Monday, June 18, 2012

प्रियावरण [लघुकथा ]

     वे दिल की अतल गहराइयों से एक दूसरे को चाहते थे। वे रोज़ मिलते।
     मिलने की जगह भी तय थी। गाँव के समीप बहती नदी के तट पर बने मंदिर के बुर्ज़ पर। अँधेरी, तंग, काई लगी पुरानी  सीढ़ियों से होकर, वहां उनके सिवा कभी कोई और न आता।
     एक दिन चन्द्रमा के हलके उजाले में युवती ने युवक से कहा- तुम कुछ दिन के लिए यहाँ से कहीं चले जाओ।
     युवक तो प्रेमिका की हर बात पर जान देने के लिए तत्पर रहता ही था, फिर भी जिज्ञासा-वश पूछ बैठा-"क्यों?"
     युवती ने कहा, मैं विरह का सुख देखना चाहती हूँ।
     युवक को ठिठोली सूझी, बोला- विरह में सुख नहीं, वेदना होती है।
     युवती ने कहा- जब तक खुद न देख लूं, सुख है या वेदना, केवल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर क्या कह सकती हूँ।
     युवक ने युवती का चेहरा अपनी हथेली से आसमान की ओर  उठाया और कहा- देख लो धरती के लिए तरसते चन्द्रमा को !
     युवती उपेक्षा से बोली- आँखों देखी और दिल से महसूस की गई बात में बड़ा अंतर होता है !
     युवक ने युवती के हठ  को टालने का एक प्रयास और किया, बोला-कहीं किसी ऐसे रास्ते पर मत निकल जाना जहाँ से लौट न सको।
     -बहाने मत बनाओ ! युवती के ऐसा कहते ही युवक बुर्ज़ की मुंडेर पर चढ़ा, और नीचे गहरे पानी में छलांग लगा दी।
     युवती स्तब्ध रह गई।
     कई दिन बीत गए। युवती वहां रोज़ उसी तरह आती रही। युवक की याद में नदी के पानी के छींटे आँखों पर मारती, और फिर बुर्ज़ पर चली आती।
     कई दिनों तक जंगलों और पहाड़ी बस्तियों की ख़ाक छानने के बाद, एक दिन युवक लौट आया।
     जब दोनों मिले, तो दोनों की आँखों में आंसू थे, आँखें  इस तरह लाल थीं, जैसे दोनों कई दिनों से सोये न हों।
     लड़के ने अपने हाथ से युवती का चेहरा उठाया, और पूछा, अब तो देखली तुमने विरह-वेदना,मुझे भी बताओ  कैसी होती है !
     युवती गुस्से से तमतमा गई, बोली-" बेवफा,बेशर्म,पत्थरदिल,धोखेबाज़, तुझे नहीं हुई विरह-वेदना ?"

1 comment:

  1. पुरुषोचित व्यवहार का कडुवा सच ।

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