बगुला भगत बोला- लो, मैं आज से ही मछली खाना छोड़ देता हूँ। पर मेरी भी एक शर्त है !मैं रोज़ तुम्हारे घर आऊँगा। वहां जो कुछ भी हो, तुम मुझे भोजन करा दिया करना। आखिर तुम भी तो भोजन पकाती ही होगी?
लाजो लोमड़ी एक पल को ठिठकी, पर और कोई चारा न था। उसे ये शर्त माननी ही पड़ी। बगुला भगत ने भी लाजो को वचन दे डाला कि वह अब कभी मछलियाँ नहीं खायेगा।
लाजो ख़ुशी से झूम उठी। उसे लगा कि अब उसकी तपस्या ज़रूर पूरी होगी। ख़ुशी में वह यह भी भूल गई कि वह सुबह से भूखी है। फिर भी वह प्रसन्न होती हुई अपने घर की ओर चल पड़ी।
आज उसने सोच रखा था कि चाहे जो भी हो, कोई भी गीत उसे नहीं गाना है। वह मन ही मन दुहराने लगी-
-मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है...वह चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती हुई जा रही थी कि उसे कहीं दिलावर झींगुर न मिल जाये। वह जोर-जोर से बोल रही थी- मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है ...
चलती-चलती लाजो घर पहुँच गई। वह बड़ी खुश थी कि आज उसने कोई गाना नहीं गाया था, और उसकी तपस्या पूरी होने वाली थी।
लाजो ने ज्योंही अपने घर का दरवाज़ा खोला, वह भौंचक्की रह गई। सामने चौक में बगुला भगत बैठे थे, जो उड़कर उससे पहले ही वहां पहुँच गए थे।
लाजो उन्हें देखते ही सकपकाई। उसे ध्यान आया कि अब तो बगुला भगत को भी भोजन कराना पड़ेगा। उधर खुद भूख के मारे उसका हाल बेहाल था। मगर फिर भी आज वह अपनी तपस्या निष्फल नहीं होने देना चाहती थी। वह जोर-जोर से बोलने लगी- मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है ...
बगुला भगत भूख से व्याकुल था। उसे लाजो की रट से खीज होने लगी। वह भी जोर-जोर से बोलने लगा- मुझे भूख लगी, खाना है? मुझे भूख लगी खाना है?
दोनों की जुगलबंदी चलने लगी।
"मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है
मुझे भूख लगी, खाना है, मुझे भूख लगी खाना है?"
[कल पढ़िए 'उगते नहीं उजाले' का अंतिम इक्कीसवां भाग ]
लाजो लोमड़ी एक पल को ठिठकी, पर और कोई चारा न था। उसे ये शर्त माननी ही पड़ी। बगुला भगत ने भी लाजो को वचन दे डाला कि वह अब कभी मछलियाँ नहीं खायेगा।
लाजो ख़ुशी से झूम उठी। उसे लगा कि अब उसकी तपस्या ज़रूर पूरी होगी। ख़ुशी में वह यह भी भूल गई कि वह सुबह से भूखी है। फिर भी वह प्रसन्न होती हुई अपने घर की ओर चल पड़ी।
आज उसने सोच रखा था कि चाहे जो भी हो, कोई भी गीत उसे नहीं गाना है। वह मन ही मन दुहराने लगी-
-मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है...वह चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती हुई जा रही थी कि उसे कहीं दिलावर झींगुर न मिल जाये। वह जोर-जोर से बोल रही थी- मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है ...
चलती-चलती लाजो घर पहुँच गई। वह बड़ी खुश थी कि आज उसने कोई गाना नहीं गाया था, और उसकी तपस्या पूरी होने वाली थी।
लाजो ने ज्योंही अपने घर का दरवाज़ा खोला, वह भौंचक्की रह गई। सामने चौक में बगुला भगत बैठे थे, जो उड़कर उससे पहले ही वहां पहुँच गए थे।
लाजो उन्हें देखते ही सकपकाई। उसे ध्यान आया कि अब तो बगुला भगत को भी भोजन कराना पड़ेगा। उधर खुद भूख के मारे उसका हाल बेहाल था। मगर फिर भी आज वह अपनी तपस्या निष्फल नहीं होने देना चाहती थी। वह जोर-जोर से बोलने लगी- मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है ...
बगुला भगत भूख से व्याकुल था। उसे लाजो की रट से खीज होने लगी। वह भी जोर-जोर से बोलने लगा- मुझे भूख लगी, खाना है? मुझे भूख लगी खाना है?
दोनों की जुगलबंदी चलने लगी।
"मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है
मुझे भूख लगी, खाना है, मुझे भूख लगी खाना है?"
[कल पढ़िए 'उगते नहीं उजाले' का अंतिम इक्कीसवां भाग ]
गीत नहीं गाना है, मच्छी नहीं खाना है
ReplyDeleteलाजवंती का दुश्मन सारा ये ज़माना है॥