Thursday, February 28, 2013

न आणविक, न जैविक, सांस्कृतिक संक्रमण से है खतरा

  जब कोई देश आणविक परीक्षण करता है तो इसकी सफलता उस देश का हौसला बेतहाशा बढ़ा देती है। इसी तरह ऐसे परीक्षणों की विफलता भी मनोबल तोड़ने वाली होती है। यह ठीक ऐसा ही है कि  किसी पहलवान ने अखाड़े में आने से पहले ख़म ठोक करअपनी शक्ति का आभास करा दिया।  हमारे इतिहास की यह विश्वसनीय परम्परा है कि गरजने वाले बरसते नहीं।
यही किस्सा जैविक ताकत का भी है।  इस से होने वाला विध्वंस हमें होता दिखाई देता है, और हम समय रहते सचेत हो जाते हैं। इससे नुक्सान बड़ा नहीं होता।
हाँ, सांस्कृतिक अवमूल्यन की बात अलग है।  यहाँ हमारा परचम फहराता रहता है, हम बेफिक्र रहते हैं, और जड़ों में दीमक लग जाती है. एक दिन भरभरा कर सब गिर जाता है,और हमें कानों- कान खबर नहीं होती। क्योंकि जो मुट्ठी भर बुद्धिजीवी या चिन्तक हमें आगाह कर भी रहे होते हैं, उनकी आवाज़ नक्कार-खाने में तूती  की तरह ही होती है, जिन्हें हम अनसुना करके चल रहे होते हैं।       

Sunday, February 24, 2013

सूरज बड़ा क्यों है

कल कुछ देर एक ऐसे समारोह में बैठने का अवसर मिला जहाँ कई बड़े-बड़े विद्वान, लेखक, साहित्यकार और चिन्तक मौजूद थे. वहां किसी सन्दर्भ में यह सवाल उठा कि  जयपुर में आयोजित होने वाला लिटरेचर फेस्टिवल समाज के लिए कितना उपयोगी है? प्रश्न उठाने वाले विचारकों का कहना था कि इस फेस्टिवल को क्योंकि कई बड़ी-बड़ी मल्टी नेशनल कम्पनियां प्रायोजित करती हैं, अतः यह स्थानीय संस्कृति के अनुकूल नहीं होता.
वहीँ कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे राज्य के मुख्यमंत्री ने कहा कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल दुनिया भर में अत्यंत लोकप्रिय होता जा रहा है, और इसे पसंद करने वालों की बहुत बड़ी संख्या है, तो सोचिये, कि  आपको ऐसा क्यों लगता है.
यदि कोई बड़ी संस्था किसी आयोजन को सहायता देती है तो इससे आयोजन की श्रेष्ठता या व्यर्थता का कितना सम्बन्ध है? आप भी सोचिये.   

Saturday, February 23, 2013

आठ सौ पोस्ट पूरी कर देने की बेचैनी

मुझे किसी ऐसे आलोचक का इंतज़ार है जो मुझे साफ़ बताये, कि  ८ ० ० कदम चल कर अब इस यात्रा को रोक दिया जाए, या फिर ...कुछ दूर और !

गोश्त के बुलबुले

धरती पर आदमी बहुत समय से  है।  न जाने कब तक रहेगा। किसी को आपत्ति नहीं है, अनंत-काल तक रहे।
लेकिन कम से कम इस तरह तो रहे कि  उसके होने के अक्स मृत-आत्माओं की आँख की पुतलियों में तो न बनें। पर बन रहे हैं, कुछ लोग इसी तरह जीना पसंद करते हैं।
कुछ लोग भटक जाते हैं। वे जीवन की ज़मीन पर अपने दस्तखत करने के लिए दूसरों के लहू का इस्तेमाल  करते हैं। वह अपना सोच-राग गाने के लिए निर्दोष चमड़ी के ढोल मढ़ते हैं। वे दूसरों के तन की राख पर अपना बेहूदा तांडव करते हैं। वे अपने पैदा करने वालों और पालने वालों के लिए तामसी कलंक रचते हैं।
वे दुनिया के इतिहास में इस तरह याद किये जायेंगे, कि  हाँ, जीवन की बहती नदी में कुछ गोश्त के बुलबुले दिखे थे कभी।
हैदराबाद के ज़ख्म भरें, ऐसी शुभकामनाएं।

Friday, February 22, 2013

अर्धज्ञानेश्वर

अर्ध ज्ञानेश्वर माने नीम-हक़ीम।जिसे पता तो हो, पर आधा। हम ऐसे ही हैं।
हमें पता है कि  विदेशों में पैसा कैसे रख कर आते हैं, पर यह नहीं पता कि  वहां से वापस कैसे लाते हैं।
हमें यह तो पता चल जाता है कि  हमें विस्फोट का खतरा है, पर यह नहीं पता कि  इस से कैसे बचें।
हमें यह तो पता है कि  कीमतें कैसे बढायें, पर यह नहीं पता कि  महंगाई घटाएं कैसे।
हमें यह तो पता है कि  किसी को कुर्सी पर कैसे बैठाएं, पर यह नहीं पता कि  उतारें कैसे।
पर कहीं-कहीं हम समझदार भी हैं। हम जानते हैं कि  लोगों की याददाश्त बहुत छोटी होती है, वे जल्दी ही सब भूल जाते हैं। और फिर हम नई भूल करने के लिए आज़ाद हो जाते हैं।  

Thursday, February 21, 2013

विध्वंस होने पर सम्पादकीय लिखने का चलन

हैदराबाद में कई निर्दोष मारे गए या लहूलुहान हो गये। जो मरे, वे नहीं जानते थे कि उनका जीवन क्यों समाप्त किया जा रहा है।जो घायल हो गए, उनको यह अंदेशा नहीं था कि  आदमियों की बस्ती में भी शेर, भेड़िये या लकड़बग्घों  की तरह फैसले लिए जा सकते हैं।
जब किसी को कोई नया देश या प्रांत मिल जायेगा, तब कहीं से कोई फ़रिश्ता आकर उन मृत-आत्माओं से यह नहीं कहेगा, कि  चलो, हमारा काम हो गया,अब जी उठो।
फिर भी ऐसा नहीं है कि  हम कुछ कर ही न सकें, रस्ते तो कई हैं,हम सन्देश दें, सम्पादकीय लिखें, खेद प्रकट करें, आरोप-प्रत्यारोप लगाएं, उन बच्चों और विधवाओं से मिल आयें, जो अनाथ और बेसहारा हो गए। और यदि आस-पास चुनाव हो रहे हों, तो चंद मुट्ठी अशर्फियाँ ...क्षमा कीजिये, नोट बाँट आयें।  

हे ईश्वर, हमें शक्ति दो ताकि हम आलोचना करने से बच सकें

पिछले दिनों मैं अपने एक मित्र के घर बैठा था कि टीवी के कार्यक्रमों की चर्चा चल पड़ी। "लोग इन कार्यक्रमों को गंभीरता से नहीं लेते, इसलिए इनका स्तर भी गिरता जा रहा है", ऐसा कहने वाले एक सज्जन बता रहे थे कि  कुछ समय पहले तक वे एक चैनल बड़े शौक से देखते थे, लेकिन अब उन्होंने उसे देखना छोड़ दिया है। कारण  पूछने पर वे बोले- "वह चैनल ज़्यादातर एक ही हीरोइन की फ़िल्में और गाने दिखाता रहता है,जबकि उनमें कई तो ऐसी हैं जो बिलकुल चली भी नहीं थीं।"
एक अन्य मित्र बोले- "अरे भाई, वे तो फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष हैं।"
एक अन्य मित्र बोले- "नहीं-नहीं, वह तो पहले भी ऐसे ही एक दूसरी हीरोइन की फिल्मों पर मेहरबान था, हमेशा उन्हीं की फ़िल्में और गाने दिखाता रहता था।" ऐसा कह कर उन्होंने उस हीरोइन का नाम भी लिया। 
मित्र  धीरे से बोले-"हाँ, तब वो सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष थीं।"
[आशा पारेख और शर्मीला टैगोर से क्षमा याचना सहित]

Tuesday, February 19, 2013

मन्त्रों की भूमिका

मन्त्रों में शक्ति है। लेकिन इस शक्ति का स्वभाव कैसा है? क्या यह मंत्र जहाँ होते हैं, वहां उपस्थित सभी लोगों पर असर करने लगते हैं? या फिर इनका कोई विधान है? यह जिनके द्वारा उच्चारित होते हैं, उन्हीं को फल देते हैं, या फिर जो उन्हें सुन ले, उसी को फलने लगते हैं?
यह सब जिज्ञासा इसलिए उपस्थित हो रही है, क्योंकि लगभग सभी जगह संस्कृत शिक्षा का प्रचलन कम हो रहा है,और हमारे ज़्यादातर मंत्र  "देवभाषा" संस्कृत में ही हैं। वैसे भी, लम्बे समय तक हमारी समस्या यह थी कि  अधिकांश लोगों को अक्षरज्ञान नहीं था। ऐसे में जन्मोत्सव, यज्ञोपवीत, विवाह, मृत्यु आदि पर पढ़े गए मंत्र, स्वयं हितग्राही द्वारा न पढ़ कर, किसी अन्य विद्वान द्वारा पढ़े जाते रहे। कई बार कहा जाता है कि  यदि आप किसी पंडित द्वारा मंत्रोच्चार करवा कर उसे यज्ञ का खर्च देदें तो आपको उसका पुण्य-प्रताप मिल जाता है। ऐसे में यह जिज्ञासा होना भी स्वाभाविक है, कि  इन मन्त्रों की शक्ति इनके बोलने-सुनने में छिपी है, या इनसे सम्बंधित खर्च में?

ये संकल्प नववर्ष की पूर्व संध्या पर लिया था

तीन मार्च की शाम पांच लोगों को बुलाया है मैंने। अभी मुझे ये तो नहीं पता कि  उनमें से कितने लोग आयेंगे, लेकिन जितने भी आयेंगे, हम शाम का खाना साथ-साथ खाएंगे। मैं ये जानता हूँ कि  उनमें से दो कई साल पहले के रिटायर्ड हैं और कहीं आते-जाते नहीं। उनके न आने जाने का कारण केवल यही है कि  वे अकेले आ-जा नहीं सकते, और कोई उनके साथ आने-जाने वाला नहीं है।
दो युवक हैं, वे आ जायेंगे और उन वरिष्ठ मेहमानों की मेजबानी में मेरी मदद करेंगे, यद्यपि मैं उन्हें जानता नहीं। पांचवां कौन है, यह बताना ज़रा मुश्किल है, क्योंकि उसे केवल निमंत्रण भेजा गया है। न तो उसे निमंत्रण मिल जाने की सूचना मिली है और न  ही उसका कोई जवाब। पर निमंत्रण इतने नाटकीय तरीके से भेजा गया है कि  उसके आने की सम्भावना शत-प्रतिशत है।
भानमती का ये कुनबा कैसे जुड़ेगा और जुड़ गया तो क्या करेगा, ये आपको चार मार्च को ही पता चल पायेगा।  

Monday, February 18, 2013

श्रद्धा और जिजीविषा मिल कर रहें तो चमत्कार है

महाकुम्भ के पवित्र स्नान में शरीक होने वालों की संख्या करोड़ों में रही। दुनिया के दो तिहाई से ज्यादा देशों की जनसंख्या भी इतनी नहीं है, जितने लोग वहां संगम में नहा कर चले गए।
मेरे एक मित्र ने भी आनन-फानन में वहां जाने का कार्यक्रम बना लिया। लौट कर उन्होंने मुझे बताया कि  जब उन्होंने गंगाजल को एक बोतल में भर कर देखा तो वह शुद्ध नहीं था। नतीजा यह हुआ कि  उनके परिवार की कुछ महिलायें तो इसी कारण वहां स्नान के लिए भी तैयार नहीं हुईं।
समय-समय पर हमारे कुछ फिल्मकारों ने भी इस बात को कहने की कोशिश तरह-तरह से की है।
इसपर और कोई प्रतिक्रिया देने से पहले हम कुछ और बातों पर भी सोच लें-
1. जो गंगाजल अपने साथ में देश-विदेश के सुदूर स्थानों पर ले जाया जाता है, उसे पानी के उद्गम-स्थल से भरा जाना चाहिए।
2.वहां जाने वालों तथा वहां की व्यवस्था देखने वालों को भरसक इस बात का प्रयास करना चाहिए कि वहां  स्वच्छता रखी जा सके।
3. वहां पहुँचने की हमारी जिजीविषा तभी सार्थक है जब हम सम्पूर्ण उपक्रम के लिए पर्याप्त श्रद्धा भी रखें।जैसे जब एक डॉक्टर चिकित्सालय में जाता है तो उसे वहां कई घृणास्पद और उबकाई आने वाले दृश्य दिखाई दे सकते हैं, लेकिन जब वह यह सोचेगा कि  वह वहां किस पवित्र-पावन प्रयोजन से आया है, तो शायद वह वहां मन लगा कर रह सके।  

Saturday, February 16, 2013

आग,पहिये,बिजली,भाषा या पैसे का आविष्कार ऐसे ही हुआ होगा

मुझे लगता है कि  दुनिया के कुछ 'सब कुछ बदल देने वाले' आविष्कार जब हुए होंगे तो कितना मज़ा आया होगा! एक दिन बैठे-बैठे इंसान को लगा होगा कि  अब वह तेज़ गति से चल सकता है। ऐसे ही एक दिन उसने सुना होगा कि  अब वह अँधेरे में भी देख सकता है। फिर उसने जाना कि  वह जो कुछ सोच रहा है, वह दूसरों को भी बता सकता है। मज़ा आ गया होगा जब उसे पता लगा होगा कि  जो कुछ उसके पास नहीं है, वह उसे भी हासिल कर सकता है। उसे अद्भुत लगा होगा वह नज़ारा जब उसने पाया होगा कि  वह जो कुछ निगल रहा है, वह और भी स्वादिष्ट हो सकता है।
आज की सुबह भी कुछ-कुछ ऐसी ही थी। मैं सुबह की चाय पीते हुए अखबार पढ़ रहा था। अखबार ने बड़ी मेहनत से एक कवरस्टोरी तैयार की थी। वह आवरण-कथा ऐसी ही थी, जैसे अखबार ने कुछ नया ढूंढ लिया हो। अखबार ने कुछ ऐसे नामी-गिरामी लोगों की तस्वीर और बयान भी छापे थे, जो इस नए आविष्कार पर सहमति की मोहर लगाने को तैयार थे।
अखबार ने लिखा-"रिश्वत और घूस का चलन अब समाप्त नहीं हो सकता, अब हमें इसके साथ ही जीने की आदत डालनी होगी।"
न जाने क्यों, मुझे लग रहा है कि  कोई नया आविष्कार इस तरह तो नहीं होता होगा।    

सितारों की दुनियादारी

गुज़रे ज़माने के कई उदाहरण आपको ऐसे मिलेंगे कि  कोई फ़िल्मी सितारा पहले बुलंदियों पर था, फिर उसने गर्दिश के दिन देखे, और वह बर्बाद हो गया। महत्त्वपूर्ण  बात यह थी कि लोग उसकी कला को सराहते भी जाते थे, पर उसे नेस्तनाबूद होने से रोक भी नहीं पाते थे। होता यह था, कि  जिस वक्त वह कलाकार या सफल सितारा होता था, उस समय वह और कुछ नहीं होता था। अतः जैसे ही उसकी कला चुकी, या उसका नसीब सिमटा,वह बर्बादी के कगार पर आ जाता था।
अब ऐसा नहीं होता। अब 'फिल्म' उसका कैरियर होता है। उसके रिटायरमेंट  बेनिफिट्स होते हैं, और जब वह फिल्मों से निवृत्त होता है, या असफल होता है, तो उसके पास बीसियों  विकल्प होते हैं। इसलिए वह बुरे दिन नहीं देखता।
लेकिन गुणीजन कहते हैं कि  वह कलाकार नहीं, व्यवसाई होता है। मतलब यह, कि  सितारों की दुनियादारी दुनिया को रास नहीं आती। "सितारा तो वही है, जो चमके या टूटे", ये क्या, कि  पहले चमके, फिर चुपचाप  बैठ गए।    

रशिया में उल्कापिंड और राजस्थान में ओले

राजस्थान में उस समय नीबू के आकार के ओले खेतों में गिर रहे थे जब रशिया में आसमान से आग बरसाते हुए उल्कापिण्ड  गिर रहे थे। यह दोनों ही क्रियाएं परस्पर विरोधाभासी इसलिए हैं क्योंकि आम तौर पर रशिया को बर्फ की तरह ठंडा और राजस्थान को पानी विहीन तपता प्रदेश माना जाता है।
ये घटनाएं प्रकृति, माहौल और समय का क्रोध है, जो मौजूदा दुनिया पर झल्ला कर टूट रहा है। सब जैसे एक दूसरे की बात न मानने और अपनी मनमानी करने पर आमादा हैं। सारी दुनिया एक सी है, यह राग अब निसर्ग से भी सुनाई दे रहा है।
इसका एक अच्छा पक्ष भी है। सब देशों के लोगों के रूप-रंग इसीलिए अलग-अलग होते हैं, क्योंकि वहां की जलवायु अलग-अलग होती है। जब यह निजता छिन्न-भिन्न होने लगेगी तो शायद एकदिन हम सब भी एक से रंग-रूप के होने लगें। यदि ऐसा दिन आता है तो वह निश्चय ही बेहतर होगा।

Friday, February 15, 2013

ये मैंने ही उसे सिखाया था

कभी मैं उसे होमवर्क दिया करता था। अब उसने ऐसा ही कर दिया। मुझे होमवर्क दे दिया।
मेरे एक छात्र ने अपनी किसी शोध के चलते मुझे एक काम दिया है। वह चाहता है कि  मैं उसे पिछले सौ सालों की 25 सर्वश्रेष्ठ हिंदी की लेखिकाओं के नाम बताऊँ। इतना ही नहीं, बल्कि उसका आग्रह है कि  मैं उन्हें अपनी पसंद का श्रेष्ठता-क्रम भी दूं। काम कठिन है, लेकिन मैं उससे मना करने से अच्छा यह समझता हूँ कि  आपकी मदद से ऐसी कोशिश करके देखूं। तो पहले बिना किसी क्रम के मैं अपनी याददाश्त से कुछ नाम लेता हूँ। श्रेष्ठता-क्रम बाद में देखेंगे। ये नाम हैं-
महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, चन्द्रकिरण सोनरेक्सा, उषा देवी मित्र, अमृता प्रीतम, कृष्णा सोबती, शिवानी, आशापूर्णा देवी, उषा प्रियम्वदा, प्रभा खेतान, मन्नू भंडारी, शशिप्रभा शास्त्री, महाश्वेता देवी, कृष्णा अग्निहोत्री, सूर्यबाला, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल,ममता कालिया, मैत्रेयी पुष्पा, मेहरुन्निसा परवेज़, मालती जोशी, राजी सेठ, ऋता शुक्ल, चंद्रकांता, मृणाल पाण्डेय।
[क्रम कुछ दिन बाद, आपकी प्रतिक्रया के आधार पर ] 
नोट-मुझे इस सूची में नासिरा शर्मा, रमणिका गुप्ता, मणिका मोहिनी और शुभदा पाण्डे को भी शामिल करने का सुझाव मिला है।

Thursday, February 14, 2013

इस्ताम्बूल की शास्त्रीयता तो जग ज़ाहिर है

टर्की और जापान दोनों ही प्रतिष्ठित और संपन्न देश हैं। किसी भी काम में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। समर्थ भी हैं। वैसे सच यही है कि  सामर्थ्य कार्य-दृष्टि के साथ ही आता है। सम्पन्नता भी।
2020 के ओलिम्पिक खेलों के लिए ये दोनों ही देश दावेदार हैं। अखाड़ा-प्रेमी देशों में तो यह ओलिम्पिक अभी से चर्चा में आ गया है, क्योंकि इस आयोजन में "कुश्ती" जैसे प्राचीन और शास्त्रीय खेल पर हर बुज़ुर्ग की तरह सेवा-निवृत्ति के बादल मंडराने लगे हैं। भारत में तो पहलवान अभी से मनोबल के बने रहने का संकट झेलने भी लगे हैं।
अच्छी बात यह है कि  इन दोनों ही संभावित आयोजकों ने कुश्ती को बनाए रखने में अपनी रूचि दर्शाई है। इस से यह उम्मीद हो चली है कि  कुश्ती आसानी से 'चित्त' नहीं होगी। आने वाले समय में नई  पीढ़ी  में यह सन्देश भी जाना ज़रूरी है कि  बन्दूखें बदन का स्थान नहीं ले सकतीं। 

नीयत-मापी यन्त्र

क्या लालच को मापा जा सकता है? आमतौर पर हम कह देते हैं कि लालच की कोई सीमा नहीं है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि  यह दुनिया एक आदमी के लालच की पूर्ति करने के लिए भी पर्याप्त नहीं है। यह कथन दुनिया को अंडर-एस्टिमेट करना नहीं है, बल्कि लालच को सही एस्टिमेट करने का प्रयास करना है।
कुछ समय से सुनने में आ रहा है कि  कुश्ती के खेल को ओलिम्पिक  से अलग करने पर विचार हो रहा है। इस सूचना से सभी जगह हलचल शुरू हो गई है। कुश्ती से जुड़े खिलाड़ी, दर्शक, अधिकारी और शुभचिंतक इसे मायूसी से देख रहे हैं। कुछ सकारात्मक तरीके से सोचने वाले लोग यह भी कह रहे हैं, कि  अमेरिका और रशिया जैसे कुश्ती में दबदबा रखने वाले देश आसानी से इस खेल को विलुप्त नहीं होने देंगे। वैसे यह कोई अनहोनी भी नहीं है, क्योंकि प्रतियोगिताओं में नए खेलों का समावेश करने के लिए कुछ पुरानों को विदाई देना  जरूरी हो सकता  है। कुश्ती को अब जीवन में वैसे भी हाशिये पर ला दिया गया है।
यहाँ, महत्वपूर्ण यही है कि  ऐसा निर्णय किस नीयत से लिया जा रहा है। खेलों का यह "परिसीमन" किसी वांछित खेल को लाने की सायास कोशिश नहीं होनी चाहिए।
लालच से इसे केवल इसी रूप में जोड़ा जा सकता है कि किसी भी देश के लिए पदकों को पाने की प्रत्याशा खेल-निर्णयों से दूर रहे,क्योंकि नीयत-मापी यन्त्र फिलहाल हमारे पास नहीं है।     

Wednesday, February 13, 2013

सगे भाइयों में लड़ाई [दूसरा और अंतिम भाग]

सगे भाइयों जैसे दोनों कानों में जब वेलेंटाइन डे को लेकर झगड़ा हो गया तो बीच-बचाव करना ही पड़ा। मैंने उस कान का पक्ष लिया जो वेलेंटाइन डे का विरोध कर रहा था। उसकी बात को सही ठहराया। दूसरे कान से मैंने कहा- ये ठीक कहता है, हमें वेलेंटाइन डे  नहीं मनाना चाहिए। ये क्या बात हुई कि  हम प्यार का इज़हार दिवस मनाएं?
दूसरे कान ने कहा- यदि आप चाहते हैं कि  हम वेलेंटाइन डे  न मनाएं, तो आप इसका कारण बताएं।
मैंने कहा- मैं इसलिए इसका विरोध कर रहा हूँ कि हम साल में केवल एक ही दिन वेलेंटाइन डे  क्यों मनाएं?यह तो प्यार और उसके इज़हार का दिन है। हम रोज़ प्यार क्यों न करें? रोज़ इज़हार क्यों न करें?यदि साल में केवल एक दिन ही प्यार जताएं, तो बाकी सब दिन क्या नफरत में बिताएं? रोज़ हमारा वेलेंटाइन डे  हो,हम एक दूसरे से हमेशा प्यार करें।"वेलेंटाइन डे" की शुभकामनाएं!   

Tuesday, February 12, 2013

अखिल भारतीय साहित्य परिषद, जयपुर ने की 2012-13 के वार्षिक पुरस्कारों की घोषणा

अखिल भारतीय साहित्य परिषद, जयपुर के प्रदेशाध्यक्ष डॉ मथुरेश नंदन कुलश्रेष्ठ ने सूचना दी है कि  परिषद द्वारा वर्ष-2012-13 के अखिल भारतीय पुरस्कारों के लिए इन कृतियों को चुना गया है-
1.सरोजिनी कुलश्रेष्ठ अखिल भारतीय हिंदी कहानी- संग्रह पुरस्कार-
   "थोड़ी देर और ठहर"- प्रबोध कुमार गोविल [जयपुर]
2.स्व.डॉ  सरला अग्रवाल अखिल भारतीय हिंदी उपन्यास पुरस्कार-
   "भीगे पंख"- महेश चन्द्र द्विवेदी [लखनऊ]
3. शुकदेव शास्त्री अखिल भारतीय हिंदी निबन्ध-संग्रह पुरस्कार-
   "शब्द साक्षी हैं" - स्व. सिद्धराज व्यास [बीकानेर]
पुरस्कार वितरण 3 मार्च 2013 को आदर्श विद्या मंदिर, किरण पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020 के सभाकक्ष में दोपहर 3 बजे संपन्न होगा।

सगे भाइयों में लड़ाई

लोग कहते हैं कि  सगे भाइयों में यदि अनबन या झगड़ा हो तो वह बहुत ज़बरदस्त होता है। जब अन्य किसी परिचित-अपरिचित-मित्र या दुश्मन से मनमुटाव होता है, तो वहां काफी बड़ा भाग स्वाभाविक वैमनस्य का होता है, किन्तु जब सामने सगा भाई हो, तो फिर वैमनस्य नहीं, बल्कि सौमनस्य के तीव्र विखंडन की त्वरित प्रक्रिया होती है।
भारत पाकिस्तान ऐसे ही झगड़ते हैं।
आज मेरे दोनों कान भी आपस में ऐसे ही झगड़े। अब क्योंकि दोनों कान मेरे ही थे, तो वे बिलकुल सगे भाइयों जैसे ही तो हुए। आप कहेंगे कि  कान भला कैसे झगड़ सकते हैं? वे दोनों तो बेचारे आपस में एक-दूसरे के पास तक नहीं आ सकते।
लेकिन झगड़ा बिना एक-दूसरे  के पास आये भी तो हो सकता है। ठीक वैसे ही, जैसे दो सगे भाई अपने-अपने आँगन से एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल लेते हैं।
आज मेरे पास एक फोन आया कि कुछ लोग "वेलेंटाइन डे" मना रहे हैं। मुझे भी उस कार्यक्रम में आने का निमंत्रण दिया गया। मैं मन ही मन खुश हो गया। मैंने सोचा, प्रेम-प्रीत के त्यौहार में जाने में तो बड़ा मज़ा आएगा। लोगों के अभिसार देखने-सुनने को मिलेंगे।
मैं वहां जाने का ख्याली-पुलाव पका ही रहा था कि  एक और फोन आ गया। जिस समय वह फोन आया, मैं कुछ खा रहा था। अतः मैंने वह फोन उलटे हाथ से उठा कर दूसरे कान से लगा लिया। फोन पर कोई कह रहा था कि हम "वेलेंटाइन डे" का विरोध कर रहे हैं। अतः आप भी आ जाइये या फिर हमें इसके विरोध में कुछ अच्छा, दमदार सा लिख कर दे दीजिये।
मेरे दोनों कानों ने अलग-अलग ये दोनों विरोधी स्वर सुने थे, बस, दोनों आपस में लड़ पड़े।उन्होंने जोश में ये भी नहीं सोचा, कि  हम दोनों एक ही चेहरे पर चस्पां हैं। सगे भाइयों की तरह लड़ पड़े।
अब दोनों का साथ देना तो किसी भी तरह संभव नहीं था, अतः मैंने किसका साथ दिया, किसे चुप रहने को कहा, यह मैं कल बताऊंगा।     

Monday, February 11, 2013

जापान और चाइना क्या सोच रहे हैं?

एक शोध ने यह तथ्य निकाले हैं, कि  चाइना सख्ती से अपनी जनसंख्या के नियंत्रण के प्रति चिंतित है। शायद यह पृथ्वी पर जीवन का ऐसा पहला क्षेत्र है, जहाँ दुनिया का नंबर एक देश अपनी उपलब्धि पर हर्षित नहीं है, और इस से निजात पाना चाहता है। जापान भी संख्या नियंत्रण को पूरी संजीदगी से ले रहा है। नतीजा यह है कि  वहां बच्चों और युवाओं की संख्या इस समय वयस्कों या प्रौढ़ों की तुलना में कहीं कम है। लेकिन वहां यह सब किसी विकास के उन्माद में नहीं, बल्कि सहज समझदारी के तहत हो रहा है।
यहाँ एक पेचीदा जिज्ञासा उत्पन्न होती है, कि धरती पर एक उत्पाद के रूप में हम "मनुष्य" को कैसा समझते हैं? यदि इंसान धरती की सबसे चमत्कारिक और महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जैसा कि  कई देशों में कई शोधार्थियों का निष्कर्ष है, तो इसकी संख्या का आधिक्य किसी देश के लिए अवांछनीय कैसे हो सकता है? यदि होता है, तो हम "मौत पर रोना" जैसी प्रथाओं पर पुनर्विचार क्यों नहीं करते?
क्रूरता के लिए क्षमा करें। इस आलेख का प्रयोजन मनुष्य का निरादर करना नहीं है। न ही अन्य देशों की नीति  पर कोई कटाक्ष करना इसका उद्देश्य है, केवल "मनुष्यता" के बेहतर उपयोग का आह्वान ही इस जिज्ञासा में निहित है। 

Saturday, February 9, 2013

पुण्य

जब आप ऐसी खबर पढ़ते हैं, कि प्रकृति अपना तांडव दिखा कर जन-जीवन अस्त-व्यस्त कर रही है तो मन में कुछ सवाल उठते हैं। कहीं बाढ़ ,कहीं अतिवृष्टि, कहीं तूफ़ान,कहीं बर्फ़बारी, कहीं अकाल, तो मन में आता है कि  प्रकृति खुद अपने को तहस-नहस क्यों करना चाहती है? क्या इंसान प्रकृति का हिस्सा नहीं है?
लेकिन कभी ऐसा भी लगता है कि  शायद प्रकृति इंसान से बात करना चाहती है, और इसीलिए वह कुछ कहने इसी तरह आती है।
जब ऊंची-ऊंची पर्वत-श्रृंखलाओं पर बर्फ गिरती है, तभी तो वेगवती नदियों का जन्म होता है। गंगोत्री से बहा पानी संगम पर आकर महा-कुम्भ में करोड़ों श्रद्धालुओं को पुण्य प्रदान कर रहा है। तो प्रकृति जब भी, जहाँ भी इंसान का अभिषेक करने की अभिलाषा से उमड़ पड़ती है, शायद उसके मन में इंसान का कल्याण ही हिलोरें लेता है।
इंसान में हिम्मत, साहस, चुनौती, जिजीविषा, जगाना भी तो प्रकृति का एक दायित्व ही है,तो इंसान को अकर्मण्यता से बचाने का प्रयास प्रकृति क्यों न करे?
क्या यह पुण्य नहीं है?  

अनुशासित और अस्त-व्यस्त चर्या में कोई ज्यादा फर्क नहीं है

एक व्यक्ति व्यवस्थित और अनुशासित रहता है। समय पर खाना , समय पर सोना, समय पर उठना, समय पर आराम करना, समय पर कार्य करना।
दूसरा व्यक्ति लापरवाह और अस्त-व्यस्त है। न सोने का कोई टाइम है, न जागने का। न काम की कोई जवाबदेही, और न दिनचर्या का अता-पता।
दोनों के जीवन, संतुष्टि, उपलब्धियों आदि में जो भी अंतर हो, वह होगा, किन्तु दोनों की भीतरी-दुनिया में कोई विशेष अंतर नहीं होगा।
हाजमोला चाहिए? नहीं पची न बात?
असल में हमारे शरीर का जो खोल है, उसमें दो दीवारें हैं। एक तो बाहरी आवरण, जिस पर बाहर का वायुमंडल, रौशनी, शोर, सहयोग, संवेदना असर डालते हैं, और दूसरा भीतरी आवरण, जिससे हम अपने खून, प्राण, अंगों, अस्थि-मज्जा आदि से जुड़े हैं। मस्तिष्क रेफरी है। दोनों ओर संभालता है।
लापरवाह अस्त-व्यस्त आदमी बाहरी दबावों-लेट हो जाना, मज़ाक उड़ना, डांट  खाना, नुक्सान हो जाना जैसे बाहरी हंटर या चाबुक को सहता है। अनुशासित आदमी तनाव, चिंता, खीज, भय, डिप्रेशन, अपेक्षा जैसे भीतरी दबावों को सहता है।
एक के कपड़े, सामान, बाल,मुद्रा अस्त-व्यस्त होती रहती है, दूसरे के शरीर के रस, एन्जाइम्स, शिराएँ, तंतु, कोशिकाएं अस्त-व्यस्त होते रहते हैं।
दोनों को ही बाद में सब ठीक करने के लिए समय, शक्ति, प्रयास, और इच्छा चाहिए।

Friday, February 8, 2013

समझदारी का काम बच्चों का

"बूढ़ा जब अपने जाने के दिन नज़दीक देखने लगा तो उसने सोचा, अपने बच्चों को ऐसा कुछ सिखा जाऊं, कि  मेरे जाने के बाद ये आपस में लड़ें नहीं, और मिल-जुल के रहें। बहुत सोचने पर उसे वही सीख याद आई, जो कभी उसके पिता ने उसके बचपन में उसे दी थी।
उसने अपने सभी बच्चों को बुला कर एक-एक छोटी लकड़ी की टहनी दी, और कहा, इसे तोड़ो। सभी ने आसानी से उसे तोड़ दिया। फिर बूढ़े ने वैसी ही कुछ लकड़ियों का गट्ठर देकर सभी से उसे तोड़ने को कहा। कोई न तोड़ पाया।
बूढ़े ने खुश होकर कहा- देखो, इन्हीं लकड़ियों की तरह यदि सब एकसाथ मिलकर रहोगे, तो कोई तुम्हें नुक्सान नहीं पहुंचा सकेगा। इस सीख को देने के चंद दिनों बाद बूढ़ा स्वर्ग सिधार गया।"
यह कहानी सुना कर वैताल विक्रम से बोला-"राजन, चंद दिनों बाद चुनाव आ रहे हैं। सरकार से सभी दुखी हैं।अब मौका है कि सब मिलकर उसे हटादें, लेकिन सब अलग-अलग दल बना कर सरकार को ललकार रहे हैं, इस तरह तो ये सब हार जायेंगे। ये बूढ़े की सीख पर अमल क्यों नहीं करते?"
विक्रम ने कहा-" शिक्षाप्रद कहानियां तो बच्चों को सिखाई जाती हैं, लेकिन बच्चे वोटर नहीं होते।"
वैताल ने कहा- "ओह!" इतना कहकर वह फिरसे उसी सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह में जाने की तैयारी करने लगा।      
   

Thursday, February 7, 2013

घर वाले अच्छे भी तो हो सकते हैं

एक ज़माना था, जब सचमुच घर वाले अच्छे नहीं होते थे। वे जब अपने बेटे या बेटी का रिश्ता तय करते तो दहेज  मांग लिया करते थे। बेटी के युवा होने से पहले ही उसके हाथ पीले करने की सोचने लगते थे। बेटे का रिश्ता तय करते समय लड़की में मीन-मेख निकालने लगते थे। लड़के लड़की को आपस में बात तक नहीं करने देते थे। और उधर बहू घर में आई नहीं कि सास उससे मोर्चाबंदी में जुट जाती थी।
आखिर इस समस्या का हल लड़का-लड़की ने ही निकाला। वे आपस में एक-दूसरे को देख कर पसंद करने लगे, और इस तरह प्रेमविवाह की शुरुआत हुई। घरवालों का काम केवल मन मसोस कर आशीर्वाद देना ही रह गया।
लेकिन घर वाले हमेशा ऐसे ही नहीं होते।
विश्वसुन्दरी और सुपरस्टार प्रियंका चोपड़ा के घर वालों ने जब देखा कि  बिटिया फिल्मों में इतनी व्यस्त हो गई, कि  उसे प्रेम करने तक का टाइम नहीं मिल रहा, तो उन्होंने उसकी मदद करने का मन बनाया और उसके लिए लड़का ढूंढ दिया। लड़का भी ऐसा, कि  जो भी देखे, "मोहित" हो जाये।
जब लड़की विश्वसुन्दरी हो, तो लड़का भी कम से कम जगत-पिता की भूमिका कर सकने वाला तो हो। सो ऐसा ही हो गया।
जानते हैं, ऐसा सुन्दर-सुशील लड़का किसने ढूंढा? प्रियंका की मौसी ने!
आखिर सगी मौसी हैं, कोई सौतेली माँ ... 

Wednesday, February 6, 2013

फिल्मों में पहले हुआ पर असल जिंदगी में अब होगा

 हमारे फिल्मकारों की कलई धीरे-धीरे खुलती जा रही है। जब उनसे कहा जाता है कि  वह हिंसा और अपराध दिखाते हैं, जिससे समाज में हिंसा और अपराध फैलते हैं, तो वे यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि  हम तो वही दिखाते हैं जो समाज में पहले से हो रहा है। लेकिन अब धीरे-धीरे ऐसी कई बातें हो रही हैं, जो फिल्मों में पहले से ही होती रही हैं।
हमारे आम फ़िल्मी-दर्शक "कुम्भ" के बारे में यही जानते हैं कि  यह एक ऐसा भीड़-भरा मेला होता है जिसमें फिल्मों के जुड़वां भाई या जुड़वां बहनें आपस में बिछड़ जाते हैं।
आज सचमुच कुम्भ की यही फ़िल्मी प्रतिष्ठा दाव पर लगी है। हमारे राजनैतिक अखाड़ों के कई खलीफा "कुम्भ" में डुबकी लगाने जा रहे हैं। देखें, किसे अपने 'बिछड़े' मिलते हैं, और कौन अपनों से 'बिछड़ता है?

ज़ीनत अमान- वो पहले दुनिया की थी, फिर एशिया की, और तब भारत की बनी।

दिल्ली दुष्कर्म मामले के बाद सारा देश, सरकार, अदालतें और जनता दुष्कर्म करने वालों को जो सज़ा देने की मांग उठा रहे हैं, वह सज़ा उन्होंने फिल्म "इन्साफ का तराजू" में अपनी छोटी बहन के साथ दुष्कर्म करने वाले पापी को आज से पैंतीस साल पहले ही दे डाली थी।
जब देश से पढ़-लिख कर आजीविका के लिए हमारे नौनिहाल विदेशों में जा रहे थे, तब विदेश में पढ़ कर और "मिस एशिया" का खिताब जीत कर वह फिल्मों में आजीविका के लिए भारत चली आईं।
जब हमारी युवा पीढ़ी भारतीय धर्म-संस्कृति को बिसरा कर पाश्चात्य रंग में रंग रही थी, तब अपनी शुरूआती फिल्म से ही उन्होंने दुनिया-भर को "हरे रामा हरे कृष्णा"कहना सिखाया।
जो देवानंद अपनी हर फिल्म में नई तारिका को लाने के लिए ख्यात थे, उनके साथ उन्होंने बारह फ़िल्में कीं।
जब किसी बड़े और सफल फिल्मकार ने अपना कोई महत्वाकांक्षी भव्य प्रोजेक्ट शुरू किया, उसे नायिका के रूप में ज़ीनत अमान  ही याद आईं, चाहे 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' में राज कपूर हों, चाहें 'रोटी कपड़ा और मकान' में मनोज कुमार,'शालीमार' में कृष्णा शाह हों, 'अब्दुल्ला' में संजय खान हों, 'कुर्बानी' में फ़िरोज़ खान हों,'प्यास' में ओ पी रल्हन हों या फिर डॉन ,लावारिस,अली बाबा और चालीस चोर, हम किसी से कम नहीं, अजनबी,धुंध जैसी बड़ी फ़िल्में। मजहर खान से उन्होंने विवाह किया, किन्तु मजहर के जाने के बाद अपने दो सुपुत्रों की परवरिश उन्हें अकेले ही करनी पड़ी।
साठ साल की आयु पूरी कर चुकीं ज़ीनत अब फिर से विवाह कर रही हैं। उनके दोनों युवा पुत्रों ने भी उनके इस कदम को सराहते हुए सहमति दे दी है।यद्यपि उन्होंने अभी अपने होने वाले जीवन-साथी के नाम का खुलासा नहीं किया है, पर वह जो भी हो, बेजोड़ होगा। शुभकामनायें !  
     

Tuesday, February 5, 2013

दुनिया के श्रेष्ठ शिक्षा केंद्र और भारत

मीडिया के गलियारों में पिछले दिनों बड़ी मायूसी से यह सवाल उठा कि  दुनिया के श्रेष्ठ शिक्षा केन्द्रों की सूची  में भारतीय शिक्षा केन्द्रों का कहीं अता-पता नहीं है। दुनिया के प्राचीनतम ज्ञान-गुरु का तमगा पा चुके देश का इस मुद्दे पर तिलमिलाना स्वाभाविक है। लेकिन पिछले कुछ समय से शिक्षा को लेकर हमारे सरोकारों में जो बुनियादी बदलाव आया है, उसके चलते यह अस्वाभाविक भी नहीं है कि  हम इस दौड़ में पिछड़े सिद्ध हों।
आज भारत के किसी भी कोने में स्थित ऐसा कोई विद्यालय नहीं है जिसके "सर्वश्रेष्ठ" विद्यार्थी से यदि पूछा जाए, कि  वह अपना उच्च अध्ययन कहाँ करना चाहता है, तो वह देश के ही किसी संस्थान  का नाम ले। हमारे मेधावी विद्यार्थियों की यह समझ कोई एक दिन में नहीं बनी है।
इसका सीधा कारण "राजनीति की हमारी लत" है। हम जब भी किसी भारतीय संस्थान  को आगे बढ़ता देखते हैं, अपने अक्षम और  'सिफारिशी' नौनिहालों को किसी भी बहाने [आधार नहीं] उसमें घुसाने की जोड़-तोड़ में लग जाते हैं। फिर जिस नाव में पत्थर भरे जायेंगे उसका हश्र और क्या होगा? जो देश "सबको पानी, सबको रोटी,सबको छत", जैसी समस्या अभी तक हल न कर पाया हो, वह "सबको शिक्षा" देने की मुहिम में कहाँ खडा होगा?

Monday, February 4, 2013

एक बात समझ में नहीं आई

खबर थी कि  चन्द्रमा पर छोटा सा घर बन रहा है, जिसमें चार लोग रह सकते हैं। यह चार लोग कौन होंगे? भारत में तो कहा जाता है कि  दाने-दाने पर खाने वाले का और ईंट-ईंट पर रहने वाले का नाम लिखा होता है। अतः समय आने पर चन्द्रमा पर रहने वाले भी सामने आ ही जायेंगे, किन्तु अनुमान लगाने का भी अपना ही मज़ा है, क्यों न हम अभी से सोचना शुरू करें?
वैसे किसी स्थान पर चार लोगों का रहना कई तरह से जोखिम-भरा है। क्योंकि यदि उनमें किसी भी बात को लेकर विवाद हुआ, तो फैसला वोट से ही होगा,और ऐसे में यदि वोट दोनों तरफ दो-दो हो गए तो बात नहीं बनेगी। धरती पर तो पहले आदम और हव्वा, दो ही आये थे। इसलिए यहाँ दो को ही पर्याप्त मान कर तीसरे को कबाब में हड्डी माना जाता है। ऐसे में चौथा तो 'भीड़' की तरह माना जायेगा। किन्तु चार का फायदा भी है, इससे दो-दो के दो जोड़े बन सकेंगे।
चन्द्रमा पर रहने वाला परिवार यदि अमेरिका, इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया या रशिया जैसे देश से गया, तब तो ठीक, लेकिन यदि चाइना,भारत या पाकिस्तान जैसे देश से गया तो फिर ये समस्या, कि  किसे ले जाएँ, किसे छोड़ें?
लेकिन एक बात समझ में नहीं आई। अभी तो मकान बन ही रहा है। पूरा होगा, फिर उसमें सामान-असबाब पहुंचेगा, गृह-प्रवेश होगा, तब कहीं जाकर उसमें बसने वालों का नंबर आएगा। अभी से चिंता क्यों करें?      

वो पुराने दिन

हमारे देश में कभी यह बात आम थी। बड़े -बड़े राजा-महाराजाओं तक को सत्ता की ज़िम्मेदारी सौंपने से पूर्व राज्य के संत-साधुओं और पीर-फकीरों से राय-मशविरा किया जाता था। धर्माचार्यों और पंडितों-ज्ञानियों की बात का वजन था। धीरे-धीरे ख़ास की जगह आम आदमी ने लेली और वह 'वोटर' बन कर सबका भाग्य-नियंता बन गया।
कहा जा रहा है कि  ऐतिहासिक कुम्भ के अवसर पर इस बार देश-भर के साधू-संत अपनी प्राचीन काल वाली भूमिका को दोहराएंगे, और वे देश को अगला प्रधान मंत्री चुनने के लिए अपना मंतव्य बताएँगे।
भूली-बिसरी बातों का फिर-फिर लौटना अच्छा लगता है। देखें, वे क्या कहते हैं।
वैसे पुरानी परम्पराएँ हमने पूरी तरह छोड़ी भी कहाँ हैं। पहले हम राजा के वंश से ही तो नया उत्तराधिकारी चुनते थे। कुछ लोग इस परम्परा पर आमादा हैं, तो कुछ उस पर।
किसे सही कहा जाय, और किसे गलत।
फैसला समय करेगा।   

Sunday, February 3, 2013

आज भी नहीं है मेहनत का विकल्प

सुनील आनंद, बॉबी देवल, कुमार गौरव से लेकर रणबीर कपूर तक अनेक फ़िल्मी हस्तियों के बच्चों का रजतपट पर आना लगातार जारी है। यहाँ तक कि  फिल्म के किसी भी सेगमेंट से जुड़ा कोई भी व्यक्ति हो,एक बार तो उसके बच्चे फ़िल्मी परदे पर खुद को आजमाना ही चाहते हैं। आज ऐसे फ़िल्मी लोग अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं, जिनके बच्चों ने फिल्मों का रुख नहीं किया।
यहाँ तक कि  कई होनहार तो प्रबंधन, डाक्टरी,इंजीनियरिंग, लॉ आदि विषयों की पढ़ाई करके भी यहाँ भाग्य आजमाते देखे गए हैं। कुछ अभिनय की कड़ी तालीम लेकर आये, तो कुछ ने मम्मी-पापा के नाम को ही सफलता की गारंटी समझ लिया। लेकिन बॉलीवुड ने इन नौनिहालों को कुछ पाठ भी पढ़ाये हैं जैसे -
1. यहाँ भविष्य-प्रमाणपत्र पर कम से कम दो हस्ताक्षर होने ज़रूरी हैं- एक प्रबल भाग्य के, दूसरे कड़ी मेहनत के।
2.मम्मी-पापा का नाम समंदर में आपके बजरे को सुगमता से उतार तो देता है, पर उसकी लहरों से लोहा आपकी काबिलियत को ही लेना पड़ता है।
3.यदि आप यहाँ सफल नहीं हो पाते तो आप मम्मी या पापा को भी जबरदस्त टेंशन में ला देते हैं, और आपके नाम पर जमी बर्फ को तोड़ने के लिए उन्हें सारा जोश बटोर कर नई पारी खेलने के लिए मैदान में फिर से उतरना पड़ता है।
4.हाँ,यदि आपके पौ -बारह हो गए तो आपके मम्मी-पापा के पौ -चौबीस होने में भी देर नहीं लगती।      

Saturday, February 2, 2013

सुभाष चन्द्र बोस इस तरह क्यों रहते?

उत्तर प्रदेश के एक न्यायालय ने तीन दशक पहले गुज़र चुके गुमनामी बाबा के नेताजी सुभाष होने की जांच करने के लिए एक समिति बनाने की सलाह दे डाली।
इससे पहले भी कुछ लोगों के 'सुभाष' होने का अंदेशा समय-समय पर जताया गया है।
जब नेहरूजी का देहावसान हुआ, तो उनकी चिता के समीप अंतिम संस्कार के समय खड़े एक वृद्ध पर भी नेताजी होने का संदेह जताया गया था। लेकिन वह व्यक्ति तत्काल वहां से ओझल हो गया, और बात आई-गई हो गई।
सबसे बड़ा सवाल यही है कि  देश स्वाधीन हो जाने के बाद, ससम्मान याद किये जा रहे नेताजी को इस तरह लुक-छिप कर जीवन गुज़ारने की आखिर क्या ज़रुरत थी। यदि नेताजी वास्तव में विमान-दुर्घटना में बच  जाते,तो ऐसा कोई कारण नहीं था, कि  वे दुनियां की नज़रों से बचे रहते। और आज़ादी के बाद तो बिलकुल नहीं। लेकिन यह बात भी आसानी से गले नहीं उतरती कि  भारतीय न्यायालयों को मुकदमों की कोई कमी है, जो वे बार-बार नेताजी के जीवित होने की अफवाहों सम्बन्धी याचिकाओं पर समय और श्रम देने को तैयार हो जाते हैं।   

Friday, February 1, 2013

कुछ कहने पे तूफ़ान उठा लेती है दुनिया

बयानों पर भी बवंडर आ जाते हैं।
भारत के संविधान में नागरिकों के कुछ मौलिक अधिकार हैं, जिनमें एक है, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार।
कुछ दिनों पहले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के मंच से आशीष नंदी ने किसी वर्ग विशेष पर टिप्पणी कर दी, जिसके कारण उनके पीछे हथकड़ियाँ दौड़ पड़ीं।
लेकिन शायद कोर्ट में इन्हीं मौलिक अधिकारों ने उन्हें बचा लिया।
लिटरेचर फेस्टिवल के बीतते ही फिल्म फेस्टिवल शुरू हो गया। इसकी शुरुआत ही विवाद से हुई। इसमें शर्मीला टैगोर को लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया। इसके मिलते ही अभिनेत्री नगमा का बयान आ गया कि  यह पुरस्कार उन्हें देने का आश्वासन दिया गया था, पर शर्मीला को दे दिया गया।
कुछ भी हो, बयानों ने ईवेंट्स के मीडिया कवरेज में तो जान डाल दी।
आजकल वैसे भी, कुछ होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना उसकी कवरेज होना।क्योंकि जो होता है, वो तो चंद लोगों के सामने होता है, पर कवरेज करोड़ों के सामने। अब ये बात और है कि  ये 'करोड़ों' कवरेज को कौड़ियों के मोल समझते हैं। बेचारे ये भी क्या करें? इनकी समझ को कोई कुछ समझता भी तो नहीं। समझे भी कैसे? अब हर कोई तो समझदार होने से रहा।  

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...