Friday, June 15, 2012

समेटती है पंख धूप-"धूप में "

गंध जो फैली, तुलसी के आँगन में
बहती पवन भी
लहराके छितराई धूप  में

मौसम-प्रशासन ने जल्दी से भेजा
बदली को अम्बर में
फिर से बरसने को धुंधलाई धूप  में

 ठाकुर जी महके घी की उनाई  से
बाती  भी  चहकी लरजती
मुरझाई धूप  में

लड्डू प्रसाद के उतरे हलक में
जिस-तिस पे बरसी असीसें
गमखाई  धूप  में

तितली से भंवरे ने बोल दो बोले
फूलों ने जी से लगाया
बलखाई धूप  में

सावन ने लहराके अम्बर की नाव करी खाली
भादों को आना था खेत में
कुम्हलाई धूप  में

सपनों पे रंग छितराए रिश्तों के कण-कण चमके
रेत  में हीरों से आँखों के जोहड़ भी उफने
पपड़ाई धूप  में

किरणें जो टपकीं रूप से चंदा के
देहरी में क्यों रहती लाजो,आया था सोलहवां
फगुनाई धूप  में

मारा जो पनघट पे कंकड़ रूप ने,आँगन में रम गई  रंगोली
हल्दी का सुर्ख हुआ चेहरा
अलसाई धूप  में !

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