किसी समय प्रधानमंत्री जब विदेश यात्रा से लौटते थे तो एयरपोर्ट पर उनकी अगवानी के लिए सारा मंत्री-मंडल जाता था. सब आल्हादित होकर अपने नेता की मिजाज़-पुरसी करते थे, और मन ही मन सोचते थे कि देखें अब हमें क्या मिलेगा?
अब तो न्यूज़ में भी विज्ञापन. कोई बात आप बिना विज्ञापन के सुन ही नहीं सकते. नींद में भी यदि आप समाचार सुनें तो बीच-बीच में ब्रेक के लिए तैयार रहिये. अब जब इतने दिनों बाद 'माननीय' वापस देश लौटे, तो लगा था कि सारे छोटे-भैया मिलने आयेंगे, और भरत-मिलाप जैसा द्रश्य उपस्थित हो जायेगा. लेकिन विज्ञापनों ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा समाचार और विज्ञापन आपस में मिल गए . "ब्रेकिंग-न्यूज़" में बस इतना आया- "अंकल-अंकल आये, हमारे लिए क्या लाये? राजू के लिए इस्तीफ़ा, पप्पू के लिए इन्क्वायरी,सोनू के लिए बर्खास्तगी , चुन्नू के लिए सम्मन, मुन्नू के लिए तिहाड़ का टिकट.
इससे पहले कि यह पता चल पाता कि यह समाचार है या विज्ञापन, झटपट कार्यक्रम 'अतीत के झरोखे से' शुरू हो गया. उदघोषिका हमारे उस गौरवशाली अतीत पर प्रकाश डालने लगी, जब कभी हमारे नेताओं को विदेश जाने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती थी, केवल एक जेट विमान जाता था और उनके लिए चप्पल खरीद लाता था,या फिर उच्चाधिकार-प्राप्त प्रतिनिधि-मंडल विलायत जाकर कपड़ों पर इस्त्री करवा लाता था.तब यह गर्व करने की बात समझी जाती थी. अब तो ईर्ष्या की बात हो गई है.सपने भी व्यावसायिक हो गए तो कैसे चलेगा?