तभी लाजो के घर का दरवाज़ा खड़का। बख्तावर और दिलावर एक साथ ताली बजाते हुए अन्दर दाखिल हुए। दिलावर ने कहा- वाह, क्या जुगलबंदी है? आज तो लाजो बुआ कव्वाली गा रही हैं। क्या आवाज़ है।
उन दोनों को देखते ही लाजो पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। उसे लगा कि गीत गाने से आज उसकी तपस्या फिर बेकार हो गई। वह भूखी तो थी ही, गुस्से में बगुले, खरगोश और झींगुर, तीनों पर झपट पड़ी। बोली- मैं तुम तीनों को खाऊँगी।
बगुला झट से पंख फड़फड़ा कर छत पर जा बैठा। झींगुर भी उड़कर दीवार के एक छेद से झाँकने लगा। खरगोश तो था ही चौकन्ना, झट एक बिल में घुस गया। तीनों हंसने लगे। लाजो लोमड़ी हाथ मलती रह गई। फिर खिसिया कर बोली- अरे मैं तो मजाक कर रही थी। आजाओ तुम तीनों, मैं अभी खीर बनाती हूँ।
तीनों में से कोई न आया। लोमड़ी खीज कर वहां से जाने लगी। पीछे से हँसते हुए बगुला बोला- "वो देखो, चालाक लोमड़ी जा रही है!" खरगोश ने कहा-"शायद यहाँ के अंगूर खट्टे हैं!"
तभी पेड़ से उड़कर मिट्ठू प्रसाद भी वहां आ बैठे। वे बुज़ुर्ग और अनुभवी थे। बोले- " देखो बच्चो, लाजवंती बहन अपनी छवि तो सुधारना चाहती थी, लेकिन अपने कार्य नहीं सुधारना चाहती थी। हमारी छवि हमारे कार्यों से बनती है। यदि हम अच्छे काम नहीं करेंगे तो हमारी छवि कभी अच्छी नहीं हो सकती। बुरे कर्म करके अच्छी छवि बनाने की कोशिश करना अपने आप को और दूसरों को धोखा देना है। ऐसा करके हम कभी जनप्रिय नहीं हो सकते। छवि हमारे कर्मों का अक्स है। छवि बनाई नहीं जाती, जैसे कार्य होते हैं, वैसी ही बन जाती है।
उजाला उगता नहीं है। सूरज उगता है तो उजाला स्वतः हो जाता है। हाँ, समय बहुत शक्तिशाली है, यह सब-कुछ बदल सकता है, लेकिन तब, जब हम ईमानदारी से कोशिश करें। [ समाप्त ]
[इस रचना को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का बीस हज़ार रूपये का 'सूर'पुरस्कार प्राप्त]
उन दोनों को देखते ही लाजो पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। उसे लगा कि गीत गाने से आज उसकी तपस्या फिर बेकार हो गई। वह भूखी तो थी ही, गुस्से में बगुले, खरगोश और झींगुर, तीनों पर झपट पड़ी। बोली- मैं तुम तीनों को खाऊँगी।
बगुला झट से पंख फड़फड़ा कर छत पर जा बैठा। झींगुर भी उड़कर दीवार के एक छेद से झाँकने लगा। खरगोश तो था ही चौकन्ना, झट एक बिल में घुस गया। तीनों हंसने लगे। लाजो लोमड़ी हाथ मलती रह गई। फिर खिसिया कर बोली- अरे मैं तो मजाक कर रही थी। आजाओ तुम तीनों, मैं अभी खीर बनाती हूँ।
तीनों में से कोई न आया। लोमड़ी खीज कर वहां से जाने लगी। पीछे से हँसते हुए बगुला बोला- "वो देखो, चालाक लोमड़ी जा रही है!" खरगोश ने कहा-"शायद यहाँ के अंगूर खट्टे हैं!"
तभी पेड़ से उड़कर मिट्ठू प्रसाद भी वहां आ बैठे। वे बुज़ुर्ग और अनुभवी थे। बोले- " देखो बच्चो, लाजवंती बहन अपनी छवि तो सुधारना चाहती थी, लेकिन अपने कार्य नहीं सुधारना चाहती थी। हमारी छवि हमारे कार्यों से बनती है। यदि हम अच्छे काम नहीं करेंगे तो हमारी छवि कभी अच्छी नहीं हो सकती। बुरे कर्म करके अच्छी छवि बनाने की कोशिश करना अपने आप को और दूसरों को धोखा देना है। ऐसा करके हम कभी जनप्रिय नहीं हो सकते। छवि हमारे कर्मों का अक्स है। छवि बनाई नहीं जाती, जैसे कार्य होते हैं, वैसी ही बन जाती है।
उजाला उगता नहीं है। सूरज उगता है तो उजाला स्वतः हो जाता है। हाँ, समय बहुत शक्तिशाली है, यह सब-कुछ बदल सकता है, लेकिन तब, जब हम ईमानदारी से कोशिश करें। [ समाप्त ]
[इस रचना को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का बीस हज़ार रूपये का 'सूर'पुरस्कार प्राप्त]
साब अभी लिंक प्राप्त हुआ है, इस्मार्ट इंडियन द्वारा, शुरू से शुरू करना पड़ेगा,
ReplyDeleteहाल फिलहाल आपको फोल्लो कर के जा रहे हैं, कल से १ नो. से शुरू करेंगे,
उन्होंने लिंक दिया है तो कुछ खास ही होगा.
@ उजाला उगता नहीं है। सूरज उगता है तो उजाला स्वतः हो जाता है। हाँ, समय बहुत शक्तिशाली है, यह सब-कुछ बदल सकता है, लेकिन तब, जब हम ईमानदारी से कोशिश करें।
ReplyDelete- प्रबोध जी, इतनी रोचक कहानी के साथ ऐसी सुन्दर शिक्षा सहजता से दे पाना आप ही के बस की बात है। सभी कड़ियाँ पढीं। कुछ टिप्पणियाँ शायद फिर से स्पैम में गयी हैं, कृपया चैक कर लीजिये। धन्यवाद!
Sach hai. Aabhaar.
ReplyDeletedhanywad.
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