाइट या शीशा खरीद लेते हैं,उसी तरह आप अपने शरीर के लिए भी मनपसंद पुर्जे तैयार रूप में खरीद सकेंगे.इन अवयवों को आसानी से आपके शरीर में कोई भी सर्जन प्रतिरोपित कर देगा.मिसाल के तौर पर यदि आप चाहते हैं कि आपकी आँखें थोड़ी और बड़ी हो जाएँ तो आप बाज़ार से अपनी पसंद की आँखें, रंग व आकार चुन कर ला सकते हैं.ये साधारण सी शल्य-क्रिया से आपके चेहरे पर फिट कर दी जाएँगी.इस तरह 'ग्लोबल इंसानों' की एक समरस दुनिया अपने आप तैयार हो जाएगी,जहाँ आप चुन सकेंगे-मंगोलियन चेहरे पर ईरानी कान,रूसी दांत, पेरू की अंगुलियाँ और जापानी नाखून.फिर कोई आपको अफ़्रीकी, अमेरिकन, अरबी या इन्डियन नहीं कहेगा, बल्कि आप हो जायेंगे डब्ल्यू डब्ल्यू पी, अर्थात वर्ल्ड-वाइड पर्सन.
इन अंगों को लगाने वाले डाक्टर खून से आपके चेहरे की ग्रीसिंग और ओइलिंग इस तरह कर देंगे कि चेहरे पर कोई दाग-धब्बा न रहे.
आपको पसंद आ रही है यह बात?तो अपने उन अवयवों की पहचान करके रखिये जो आपको पसंद नहीं हैं या बेडौल हैं.और यदि पसंद नहीं आ रही, तो भी चिंता की कोई बात नहीं है,क्योंकि इस सब में अभी काफी वक्त लगने वाला है. इतनी जल्दी नहीं होगा यह सब. 
लेकिन जब होगा, तो सोचिये, क्या खूब होगा? 

Thursday, September 22, 2011

क्रिकेट-मैदानों का एक कोना और शर्मीला टैगोर की मांग

कुछ दिन पहले जब करीना कपूर अपने जन्मदिन की पार्टी को स्थगित करने का आग्रह कर रहीं थीं,तब यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि दूसरों के लिखे संवाद बोलने और निर्देशक के कहने पर लब हिलाने वाली इस संजीदा अभिनेत्री के अपने निजी सुख-दुःख भी हैं.उन्हें भी पूर्व-आभास और अहसास हो जाते हैं कि पटकथा में आगे क्या लिखा है.खैर,जन्मदिन तो आगे भी आयेंगे,पर सैफ को संवेदना का यह गिफ्ट जो उन्होंने दिया, उसे वे जल्दी नहीं भूलेंगे.
मैं जब नौ वर्ष का था,एक टेलेंट-हंट प्रतियोगिता में भाग ले रहा था,परीक्षा से लगभग आधा घंटा पहले परीक्षा केंद्र में पानी की प्याऊ[उस समय कूलर नहीं लगे होते थे] पर मेरे एक मित्र ने कहा-अभी-अभी ट्रांजिस्टर सुना था,न्यूज़ में आया है कि कैप्टन फारुख इंजिनियर को नहीं, मंसूर अली को बनाया है.संयोग से परीक्षा में यह प्रश्न भी आया, कि भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान कौन है?और सही जवाब क्या है, इस पर हम नन्हे प्रतियोगियों में जमकर चर्चा भी हुई थी. जब मैं दसवीं कक्षा में आया, तब सुना कि 'एन इवनिंग इन पैरिस' और 'वक्त' वाली शर्मीला का नाम अब आयशा सुल्ताना हो गया, क्योंकि उसने मंसूर अली खान से शादी करली.
इतिहास,समय और गंगा अपनी-अपनी रफ़्तार से बहते रहे.साथ-साथ बहती रही नवाब,शर्मीला,मेरी और आपकी उम्र भी.
यकीन नहीं होता कि अमरप्रेम की हीरोइन अब मांग में सिन्दूर नहीं भरेगी.जीवन यही है.

Wednesday, September 21, 2011

अब दांत से पाई-पाई नहीं, लाखों का जेवर पकड़िये

गहनों का चलन बहुत पुराना है.थोड़े बहुत गहने तो कमोवेश विश्व के सभी देशों में पहने जाते हैं.गहने पहनने के कई कारण गिनाये जाते हैं.यह सुन्दर लगते हैं,इनके माध्यम से कई कीमती धातुएं आड़े वक्त के लिए हमेशा हमारे पास होती हैं,यह तरल पैसा है,कुछ-एक गहनों की शारीरिक उपयोगिता भी है जो शरीर के तंत्रिका-तंत्र या रक्त-परिवहन से जुड़ी है.
तो अब तैयार हो जाइये इक्कीसवीं सदी के एक ख़ास आभूषण को पहनने के लिए,जो उपयोगिता में सभी गहनों को पीछे छोड़ देगा.इसकी सबसे बड़ी खूबी यह होगी कि इसे महिलाएं व पुरुष दोनों चाव से पहनेंगे.
यह पोर्सिलीन,प्लास्टिक और प्लैटिनम के फ्रेम पर बना होगा तथा इसमें कोई भी बेशकीमती रत्न-हीरा,पन्ना या माणिक काम में लिया जा सकेगा.इसे दांतों पर पहना जा सकेगा,जहाँ से यह मुंह को आराम और होठों को शोभा तो देगा ही,आपके लिए ज़बरदस्त काम भी करेगा.
खाई जाने वाली सभी चीज़ों को चबाने की ज़िम्मेदारी पूरी तरह इसी की होगी.भोजन के ठंडा,गरम,खट्टा या मीठा होने पर इसकी भूमिका और भी बढ़ जाएगी.यह भोजन के तापमान व अम्लीय गुणों को सहने की मुंह की क्षमता बढ़ाएगा.आप फ्रीज़र से निकली आइसक्रीम तुरंत मुंह में रखें,या उबलती हुई कॉफ़ी, यह सब सह लेगा.ठोस भोजन को टुकड़ों में बांटने और चबाने का काम भी यही करेगा. दांत हमेशा सही-सलामत रखने में यह गहना जादुई चिराग साबित होगा. 
बस यह समझ लीजिये कि आपके दांतों पर एक छोटा सा रत्नजड़ित मिक्स़र-ग्राइंडर ही लगने वाला है जो गुलाबी होठों के बीच हीरों के झाड-फानूस की भाँति दमकता भी रहेगा.
सजने का हक़ कानों, नाक या गले को ही क्यों हो, दांतों को क्यों नहीं? नेकलेस, टॉप्स या नथनी को कोई नया जोड़ीदार भी तो मिले.बरास्ता फ़्रांस और इंग्लैण्ड, इस सौगात को भारत में आने तो दीजिये-इसे दुनिया-भर में हाथों-हाथ नहीं,बल्कि दांतोंदांत लिया जायेगा.

Tuesday, September 20, 2011

गुड़ और मिठास का रिश्ता अर्थात गीतों का अगंभीर अर्थशास्त्र

फिल्मों में गीत लिखना मुश्किल काम है.क्योंकि यहाँ पहले गीत नहीं लिखे जाते, बल्कि पहले संगीत तैयार होता है, फिर संगीत के टुकड़े को सुन कर उसमे शब्द भरे जाते हैं.कई बार गीतकार शब्द भरने से पहले निर्माता की जेब टटोलते हैं.वहां उन्हें जितना गुड़ मिलता है, उतनी ही मिठास वे भर देते हैं गीत में.
निर्माता ने कहा-पैसे की कोई चिंता मत कीजिये, ये लीजिये पूरा पैसा एडवांस. गीत का मुखड़ा देखिये-
धानी चुनरी पहन सज के बन के दुल्हन जाउंगी उनके घर जिनसे लागी लगन आयेंगे जब सजन जीतने मेरा मन कुछ न बोलूंगी मैं मुख न खोलूंगी मैं बज उठेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ ये कहेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ...
गीतकार ने मेहनताना माँगा,निर्माता ने कहा-ये तो बहुत ज्यादा है. हम इसका आधा ही दे पाएंगे.तो लीजिये सुनिए गीत का मुखड़ा-
वो हैं ज़रा खफा खफा कि नैन यूँ मिलाये हैं कि हो हो ,हो हो,हो हो, हो ...
गीतकार ने पैसा माँगा.निर्माता ने कहा,इतना बजट कहाँ है?मुश्किल से एक तिहाई दे पाएंगे.गीत का मुखड़ा यूँ बना-
ये हवा ये हवा ये हवा,ये घटा ये घटा ये घटा...
अब देखिये,निर्माता कड़का निकला.बोला-पैसे वैसे की बात मत करो, अभी तो कुछ नहीं है, बाद में देखेंगे.ये मुखड़ा तैयार हुआ गीत का-
ललाई लाई लाई ललाई ललाई लाई,ललाई लाई लाई ललाई ललाई लाई...
निर्माता बहुत ही छोटा था.बोला-पैसे वैसे भूल जाओ,तुम्हारा गीत ले रहे हैं, यही अहसान मानो.देखिये क्या गीत लिखा गया-
गाओ यारो गाओ ,नाचो यारो नाचो ...
तो इसे कहते हैं-जितना गुड़, उतनी मिठास.

Monday, September 19, 2011

३०० पोस्ट पूरी: ये तिहरा शतक "स्मार्ट इंडियन", डॉ.अजित गुप्ता और गिरिजेश कुमार के नाम

एक बार अंक आपस में लड़ पड़े. नौ ने कहा-इंसान नौ माह माँ के पेट में रह कर धरती पर आता है.दो बोला-सारे ज़रूरी अंग दो हैं, आँखें,कान,हाथ,पैर...पांच से चुप न रहा गया-संतुलित रहना है तो अंगुलियाँ पांच चाहिए.चार को चारों दिशाओं से समर्थन मिल रहा था.एक ने कहा-नंबर वन की बात ही निराली है.उधर छह सबको छठी का दूध याद दिलाने को ललकार रहा था.
तभी शून्य की आवाज़ आई-लड़ लो, तुममे से कोई नहीं जीतने वाला.मुझे अपने सर पर बैठाओ, फिर देखो तुम्हारी महिमा.सब चुप हो गए.
आज तीन ने एक नहीं,बल्कि दो-दो शून्य सर पर बैठा लिए हैं.अर्थात पूरे ३००
मुझे इस सफ़र में मिले तीन लोग याद आ रहे हैं.
डॉ.अजित गुप्ता जब राजस्थान साहित्य अकादमी की अध्यक्ष थीं,चाहते हुए भी उनसे कभी मिलना न हो पाया.जब अमेरिका से लौटा तो सोचा था,उनके सहयोग से एक पत्रिका निकालने की योजना पर काम करूंगा.पर आने के बाद कुछ और प्रस्तावों से जुड़ना पड़ा,और पत्रिका की बात किनारे रह गई.
ब्लॉग पर ही गिरिजेश कुमार से जुड़ा.मुझे अपने वे दिन याद आ गए, जब मैं भारतीय विद्या भवन,मुंबई में पत्रकारिता का छात्र था.पटना में पत्रकारिता के छात्र गिरिजेश की चीज़ों को तेज़ी से समझने की क्षमता ने मुझे हमेशा प्रभावित किया.इसका सुनहरा भविष्य भारतीय पत्रकारिता में सुनिश्चित है.
"स्मार्ट इंडियन" हमेशा मुझे अमेरिका में किसी भारतीय द्वीप की तरह दिखाई देते रहे.भारतीय मानसिकता की नर्सरी से जैसे कोई पौधा विश्व के श्रेष्ठतम देश के दालान में रोपा गया हो,जिसे हवा पानी धूप छाँव कहीं की भी मिले, फितरत अपनी मौलिक है.बच्चे भी मेरे आलेखों को उनकी टिप्पणी के आधार पर ही आंकने लगे हैं.'अंकल' का कमेन्ट आया है, अर्थात पोस्ट अच्छी है.
इन तीन नामों के उल्लेख का यह अर्थ न निकालें, कि मुझे अपने बाक़ी पढने वालों से कोई सरोकार नहीं है-राहुल,रवीन्द्र रवि,सुमित स्मार्टी,राजेश कुमारी जी,अंकित,विवेक जी,शुक्ल जी,मनोज जी,श्रीवास्तव जी,डॉ.राजेश,सुरेन्द्र सिंह जी,राकेश कुमार जी,ज़ील और पॉपकोर्न तो मेरे मन में हैं ही.

Sunday, September 18, 2011

इतिहास ऐसी अनुमति दे चुका है

यदि आप जूते बनाने या बेचने के व्यवसाय से जुड़े हैं तो सतर्क हो जाइये.एक नई खोज जल्दी ही बाज़ार में दस्तक देने वाली है.हो सकता है कि कुछ साल बाद जीवन से जूतों का कॉन्सेप्ट ही मिट जाये.
आज आपको सुनकर चाहे अटपटा लगे,लेकिन जल्दी ही बाज़ार में ऐसी जींस आने वाली हैं,जो मोहरी के नीचे,पैरों  के पास आपके पाँव की सुरक्षा के लिए शानदार 'इनबिल्ट' प्रावधान देने वाली होगी.वर्तमान जूते पैंट में ही इस तरह सिले हुए होंगे कि बस,पैरों में डालिए और निकल पड़िये सड़क पर.सोल भी इतना शानदार डिजायनर, कि आपकी जींस आपका स्टैंड बन जाएगी.हर डिजायन,हर रंग, हर सुविधा, और बस निकल पड़िये.न कसने का झंझट,न बाँधने की ज़रुरत,न साफ़ करने की कवायद.
जो लोग मंदिरों के बाहर लोगों के जूते संभाल कर रोज़ी कमाते हैं वे भी चौकन्ने हो जाएँ.वे कोई दूसरा रोज़गार देखें.आप यह बिलकुल मत सोचिये कि इस नई खोज को मंदिर के भीतर ले जाने की अनुमति कैसे मिलेगी?
कोई आपसे यह तो नहीं कहेगा कि 'पैंट'बाहर उतार कर आओ?
जी नहीं.डरिये मत,आपको सड़क का कचरा जींस में समेट कर अपनी वार्डरोब में नहीं लाना पड़ेगा.आपके कपड़ों में सिला यह सिंथेटिक बनावट का बॉटम सड़क पर ही हर तरह के कचरे को अलविदा कहता रहेगा.आप कीचड़-मिट्टी से भी निकल कर आये तो आपके वस्त्र गन्दगी से ऐसे बच कर आयेंगे,जैसे पानी की बूँद से कमल के पत्ते.इन पर गंदगी लगना तो दूर,इनकी खुशबू तक कम न होगी.
और ये तो आपको भी याद होगा कि 'खडाऊं' सिंहासन पर रखने की अनुमति तो स्वयं भगवान राम ने भी भरत को दी थी.फिर मंदिर के फर्श पर इन्हें लाने में कैसा परहेज़? अब मंदिरों की सफाई भी तो तरह-तरह की मशीनों से होने लगी है.

Saturday, September 17, 2011

चला रहा है ?

एक आदमी अखबार पढ़ रहा था.अखबार में एक विज्ञापन था-"५ रूपये में भरपेट भोजन".
वह झटपट दिए हुए पते पर पहुँच गया.पता एक होटल का था.होटल के दरवाजे पर एक बोर्ड लटका था-"१० रूपये में भरपेट भोजन".व्यक्ति बोर्ड की अनदेखी कर भीतर घुस गया,भूख जो लगी थी.
बैठते ही मेनू कार्ड आया.उसमे लिखा था-"भरपेट भोजन थाली-२० रूपये".
व्यक्ति झल्लाया.पर भूख से बेहाल था.ऑर्डर दे दिया.
भोजन के बाद जब बिल आया तो वह ४० रूपये का था.लिखा था-भोजन २० रूपये,पानी २० रूपये.
व्यक्ति ने खीज कर ५० का नोट दिया और बाक़ी चिल्लर के लिए इंतजार करने लगा.थोड़ी देर में वेटर लौटा,पर वह चिल्लर नहीं लाया, बल्कि दमदार सैल्यूट कर के खड़ा हो गया,मानो कह रहा हो-टिप नहीं देंगे सर?
व्यक्ति बौखला कर काउंटर की ओर बढ़ा और उसने वहीँ से अख़बार के दफ्तर में फोन किया.चिल्ला कर बोला- आपने अमुक होटल का जो विज्ञापन दिया है...वह इतना ही बोला था कि उधर से विनम्रता से आवाज़ आई-यस सर,सुबह से यह १००० वां कॉल है,हम कहते-कहते थक गए कि विज्ञापन में भूलवश जीरो छपने से रह गया है.व्यक्ति फोन पटकने ही वाला था,कि उधर से आवाज़ आई-सर बधाई हो,आप कॉल करने वाले एक हजारवें ग्राहक हैं, आपके लिए होटल की तरफ से गिफ्ट है.यदि आप पूरे साल यहीं खाना खाएं तो आपको एक रूपये रोज़ की छूट है.
व्यक्ति बुदबुदाया-लगता है इस होटल को कोई "अर्थशास्त्री' चला रहा है.
मैनेजर बोला-सॉरी सर,क्या पूछा,देश को ?

चलते हुए जोगी विपक्ष में,पहुंचे हुए महात्मा सरकार में

बुज़ुर्ग कहा करते थे कि जो चलेगा,वह पहुंचेगा.पर हमारा देश भी  विचित्र है,यहाँ रथ-यात्रा विपक्ष करता है,"पहुंची हुई"सरकार है.यहाँ भगवा वस्त्र तो विपक्ष पहनता है,किन्तु संन्यासी सरकार है.वीतरागी सरकार को किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता.
अब ऐसे में मीडिया भी क्या करे? बिना बात के तो वो भी कुछ नहीं कर सकता.तिल का ताड़ बना दे,राई का पर्वत बना दे,बात का बतंगड़ बना दे. पर बात तो हो? 
प्यारे देश-वासियो,महंगाई कोई 'बात' नहीं है.मंहगाई कहीं नहीं है.वह न चक्षुओं से दर्शित है,न नासिका से सून्घनीय, न कर्णों से श्रवणीय,और न रिजर्व बैंक से कल्पनीय.
धन की कोई कमी नहीं है, जितने असली, उतने ही नकली नोट भी बाज़ार में हैं.सोना-चाँदी मुफ्त में है,कभी भी, कहीं भी,किसी के भी गले से खींचा जा सकता है.खाना-पानी तमाम सरकारी योजनाओं में बिखरा पड़ा है,साल में सौ दिन हाजरी लगाइए,और वर्ष-भर बैठ कर खाइए.कपड़ा तो पद-यात्राओं,जुलूसों,अनशनों, अगवानियों में मुफ्त बँट रहा है.अब वह ज़माना नहीं रहा कि किसी को तन ढकने के कपड़े की कमी पड़े,अब तो दिखाने तक को काले झंडे मुफ्त बँट रहे हैं.फिर महंगाई कहाँ है?
हाँ,पेट्रोल-डीज़ल पर ज़रूर हर पंद्रह-बीस दिन में थोड़े बहुत पैसे बढ़ते हैं.तो सरकार कब कहती है कि घूमो-फिरो.सरकार तो खुद सबको दूर-दराज़ से पकड़-पकड़ कर दिल्ली में ही ला रही है.यहाँ भी तमाम सुविधाएँ- मच्छर-दानी,ओढने-बिछाने की चादर,खाने की थाली,पानी का लोटा, सब सरकारी खर्च पर.
दक्षिण के राजा-रानी हों या उत्तर के अमर,सब पछता रहे हैं कि हमने करोड़ों क्यों कमाए? यहाँ तो सब मुफ्त में है.

Friday, September 16, 2011

क्या टूटा ?

कल रात को मैं एक न्यूज़ चैनल पर समाचार देख रहा था.बड़े-बड़े अक्षरों में एक 'डिस्प्ले' था-यूपीए अध्यक्ष ने अपनी पुत्री के घर डिनर लिया.यह "समाचार" तो अच्छा था,पर इससे भी अच्छा था उस कार्यक्रम का टाइटल जिसके अंतर्गत वह समाचार आ रहा था.
जानते हैं,क्या था टाइटल ? "ब्रेकिंग न्यूज़"
मीडिया से थोड़ा-बहुत जुड़ाव होने के कारण मैं सोच में पड़ गया.क्या हम इतना पीछे रह गए,कि मीडिया के ताज़ा-तरीन जुमले हमें समझ में नहीं आ रहे?या फिर मीडिया ने अपने कोई ऐसे 'एथिक्स' गढ़ लिए कि किसी को समझदार होने की ज़रुरत ही न रहे.
मैंने पूरी मुस्तैदी से कानों को सतर्क करके समाचार फिर सुना.[आजकल यह सुविधा है कि महत्वपूर्ण समाचार तब तक बार-बार आते रहते हैं,जब तक आप उन्हें समझ न लें]लेकिन कहीं से कोई आवाज़ नहीं आई.मैं सोचने लगा कि जब कोई आवाज़ ही नहीं आई,तो कैसे पता चले कि क्या टूटा?जब कुछ टूटा ही नहीं तो कैसी ब्रेकिंग न्यूज़?
काफी देर बाद मुझे समझ में आया,कि यह तो वास्तव में ब्रेकिंग न्यूज़ ही नहीं,बल्कि 'नहले पे दहला'न्यूज़ थी.बारह दिन की सिविल सोसायटी की भूख के जवाब में सत्ता का डिनर !

Monday, September 12, 2011

बरखारानी,ज़रा थम के बरसो

बरसात भी बहुत लापरवाह है.चाहे जहाँ हो जाती है.अब दिल्ली में ही हो गई.यह भी नहीं सोचा,कम से कम ऐसे समय तो हो,जब कोई फैसले लेने वाला तो मौजूद हो.कितनी मुश्किल हो जाती है?
पानी बरसता है,तो सबसे पहले सड़कों को तोड़ता है,गड्ढे ही गड्ढे हो जाते हैं.ऐसे में जनता तो फिर भी किसी तरह कूद-फांद कर निकल लेती है,बेचारी सरकार मुसीबत में फंस जाती है.
अब यदि सरकार इन गड्ढों को भरवा दे,तो इन पर अड़ियल घोड़े रथ दौड़ाने लग जाते हैं.यदि न भरवाए,ऐसे ही छोड़ दे तो कीचड़ हो जाता है.और फिर दोहरी मुसीबत.एक तो बात-बात पर कीचड़ सरकार पर ही उछलने लगता है,दूसरे कीचड़ में ही 'कमल' खिलता है.कमल चाहे हमारा राष्ट्रीय फूल हो,सरकार को यह रास नहीं आता.सरकार इसे 'फ़ूल' ही समझती है.
वैसे सरकार इतनी बेबस भी नहीं है.किसी तालाब में ज्यादा कमल हों,तो सरकार के हाथ में भी कमला है.
लोकपाल चाहे किसी का हो,राज्यपाल तो सरकार का होता है.महिला सशक्तिकरण के दौर में गुलेल चलाना तो सब को आता है.लौह-पुरुषों को अशक्त करना भी तो महिला सशक्तिकरण है.
सचमुच बरसात बहुत लापरवाह है.

Saturday, September 10, 2011

"दी अहंकार एन्टरप्राइजेज़"

ईर्ष्या, अहंकार और होड़ नकारात्मक शब्द हैं,पर यह कभी-कभी सकारात्मक भी सिद्ध होते हैं.
एक बड़े पूंजीपति ने राम का एक मंदिर बनवाया.इस मंदिर में आधुनिक सोच के साथ आरम्भ से ही यह परिपाटी रखी गई कि वहां कोई प्रसाद न चढ़ाया जाये.
एक अन्य उनसे भी बड़े पूंजीपति की धर्मपत्नी उनके निमंत्रण पर यह मंदिर देखने गईं.वे इस बात से अनभिज्ञ थीं,कि यहाँ कोई प्रसाद नहीं चढ़ता है.वे परम्परावश अपने साथ प्रसाद ले गईं.वहां जाकर जब उन्होंने प्रसाद चढ़ाना चाहा,उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली.उनका अहम् इससे आहत हो गया.वे भला ईश्वर के यहाँ खाली हाथ कैसे जातीं?
फिर क्या था,उस मंदिर के आस-पास किसी भी कीमत पर उससे भी बड़ी ज़मीन की तलाश की गई.ज़मीन वहां तो नहीं मिल सकी,किन्तु शहर में अन्यत्र एक शानदार स्थान पर उपलब्ध हो गई.वहां ऐसा भव्य व आलीशान मंदिर बना,कि वह मंदिर आज शहर के तमाम देशी-विदेशी पर्यटकों की पहली पसंद है.
तो अब बताइये,क्या कहेंगे?-राम नमामि-नमामि-नमामि या अहम् ब्रह्मास्मि !

रेखा गोविल को 'इंडिया इंटर-नेशनल फ्रेंडशिप सोसायटी' का "शिक्षा रत्न पुरस्कार"

जयपुर के ज्योति विद्यापीठ महिला विश्व विद्यालय की प्रथम वाइस-चांसलर,देश की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक-शिक्षाविद प्रोफ़ेसर रेखा गोविल को "शिक्षा रत्न"पुरस्कार के लिए जब नामित किया गया,तब तक काफी देर हो चुकी थी.इस पुरस्कार के लिए मंच पर आने से पहले उन्हें दुनिया के मंच से जाना पड़ा.
मदर टेरेसा,पूर्व-उपराष्ट्रपति बी.डी.जत्ती,न्यायविद फातिमा बीवी,जस्टिस पी.एन.भगवती,डॉ.ए.आर.किदवई,लॉर्ड  भिक्खु पारेख,प्रो.सोफुद्दीन सोज़,डॉ.हरि गौतम आदि को प्राप्त सम्मान पाने पर वे कैसा अनुभव करतीं,यह बताने के लिए अब मैं दुनिया भर में फैले उनके हजारों विद्यार्थियों से गुज़ारिश करता हूँ.
इंडिया इंटर-नेशनल फ्रेंडशिप सोसायटी के प्रति आभार जताने का ज़िम्मा अब मुझ पर आ गया है,क्योंकि रेखाजी से मेरा सम्बन्ध था.वे मेरी धर्मपत्नी थीं.आज उनकी पुण्यतिथि पर मैं इस दायित्व को निभा रहा हूँ.

Thursday, September 8, 2011

अब सब ठीक

जब किसी घर से माँ कुछ समय के लिए बाहर जाये तो बच्चों के मज़े आ जाते हैं.खूब हुडदंग मचाओ,तोड़-फोड़ करो,किचन में सब बिखरा कर,कच्चा-पक्का कुछ भी पका लो,दोस्तों को बुलालो,भाई-बहनों में कुट्टी-अब्बा से लेकर मार-पीट तक कर लो,लाईट-पंखा-नल चलता छोड़ दो,टीवी को फुल वोल्यूम पर चिल्लाने दो,अर्थात मज़े ही मज़े.लेकिन माँ के लौटते ही सब ठीक.
तो अब सब ठीक.घर से लेकर देश तक.
महिला सशक्तिकरण पर बोलते हुए टीचर ने कहा-कैसे सिद्ध करोगे कि महिलाएं पुरुषों से ज्यादा ताकतवर होती हैं?
छात्र ने कहा-सैंकड़ों राजाओं के साथ "राजमाताएं"होती हैं, पर आज तक किसी राजा के साथ राजपिता नहीं हो पाया.

सन २०२५ आपको यह ऑप्शन दे देगा

कोई भी कार्यालय,फैक्ट्री,विभाग,विद्यालय,कालेज,बाज़ार,माल,वर्कशॉप,दुकान या केंद्र अपने कर्मचारियों की भर्ती के लिए जब विज्ञापन देना चाहेगा,तो वह केवल एक संख्या के आधार पर विज्ञापन देगा,और कुछ नहीं.उदाहरण के लिए वह कहेगा,कि उसे ११७१९५३ स्तर का कर्मचारी चाहिए.जब आवेदक के रूप में आप  वहां जायेंगे तो आपको वहां वज़न तौलने वाली जैसी, एक पूरी तरह बंद मशीन पर खड़ा होना होगा.यह मशीन तुरंत आपकी शारीरिक,मानसिक व फिटनैस सम्बन्धी क्षमताओं को स्कैन करके आपका एक उपलब्धि-नंबर डिस्प्ले कर देगी.यदि वह नंबर एम्प्लायर के वांछित नंबर से मैच करता है तो आपको वह जॉब मिल जायेगा.कम्प्लीट मैच न होने की स्थिति में निकटतम संख्या वाले अभ्यर्थी का चयन हो जायेगा.मशीन आपकी नियमितता,जॉब की आवश्यकता,पद की अपेक्षा,मनोवैज्ञानिक तैयारी,समय-बद्धता,आर्थिक-अपेक्षा,कार्य-इच्छा,क्षमता,निष्ठां,समर्पण आदि का बारीकी से विश्लेषण करके आपको अंक दे देगी.यह क्षमताएं आपमें पिछले जीवन,अनुभव,शिक्षा,पारिवारिक माहौल,कोचिंग,विशेष-प्रयास आदि से आएँगी.
[उन लोगों,नेताओं,अधिकारियों,दलालों आदि को मंदी का सामना करना पड़ सकता है,जो नौकरियों को रिश्वत,दलाली,भ्रष्टाचार,सिफारिश,भाई-भतीजावाद से ही लेने-देने के आदी हैं.]

Wednesday, September 7, 2011

बम धमाके,निरीह लोगों का खून,कसूरवारों को जेड प्लस सुरक्षा,खुले आसमान तले जान हथेली पर लिए अवाम-ये कहाँ आ गए हम?

आइये दो मिनट का मौन रखलें.वक्त ने हमें इसी लायक छोड़ा है.हमारे सामने मजबूरियां ही मजबूरियां हैं.हम कर कुछ नहीं सकते.हमें वरदान या शाप मिला हुआ है कि हम केवल पांच बरस में एक बार ही हाथ-पाँव हिलाएंगे ,वह भी तब, जब कुर्सियों पे बैठने-बिठाने का मौसम आये.

बुद्धिजीवियों को वापरने की कला

बुद्धिजीवी किसी भी समाज की धरोहर होते हैं.किन्तु यदि उन पर ज्यादा ध्यान दिया जाय,तो वे अजीब बर्ताव करने लगते हैं.बेहतर यही है कि उन्हें सामान्य मान कर ही उनसे व्यवहार किया जाये,तभी वे समाजोपयोगी सिद्ध होते हैं.
एक राजा को महल के शयन-कक्ष में रात में कुछ मच्छरों ने परेशान किया.राजा सो न सका.अगली सुबह दरबार में उसने दरबारियों से पूछा-वो कौन सी चीज़ है जो सोने नहीं देती?
सब दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगे.
एक ने कहा- बीमारी.
दूसरा बोला- लालच.
तीसरे ने कहा- क्रोध.
चौथा बोला- सत्ता.
पांचवे ने कहा- दायित्व.
छठे की आवाज़ आई- भूख.
राजा संतुष्ट न हुआ.अंत में उसने यही सवाल महारानी के सामने रख दिया.
महारानी ने तपाक से कहा- "आप"
दरबार में सन्नाटा छा गया. राजा भी स्तब्ध रह गया.अपने क्रोध पर नियंत्रण करके राजा ने कहा- आप अपनी बात को सिद्ध कीजिये, वरना हमारे इस अपमान की सज़ा मिलेगी.
महारानी ने कहा- शयन-कक्ष में चंद मच्छर आ गए थे, वे आराम से आपके चेहरे पर सो रहे थे.पर आप उन्हें बार-बार उड़ा कर सोने नहीं दे रहे थे.
राजा निरुत्तर हो गया और दरबारी चकित.

Tuesday, September 6, 2011

सॉरी रहीम,कबीर,तुलसी,सॉरी अकबर,बाबर,सॉरी एसेम्बली,पार्लियामेंट,राज्यपाल जी

-अच्छा शादी है? हम तो नहीं आ पाएंगे,बेटे की कोचिंग है न.
-घर में मेहमान आये हैं तो क्या,इसे मत डिस्टर्ब करो,इसकी कल परीक्षा है.
-यह खेलता रहता है,घर में रह कर नहीं पढ़ पायेगा,इसे होस्टल में डाल दो.
-लेडीज़ संगीत में मैं कैसे आ सकती हूँ,बेटी को होमवर्क कराने की ज़िम्मेदारी तो मेरी ही है.
यह सब बातें सुन कर ऐसा लगता है कि एक ओर जीवन है,दूसरी ओर शिक्षा.अर्थात यदि शिक्षा से जुड़ना है,तो जीवन से हटना होगा.जीवन की उमंगों में रचना-बसना है तो शिक्षा को तिलांजलि देनी होगी."लंगोट धारण करके बालों को कटवा कर पच्चीस वर्ष तक पुस्तकों,ब्रह्मचर्य और गुरु के सान्निध्य में रहो,फिर जीवन में लौटना"यह पुरातन विचार तो अब अप्रासंगिक हो ही गया है.
जो लोग समझते हैं कि शिक्षा अब पटरी से उतर रही है,उन्हें समझना होगा कि शिक्षा अब जीवन से जुड़ना चाहती  है.पढ़ते-पढ़ते कमा लो,कमाते-कमाते पढ़ लो,दोस्त की बर्थडे पार्टी में थे,या क्लास में,ज्यादा फर्क नहीं पड़ता.क्योंकि कक्षा में जो कुछ सिखाया जा रहा है,वह मित्रों के नोट्स में,टीवी पर,इंटरनेट पर या जीवन में है.कोई गुनाह नहीं किया,जो क्लास अटेंड नहीं की.किसी के अंक ज्यादा आये,किसी के कम,तो क्या?जिनके कम आये,उन्हें भी भूख तो लगेगी.उन्हें भी तन ढकना है.उन्हें भी छत चाहिए.शिक्षा कोई मछली फंसाने का कांटा नहीं है जिसमे आप जीवन की सम्पन्नता और सुविधा को फंसा कर अपने टोकरे में डाल लें.
जो शिक्षाविद ऐसा सोचते हैं कि शिक्षा ही जीवन को हड़प ले,बाक़ी सब गड्ढे में जाये,वे ज़रा और सोचें,यदि उन्हें प्रासंगिक बने रहना है.
ज्यादा ज़मीन वाले सरकार के निशाने पर आयें,ज्यादा पैसा बटोरने वाले ज्यादा टैक्स भरें,ज्यादा स्वास्थ्य कमाने वाले बाद में स्लिम होने के नुस्खे तलाशें,तो यह सब ज्यादा शिक्षा बटोरने वालों पर भी क्यों न लागू हो?यदि शिक्षा पद,पैसा,ख़ुशी और सम्पन्नता बटोरने वाला यन्त्र है तो इसे भी छीनने की कोशिश क्यों न हो?क्यों न इस पर भी डाके और छापे पड़ें.शिक्षा यदि जीने की निपट-चतुरता है,तो इसकी भी अधिकता को क्यों न "ब्लैक-लिस्ट"किया जाये?

Monday, September 5, 2011

राजस्थान ने बरसों बाद देखे सुहाने दिन

पिछले कई दिनों से राजस्थान के सभी हिस्सों में जम कर बारिश हो रही है.बाड़मेर और जैसलमेर जैसे रेगिस्तानी इलाके न केवल लगातार बारिश देख रहे हैं,बल्कि कहीं-कहीं तो नदी-नालों के उफान के समाचार मिल रहे हैं.खेतों में फसलों के साथ-साथ ताज़ा सब्जियां भी खूब दिखाई दे रही हैं.इस मौसम में तो खेतों में कुछ भी उग सकता है,प्रेम कहानियां भी.
खेत में ही उगी टमाटर और गोभी की प्रेम कहानी पिछले दिनों आप पढ़ भी चुके हैं,जिन्हें अपने सच्चे प्रेम के चलते एक बार बिछड़ जाने के बाद भी एक-दूसरे का साथ दोबारा मिला और अग्नि की साक्षी में दोनों को एक ही सब्जी में पकने का अवसर मिला.इस तरह बनी सहज प्रेम की महज कहानी.

Sunday, September 4, 2011

ईश्वर कुछ न कर सका

बात तब की है जब ईश्वर स्वर्ग में बैठा दुनिया बना रहा था.दुनिया बन जाने के बाद जब उसे रंगने की बारी आई,अचानक ईश्वर ने कुछ कोलाहल सुना.आवाज़ रंगों के डब्बे से आ रही थी.सब रंग दुनिया में जाने को उतावले थे.मुस्करा कर ईश्वर ने डब्बा खोला,और तूलिका उठाई.
सबसे शांत दिखने वाले नीले रंग को सारा आकाश मिला.पीला रंग मिट्टी के हिस्से में आया.आँखों को लुभाने वाले हरे रंग ने पेड़-पौधों का राज पाया.
जब इंसान रंगने की बारी आई,अच्छी-खासी ज़द्दो-ज़हद हुई.ईश्वर को गुलाबी,गेहुआं,सांवला,भूरा,गंदुमी,गोरा,काला,बादामी सभी रंगों की सुननी पड़ी.फिर भी "रंग-भेद" से सब लड़ें नहीं,यह सोच कर सबमे लाल खून भरा गया.
सब रंग आपस में मिल कर रहें,यह सन्देश देने के लिए आकाश में इन्द्र-धनुष टांगा गया.इंसान की ख़ुशी के लिए सैंकड़ों रंग फूलों को मिले.
अच्छा अब बताओ,इंसान के दुःख में कौन सा रंग साथ देगा? ईश्वर ने पूछा.
सब चुप.कोई आगे न आया.सबको जैसे सांप सूंघ गया.
मजबूरन ईश्वर को "आंसू"बिना रंग के बनाने पड़े.रंगहीन.

दो तितलियाँ और चुप रहने वाला लड़का

दो तितलियाँ उड़ते-उड़ते एक खेत में पहुँच गईं.वहां हल चला रहे एक लड़के से उन्होंने पूछा-यहाँ क्या उगाओगे?
अपने लिए चावल,लड़का बोला.तितलियाँ उपेक्षा से बोलीं-"सेल्फिश"और उड़ गईं.
कुछ दिन बाद तितलियों को लड़के की याद आई.वे खेत में पहुँचीं.चावल उग चुके थे.कुछ कबूतर दाना खा रहे थे.बकरियां फेंके गए पौधे चर रही थीं.लड़का चावल मंडी में ले चला.चावल बाज़ार से एक सुन्दर पैक में एक घर में आते देख तितलियाँ उस घर की खिड़की पर मंडराने लगीं.उन्हें बड़ा मज़ा आया,जब दादीमाँ चावल बीनने बैठीं.वे कंकड़ के साथ कभी-कभी दाना भी फेंक देतीं,और एक चिड़िया फुदक-फुदक कर उसे उठा ले जाती.तितलियाँ ख़ुशी से ताली बजातीं.
चावल बहुत स्वाद थे,पर घर के लोगों ने थोड़ी जूठन भी छोड़ी.उसे गली के कुत्ते ने खाया.पिछवाड़े की नाली से जब बर्तन धुलने का पानी आया,कई कीड़े दौड़े.तितलियों ने भी सबकी नज़र बचा कर थोड़ा चख लिया.
तितलियों को लड़के की याद आने लगी.वे खेत पर पहुँचीं तो देखा,लड़का एक पेड़ के नीचे बैठा चने खा रहा था.तितलियाँ शरमाते हुए उसके समीप पहुँचीं,और बोलीं-"सॉरी भैया".लड़का कुछ न बोला,शायद वह सोच रहा था कि शाम को हाट से बहन के लिए तितलियों के रंग सी चुनरी लेकर घर जायेगा.

Saturday, September 3, 2011

सहज प्रेम की महज़ कहानी

उन दोनों का जन्म एक ही जगह पर हुआ था.उम्र भी लगभग बराबर ही थी.बचपन से ही रोज़ एक-दूसरे को देखते थे.व्यवधान केवल इतना था कि दोनों की जाति अलग-अलग थी,लेकिन इससे क्या?उनमे एक ही जगह जन्मने का अपनापन तो था.
एक-दूसरे के करीब आना संभव न था,विवशता थी,अपने घर से कहीं जाने की.फिर भी कभी धूप तो कभी हवा,एक-दूसरे के सन्देश पहुंचा ही देते थे.जब कभी वह उसे देखती,तो वह शरमा कर लाल हो जाता.जब वह उसे देखता,वह भी इस तरह झूमती,कि उसका गोरापन और भी निखर आता.दिन यूँही बीत रहे थे.
आखिर वह दिन भी आया जब दोनों को हमेशा-हमेशा के लिए एक-दूसरे से अलग होना था.दोनों के ही दिल में एक हूक सी उठी.न जाने कल क्या हो?कौन कहाँ जाये?
इस तरह उन्हें बिछड़ना पड़ा.वे अलग-अलग दिशा में ओझल हो गए.उन्हें तिनकों के नशेमन में जगह मिली.
कहते हैं कि प्यार सच्चा हो तो कायनात प्रेमियों को किसी तरह मिलाने में जुट ही जाती है.ऐसा ही हुआ.वे फिर मिले.एक दिन उनका विवाह हुआ.हल्दी-तेल चढ़ा.चुटकी भर लाली मांग में भरी गई.वे अग्नि की साक्षी में एक होकर रहे.जीवन ने उन्हें एक मंजिल  पर मिलाया.क्या आप जानते हैं ये किसकी कहानी है?

Friday, September 2, 2011

फ़िल्मी द्रश्य [भाग २]-हर फिल्म को खत्म तो होना ही होता है

हर फिल्म 'द एंड' की ओर ही चलती है,लिहाज़ा वे लड़का-लड़की भी धूल उड़ाते हुए चले गए.लेकिन यह धूल एक छोटा सा सवाल ज़रूर छोड़ गई.आखिर इस दो पल के ठहराव का कारण क्या रहा होगा? आइये सोचें-
१.लड़की बद-मिजाज़ थी.
२.लड़के में शिष्टाचार की कमी थी.
३.नगर-नियोजक में कल्पना-शीलता का अभाव था.
४.कारों में तकनीकी कमी थी.
५.चरवाहे को बे-वजह दखलंदाजी की आदत थी.
६.छोटा शहर होने से सबके पास पर्याप्त समय था.
७.लड़का-लड़की आपस में आकर्षित हो गए थे.
८.दोनों को ही ड्राइविंग कम आती थी.
आप क्या कहते हैं?

Thursday, September 1, 2011

फ़िल्मी लगता है न यह द्रश्य ?

एक नगर के बाहरी इलाके में हरियाली से भरी एक सुनसान सड़क पर एक युवक तेज़ी से कार चलाता हुआ जा रहा था .संयोग से उसी सड़क पर सामने से एक युवती भी तेज़ी से कार चलाती हुई आ रही थी.सड़क संकरी थी,बिना गाड़ी को नीचे उतारे दो गाड़ियों का निकलना संभव न था.दोनों ने ब्रेक लगा लिए,कुछ पल ठहरे,फिर एक दूसरे को हॉर्न देने लगे.
दोनों में से कोई झुकने को तैयार न था.लड़का कह रहा था कि उसकी गाड़ी के टायर कमज़ोर हैं,नीचे उतारने से कट जायेंगे.लड़की कह रही थी कि यदि सामने कोई ट्रक या जानवर होता,तब भी तो वह नीचे उतरता?
बहस को कौतुक से देख रहा एक चरवाहा उधर आ निकला.वह पास आकर लड़के से बोला-सर,मैं सड़क के किनारे मिट्टी डाल देता हूँ,आपके टायर कटेंगे नहीं.लड़के के मना करने पर वह लड़की से मुखातिब हुआ-आप निकाल लो,गाड़ी फंसेगी नहीं,मैं धक्का लगा दूंगा.लड़की ने हिकारत से मुंह फेर लिया.

क्या सोवियत रूस की याद किसी को आती है

याद तो ऐसी चीज़ है जो किसी को भी,किसी की भी,कभी भी आ सकती है.आर्मेनिया,अज़रबैजान,बेलारूस,जॉर्जिया,कज्ज़ख्स्तान ,किर्गिस्तान,लातविया,लिथुअनिया,मोल्दोवा,ताजिकिस्तान,तुर्कमेनिस्तान,उज्बेकिस्तान,क्रोएशिया और खुद रशिया के लोगों को तो यूएसएसआर याद आता ही होगा.
क्या भारत,पाकिस्तान और बंगलादेश एक दूसरे को भूल पाए हैं.

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...