Friday, June 8, 2012

उगते नहीं उजाले[तेरह]

     लाजो ने हठ  न छोड़ा। वह हताश थी पर निराश नहीं थी।
     उसे कठिन तपस्या के बाद मूषकराज से यह वरदान मिला था कि  यदि वह जंगल के ऐसे सभी जानवरों की सेवा करेगी, जिनकी छवि लोगों के बीच खराब है, तो उसकी अपनी छवि भी सुधर कर अच्छी हो जायेगी। और पंचतंत्र के ज़माने से उसे जो लोग धूर्त, मक्कार और चालाक समझते हैं, वे भी उसे भली, दयालु और ईमानदार समझने लगेंगे।
     पर मूषकराज ने यह भी कहा था कि  किसी की सेवा करने के बाद वह किसी भी कीमत पर गाना न गाये। यदि वह ऐसा करेगी तो उसकी तपस्या का फल न मिलेगा।
     कठिनाई यह थी, कि  लोमड़ी लाजवंती किसी की सेवा करने के बाद अपनी ही प्रशंसा में गीत गा उठती थी, और उसकी मेहनत  निष्फल हो  जाती थी।
     लाजो ने सोचा, वह तो फिर भी  एक  लोमड़ी है, उससे भी छोटे-छोटे कई जीव कई बार परिश्रम करके सफलता पाते हैं। उसने खुद अपनी मांद  में देखा था, नटनी  मकड़ी कितनी मेहनत  से रहने के लिए अपना जाला बुनती थी। नटनी  असंख्य  बार गिरती, परन्तु बार-बार उठकर फिर से कोशिश में जुट जाती। तब जाकर कहीं जाला बना पाने में सफल होती थी।
     भला लाजो नटनी  से कम थोड़े ही थी। उसने निश्चय किया कि  वह असफलता से नहीं घबराएगी, और एक बार फिर जनसेवा के अपने इरादे के साथ निकलेगी।
     आज उसने कृष्णकली से मिलने का मानस बनाया। कृष्णकली भारी-भरकम भैंस थी, जो ज्यादा समय जुगाली में ही गुजारती थी। उसका शरीर जितना विशाल  था, बुद्धि उतनी ही छोटी। शायद उसी के कारण  जंगल में यह चर्चा चलती थी, कि  अक्ल  बड़ी या भैंस !
     कृष्णकली को कुछ भी समझाना लोहे के चने चबाने जैसा था। बचपन में उसे पढ़ाने मास्टर मिट्ठू प्रसाद कई बार आये, पर हमेशा अपनी तेज़ आवाज़ में उसके आगे बीन बजा कर ही चले गए। कृष्णकली कुछ न सीखी। उसे तो बस दो ही चीज़ें प्रिय थीं, हरी-हरी घास और तालाब का मटमैला पानी। हाँ, दूध देने में कृष्णकली कभी कंजूसी न करती।
     लाजो ने सोचा, यदि इस कृष्णकली में थोड़ी भी बुद्धि आ सके तो उसकी छवि सुधर जाए। उसने कृष्णकली की सेवा करने को कमर कस  ली, और उसकी मदद को दिमाग दौड़ाना  शुरू कर दिया। [जारी] 

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