बसंती और दलदली ऐसा अनूठा उपहार पाकर फूले न समाये। उन्होंने झुक कर लाजो बुआजी के पैर छुए, और उनसे खाना खाकर ही जाने की जिद करने लगे।
खा पीकर लाजो जब घर लौटने लगी, दोपहर ढल रही थी। लाजो का सर गर्व से तना हुआ था। आज उसने दोनों बच्चों पर उपकार किया था। अब किसी की हिम्मत न थी कि उन्हें धीमी चाल से चलने वाला कह सके। बुआ के दिए जूते जो उनके पास थे।
वह ऐसा सोच ही रही थी कि उसका ध्यान सामने गया। एक पेड़ के नीचे काफी भीड़ इकट्ठी थी। लाजो से रहा न गया। वह भी भीड़ को चीरती पेड़ के नीचे पहुँच गई। देखा तो ख़ुशी से पागल हो गई। बसंती और दलदली दोनों अपने स्केटिंग वाले जूते पहन कर दौड़ते हुए तालाब से यहाँ तक आ गए थे, और सबको अपने जूते दिखा रहे थे। सब हैरानी से दोनों को दौड़ते-भागते देख रहे थे।
तभी पेड़ के तने से आवाज़ आई-
"धीमी चाल छोड़ कर सरपट, भागें अपने घोंघा राम
किसने इनको ताकत दी ये, बोलो-बोलो उसका नाम "
सबके सामने अपने गुणगान का ऐसा मौका लाजो भला कहाँ चूकने वाली थी? झट बोल पड़ी-
"निर्बल को ऐसा बल देकर, जिसने किया अनोखा काम
सारे उसको लाजो कहते, लाजवंती उसका नाम"
लाजो का गीत सुनते ही पेड़ के तने की एक छोटी सी खोह से कूद कर दिलावर झींगुर बाहर आ गया। बोला- बुआ आदाब अर्ज़ !
-अरे दिलावर तू यहाँ कैसे?
-बस बुआ, मैं तो यहाँ बैठा था कि तुम्हारा गाना सुना। मैं झट बाहर निकला। मैंने सोचा, ये लाजो बुआ तो हो ही नहीं सकतीं। उन्होंने तो गाना गाना छोड़ ही रखा है। भई, भारी जप-तप वाली जो ठहरीं।
लाजो का माथा ठनका। आज फिर उसका तप भंग हो गया था। वह फिर गीत गा बैठी थी। लाजो मुंह लटकाए घर की ओर चल दी। शाम घिर रही थी।
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