Sunday, June 10, 2012

उगते नहीं उजाले [सोलह ]

     लाजो ने हठ  न छोड़ा।
     आज उसे दिलावर पर भी क्रोध आ रहा था, जो बार-बार उसे गाने के लिए उकसाकर उसकी तपस्या निष्फल कर देता था। वह मूषकराज के प्रति भी ज्यादा खुश न थी। उसे लग रहा था कि  उन्होंने लाजो को कठिन परीक्षा में फंसा दिया है। किन्तु जल्दी ही लाजो संभल गई। उसने सोचा, देवता पर संदेह करना उचित नहीं है। वे इससे कुपित  होकर कोई अनिष्ट भी कर सकते हैं। वह सहम कर रह गई।
     किन्तु लाजो इतनी आसानी से हार मान कर बैठ जाने वाली नहीं थी। वह भी जीवट वाली  लोमड़ी थी। उसने सोचा कि  वह अबकी बार पूरी सावधानी रखेगी, और अपना तप  भंग न होने देगी।
     लाजो आज छन्नू गिरगिट के मोहल्ले में जाना  चाहती थी।
     छन्नू गिरगिट की भी कम फजीहत न थी। लोग कहते थे कि  वह रंग बदलने में माहिर है, इसीलिए उस पर कोई ऐतबार नहीं करता। भला ऐसे लोगों पर कौन यकीन करे जो पल में तोला , पल में माशा। यानि कभी कुछ और कभी कुछ। ऐसों को तो बिन-पेंदी का लोटा ही कहा जायेगा !
     गिरगिट घने पेड़ों वाले बगीचे में रहता था। कभी  हरा  रंग  बना  कर टिड्डों के पास पहुँच जाता, और उन्हें धड़ाधड़  खाने लग जाता। तो कभी तुरत-फुरत केसरिया रंग का होकर नारंगी के पेड़ पर पहुँचता, और आराम से बैठ कर खट्टा-मिट्ठा रस पीने लग जाता।
     बाग़ के माली को नारंगी पर बैठा गिरगिट दीखता ही नहीं, वह भला उसे कैसे पहचाने?और पहचाने ही नहीं, तो भगाए कैसे? मुसीबत थी।
     छन्नू को भूरा रंग बदलने में भी देर नहीं लगती। जब कोई मारने आये तो भूरा रंग धारण करके मिट्टी  में दौड़ना शुरू। अब मिट्टी  में भूरा गिरगिट कौन पहचाने ? बस, मारने वाला लाठी पीटता रह जाता, और छन्नू मियां रफूचक्कर!
     कितनी बदनामी होती थी। लोग दगा करने वाले से कहते- "क्या गिरगिट की तरह रंग बदलता है।"
     लाजो को यह सब जरा न भाया। उसने तय कर लिया कि  वह गिरगिट की छवि बदलकर ही रहेगी।
     पर अब सवाल ये था कि  छवि बदले कैसे? [ जारी ]   

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