Saturday, June 23, 2012

कौन सा परफ्यूम खरीदेंगे ?

यदि किसी बच्चे को शुरू से ही गाना सिखाया जाये, तो वह युवा होते-होते अच्छा गायक बन जाता है। यदि किसी बच्चे को उसके शिशुपन से ही तैरना सिखाया जाये तो वह जवान होते-होते अच्छा तैराक बन जाता है। यही बात किसी भी हुनर के मामले में भी  सही सिद्ध होती है। हाँ, कुछ अपवाद हो सकते हैं।
   लेकिन न जाने क्यों, एक्टिंग के बारे में यह बात खरी नहीं उतरती, कि  अच्छे बाल कलाकार बड़े होकर अच्छे अभिनेता भी बनें। कम से कम हिंदी फिल्मों का इतिहास तो यही कहता है। बहुत सारे ऐसे नामचीन बाल कलाकार हैं, जिन्होंने अपने बचपन में तो अपनी प्रतिभा और लोकप्रियता का लोहा मनवाया, लेकिन बड़े होने के बाद अपना वह जलवा कायम नहीं रख सके। लड़के बड़े होकर अपना वह आकर्षक डील-डौल नहीं निकाल सके, तो  लड़कियों ने भी पैदायशी ऐक्ट्रेस वाली अदाकारी नहीं दिखाई।
   एक बात पर ध्यान दें, ऐसे कई सफल कलाकार हुए हैं, जो बाल-अभिनेता या बाल-अभिनेत्री के तौर पर भी आये थे। लेकिन वे तब उतने सफल नहीं रहे, उन्होंने मात्र उपस्थिति दर्ज कराई। जो बचपन में बेहद सफल थे, उन्होंने बाद में कोई झंडे नहीं गाढ़े।
   यदि ऐसा है, तो मुझे इसका कारण केवल यही लगता है, कि  अभिनय भौतिक वस्तुओं की भाँति दिखाई देने वाली चीज़ नहीं है। किसी इत्र  की तरह।
   यदि किसी परफ्यूम की दूकान पर कोई शीशी बार-बार ग्राहक को दिखाई जाये, तो वह संभवतः नहीं बिकती। ग्राहक वही बोतल लेना पसंद करते हैं, जो बंद-पैक में भीतर से निकाली जाए। शायद दर्शक एक्टरों के बारे में भी यही सिद्धांत अपनाना पसंद करते हैं, उनका कलाकार अनछुआ, तरोताज़ा,नयापन लिए हुए हो। 

Friday, June 22, 2012

अर्थों के अनर्थ करने वाले

कौन कहता है कि  खेत
अब नहीं उगाते पौष्टिक अन्न
कि  जिसे खाकर पैदा हो वास्तविक आदमी।
खेत तो अब भी उगाते हैं अन्न
हाँ, अगर वह पौष्टिक न निकले
तो ज़रूरी है तहकीकात
उन इल्लियों व कीटों की नहीं
जो पनप जाते हैं खेतों की भुरभुरी मिट्टी  में
बल्कि उनकी,
जो पनप जाते  हैं
चमचमाते शहरों के जगमगाते बंगलों में !

तहकीकात उनकी ज़रूरी नहीं
जो हल-बैल या ट्रेक्टर लेकर
आंधी-पानी-धूप  में घूमते  हैं खुले आसमान तले
तहकीकात उनकी करो जो
कुर्सी के खेत में वोटों की खाद देकर
मौन रख लेते हैं और
खुश होते हैं दिन गिन-गिन कर 
अपनी सल्तनतों के।

ओलिम्पिक रसातल के लिए भी

ओलिम्पिक दुनिया के सबसे बड़े खेल हैं, जिनमें भाग लेने वाले हर देश का हर खिलाड़ी "ऊंचाइयों" के लिए जंग लड़ता है, ताकि वह अपने देश का परचम बुलंदियों पर फहरा सके। लेकिन इधर कुछ समय से इसके उलट भी नज़ारा देखने को मिल रहा है। बहुत से लोग इस कुश्ती में भी ताल ठोक  रहे हैं, कि हमें "नीचा" या 'घटिया' घोषित करो। यदि इस सोच से किसी को शर्मिंदगी होती हो, तो वह शरमा  ले,क्योंकि ऐसा हो रहा है।
   कई जातियां खुले आम कहती घूम रही हैं, कि  हमें "पिछड़ा" मानो।
   कई विद्यार्थी कह रहे हैं कि  हमें बिना परीक्षा लिए पास करो, या फिर नक़ल करने दो।
   कई अफसर कह रहे हैं, कि  हमें खुले-आम घूस या रिश्वत खाने दो, टोका-टोकी मत करो।
   कई नेता कह रहे हैं कि  ...छोड़िये , उनकी सुनता कौन है?

कभी जैसी किस्मत राजकुमारियों की हुआ करती थी, वैसी अब राष्ट्रों की होने लगी है। राजकुमारियों के लिए स्वयंवर आयोजित किये जाते थे, कि वे सैंकड़ों आमंत्रित राजकुमारों में से अपनी पसंद का पति चुनें।
अब ऐसी सुविधा राष्ट्रों को भी मिलने लगी है, कि  वे समय आने पर अपना 'पति' अर्थात "राष्ट्रपति"चुनें।
कुछ भी हो, राजकुमारियों और देशों की किस्मत बिलकुल एक जैसी तो नहीं हो सकती। कुछ तो फर्क रहेगा ही। राजकुमारियां ऐसा पति चुनती थीं, जो बलशाली हो, जीवन में कुछ कर गुजरने का माद्दा रखता हो,उन्हें खुश रखे, आदि-आदि ...
राष्ट्र ऐसा पति खोजता है, जिसका बल बीत चुका  हो,जीवन में जो कुछ करना था, वह करके अब निठल्ला बैठना चाहता हो, और ..और ...राष्ट्र को खिजाता रहे। फिर भी दोनों की किस्मत में कुछ तो समानता भी है ही, राजकुमारियां इतना तो ध्यान रखती ही थीं, कि  वे जिसे भी चुनें वह उनकी अम्मी को पसंद हो।   
   

Thursday, June 21, 2012

देखें ईश्वर किसका है?

लूट का माल थैले में भरकर
पुलिस से बच कर भागता एक लुटेरा
मंदिर के अहाते में घुस कर
ईश्वर से बोला-
मैं शरणागत हूँ,
मेरी और मेरे धन की
रक्षा करो भगवन !

कुछ देर बाद
मंदिर की उन्हीं सीढ़ियों पर
नंगे पाँव दौड़ता एक सिपाही
अपनी बंदूख को अदब से
परिसर के बाहर टिका कर
दाखिल हुआ भीतर और बोला-
मुझे शक्ति दो प्रभु,
कि  मैं दुष्टों और आतताइयों से
रक्षा कर सकूं
तुम्हारे भक्तों की जान और
उनके माल की !

जारी है जंग इस तरह
हमेशा, हर-एक के बीच
देखें, ईश्वर किसका है?

Wednesday, June 20, 2012

सोमालिया,कांगो,सूडान,चाड और ज़िम्बाब्वे केवल अफ्रीका के दाग नहीं हैं

देश केवल नक़्शे नहीं होते। नक़्शे के भीतर बसे नागरिक और उनकी जिंदगी मिलकर ही देश बनाती है। एक देश दूसरे देश की सरहद के भीतर भी झांकता है, संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं पूरे ग्लोब पर नज़र रखती हैं। ऐसे में एक ही महाद्वीप के पांच देश यदि संसार के सबसे पिछड़े मुल्क साबित होते हैं, तो इसे केवल उसी महाद्वीप के लिए चुनौती नहीं माना जा सकता। इसकी कालिख बहुत से चेहरों पे पुतती है।
जिस तरह एक आदमी भूख से मरता है तो उसका पूरा गाँव, शहर या देश शर्मसार माना जाना चाहिए। मनुष्यता शर्मसार मानी जानी चाहिए, सभ्यता शर्मसार मानी जानी चाहिए, विकास शर्मसार माना जाना चाहिए।
     पकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को पद से हटा दिया। कहा गया है कि  कोर्ट ने यह फैसला इसलिए किया कि  प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचारियों पर कार्यवाही नहीं की थी।
     ओह, अच्छा, कार्यवाही करनी होती है???

Tuesday, June 19, 2012

मुद्दा

     जैसे ही सुबह हुई बाग़ में से ओस की बूँदें वापस आसमान की ओर  लौटने लगीं। एक क्यारी में फूल खिल गए। एक फूल ने दूसरे  की ओर  देखा, और बोला- "आज तेरे चेहरे पर चमक नहीं है?"
     दूसरे फूल को यह बात अपना अपमान लगी। वह लापरवाही से बोला-" यहाँ आइना नहीं है न, इसी से तू जो चाहे बोल ले। आइना होता तो तुझे भी तेरी असलियत  पता चलती।"
     दोनों की नोक-झोंक सुन कर एक कली बोली-" एक नई और खूबसूरत सुबह का स्वागत करने के लिए तुम्हारे पास कोई और तरीका नहीं है?"
     तभी एक भंवरा गुनगुनाता हुआ उधर से निकला, लेकिन वह किसी भी फूल पर बैठा नहीं, मंडराता हुआ गुज़र गया। थोड़ी ही देर में बंगले की मालकिन भी अपने छोटे बच्चे के साथ  घूमती-घूमती उधर आ निकली। वह चिल्ला कर अपने नौकर से बोली- " फूलों को अच्छी तरह धोकर टेबल पर सजाना, आजकल माली कीट-नाशक  बहुत डालने लगा है।"
     उसके चले जाने के बाद,कली फूलों से  फिर से बोल पड़ी-"चुप क्यों हो गए ... बोलो,बोलो ... बात तो तुम मुद्दे की कर रहे थे। "  

Monday, June 18, 2012

प्रियावरण [लघुकथा ]

     वे दिल की अतल गहराइयों से एक दूसरे को चाहते थे। वे रोज़ मिलते।
     मिलने की जगह भी तय थी। गाँव के समीप बहती नदी के तट पर बने मंदिर के बुर्ज़ पर। अँधेरी, तंग, काई लगी पुरानी  सीढ़ियों से होकर, वहां उनके सिवा कभी कोई और न आता।
     एक दिन चन्द्रमा के हलके उजाले में युवती ने युवक से कहा- तुम कुछ दिन के लिए यहाँ से कहीं चले जाओ।
     युवक तो प्रेमिका की हर बात पर जान देने के लिए तत्पर रहता ही था, फिर भी जिज्ञासा-वश पूछ बैठा-"क्यों?"
     युवती ने कहा, मैं विरह का सुख देखना चाहती हूँ।
     युवक को ठिठोली सूझी, बोला- विरह में सुख नहीं, वेदना होती है।
     युवती ने कहा- जब तक खुद न देख लूं, सुख है या वेदना, केवल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर क्या कह सकती हूँ।
     युवक ने युवती का चेहरा अपनी हथेली से आसमान की ओर  उठाया और कहा- देख लो धरती के लिए तरसते चन्द्रमा को !
     युवती उपेक्षा से बोली- आँखों देखी और दिल से महसूस की गई बात में बड़ा अंतर होता है !
     युवक ने युवती के हठ  को टालने का एक प्रयास और किया, बोला-कहीं किसी ऐसे रास्ते पर मत निकल जाना जहाँ से लौट न सको।
     -बहाने मत बनाओ ! युवती के ऐसा कहते ही युवक बुर्ज़ की मुंडेर पर चढ़ा, और नीचे गहरे पानी में छलांग लगा दी।
     युवती स्तब्ध रह गई।
     कई दिन बीत गए। युवती वहां रोज़ उसी तरह आती रही। युवक की याद में नदी के पानी के छींटे आँखों पर मारती, और फिर बुर्ज़ पर चली आती।
     कई दिनों तक जंगलों और पहाड़ी बस्तियों की ख़ाक छानने के बाद, एक दिन युवक लौट आया।
     जब दोनों मिले, तो दोनों की आँखों में आंसू थे, आँखें  इस तरह लाल थीं, जैसे दोनों कई दिनों से सोये न हों।
     लड़के ने अपने हाथ से युवती का चेहरा उठाया, और पूछा, अब तो देखली तुमने विरह-वेदना,मुझे भी बताओ  कैसी होती है !
     युवती गुस्से से तमतमा गई, बोली-" बेवफा,बेशर्म,पत्थरदिल,धोखेबाज़, तुझे नहीं हुई विरह-वेदना ?"

Sunday, June 17, 2012

मौसम सजने का

     जिस तरह अपने समय पर बागों में फूल आते हैं, पर्वतों पर बर्फ की चादर आती है, उसी तरह देश के मस्तक पर किसी मुकुट की तरह एक 'राष्ट्रपति' आता है। वही मौसम है आजकल।
     जिस तरह पौधा रोपे जाते समय माली का दिल हिलोरें लेता है,ठीक उसी तरह राष्ट्रपति नामित करने में सक्षम लोग अपनी क्षमता के उन्माद में हिलोरें लेते हैं। हर कोई अपना उम्मीदवार इस तरह घोषित करता है, मानो मंडी में खड़ा  होकर अपनी-अपनी पसंद की सब्जी चुन रहा हो। दस बीस मवेशियों के गडरिये भी जंगल का "अपना" राजा  बड़ी शान से घोषित करते हैं।
     चुने गए गुलदस्ते में सब तरह के फूल हैं। ऐसे भी, जो खराब ऋतु में तेज़ी से महक कर फिजा बदलने की कुव्वत रखते हैं, ऐसे भी, जो जिंदगी भर भागते-भागते बेदम होकर अब  सुस्ताना चाहते हैं।ऐसे भी, जो आड़े वक्त में काम आये थे, और ऐसे भी, जिनके चलते आड़ा वक्त आया था।
     राष्ट्रपति भवन में शहनाइयाँ बजने लगी हैं। इन शहनाइयों की फितरत भी निराली है, ये एक ओर  जहाँ प्रस्थान करने वाले का विदागीत हैं, दूसरी ओर आने वाले का स्वागत-गीत भी। इतना ही नहीं, ये एक सौ बीस करोड़ लोगों के हुजूम के सामने तमाशे से पहले की डुगडुगी भी है। बहरहाल, ये एक 'महामहिम' के लिए बन्दनवार सजने का आलम भी है।        

विदेशी ज्ञान [ लघु-कथा]

   प्रबंधन के प्रोफ़ेसर 'क्वालिटी-सर्किल' के बारे में पढ़ा रहे थे। बोले- "इसे गुणवत्ता समूह कहते हैं। इसमें किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए कार्यकर्ताओं व साधनों का ऐसा समूह बनाया जाता है, जिसमें सभी गुणों व संभावनाओं का समावेश होता है, ताकि इनके प्रयोग से कार्य में निश्चित सफलता प्राप्त हो। यह जापानी अवधारणा है, इसे अमेरिकी कम्पनियां भी अपने काम में उपयोग में लाती  हैं, फ़्रांस ने हर क्षेत्र में बड़ी सफलता इसी से पाई, जर्मनी और इटली ने इसे काफी पहले अपना लिया, रूस ने ..."
   एक छात्र बोला- सर, इसका कोई उदाहरण देकर बताइये, ताकि हमें अच्छी तरह समझ में आ जाये।
   प्रोफ़ेसर बोले- जैसे ...जैसे ...वन में सीता के अपहरण के बाद राम के लिए उन्हें ढूंढना एक बड़ी चुनौती थी। उन्होंने इसके लिए बाली, सुग्रीव, हनुमान, जामवंत, अंगद आदि सभी विशेषताओं वाले सहयोगियों को चुना, हर दिशा में समर्थ लोगों को भेजा गया, ताकि सीता कहीं भी, किसी भी दिशा में हों, उनका पता अवश्य  लगे और असफलता का प्रतिशत शून्य रहे।
   छात्र इस 'विदेशी-ज्ञान' पर चकित हो रहे थे, और झटपट पढ़ाई  पूरी करके इन देशों में जाने का सपना देख रहे थे।  

Saturday, June 16, 2012

आखिर अब तो मानेंगे कि होता है 'पुनर्जन्म'

     निक वालेंदा ने जो कर दिखाया, वह उत्कट जिजीविषा के बिना संभव नहीं था। वे जब नायग्रा फाल्स के सीने को चीरते हुए पैदल अमेरिका से कनाडा जा रहे थे, तो ज़मीन पर डेढ़ लाख और मीडिया के माध्यम से कई करोड़ लोगों के अलावा हजारों लोग ऐसे भी थे, जो आसमान से, अलग-अलग नक्षत्रों से उन्हें देख रहे थे। ये वे लोग थे, जो दुनिया से जीकर जा चुके थे, लेकिन अब भी दुनिया की बातों में दिलचस्पी रखते थे, क्योंकि दुनिया ने इनके जीते जी इनके सपने पूरे कर पाने में बहुत देर कर दी।
     इन्हीं लोगों में कारी भी थे। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि  हर तरफ गौर से देखने के बावजूद "किन्जान" कहीं नहीं दिखे। आसमान पर, या और किसी भी नक्षत्र पर नहीं। इसी से मुझे लगता है, हो न हो, पुनर्जन्म की बात में कुछ तो है। "निक" ही किन्जान हैं। आखिर उन्होंने "सूखी धूप  में भीगा रजतपट" पार कर ही लिया।
     अब कम से कम किन्जान की रूह तो किसी सैलानी को परेशान नहीं करेगी। किन्जान का तर्पण कर देने के लिए निक  को करोड़ों बधाइयाँ ...
"समय  तू  धीरे-धीरे  चल, चाहे  जल्दी-जल्दी चल
जो सपना देखेगा इंसान, हकीकत होगा ही वो कल" 

क्या आप एक बच्चे की मदद करेंगे?

   एक बच्चा पूरे मनोयोग से किसी तालाब के किनारे बैठा एक छोटे बर्तन से बाल्टी में पानी छान-छान कर भर रहा था। उसके तन्मय मन में केवल यह ख्याल था कि  उसे तालाब के मटमैले पानी से पीने योग्य एक बाल्टी पानी कपड़े  से छान कर अपने घर ले जाना है।
   इसी बीच किसी ने एक गिलास बिना छना पानी कपड़ा हटा कर उस बाल्टी में मिला दिया और जाते-जाते बच्चे को हिदायत दी कि  अब वह अपना काम चुपचाप करता रहे। 
   ऐसे में बच्चे के सामने यही कुछ विकल्प थे- 
-वह अपना काम पूर्ववत करता रहे। 
-वह पूरा पानी फेंक दे, और दोबारा सारा उपक्रम शुरू करे। 
-वह यह सारा झमेला छोड़ कर वापस घर चला जाये। 
-वह किसी समर्थ व्यक्ति से उस आदमी की शिकायत करे जिसने पीने के पानी के साथ यह खिलवाड़ किया। 
-वह गन्दा पानी डाल देने वाले व्यक्ति को समझाने की कोशिश करे, कि  उसके इस कदम का प्रभाव क्या होगा। 
   क्या आप बता सकते हैं कि  वह बच्चा क्या करे? 

Friday, June 15, 2012

समेटती है पंख धूप-"धूप में "

गंध जो फैली, तुलसी के आँगन में
बहती पवन भी
लहराके छितराई धूप  में

मौसम-प्रशासन ने जल्दी से भेजा
बदली को अम्बर में
फिर से बरसने को धुंधलाई धूप  में

 ठाकुर जी महके घी की उनाई  से
बाती  भी  चहकी लरजती
मुरझाई धूप  में

लड्डू प्रसाद के उतरे हलक में
जिस-तिस पे बरसी असीसें
गमखाई  धूप  में

तितली से भंवरे ने बोल दो बोले
फूलों ने जी से लगाया
बलखाई धूप  में

सावन ने लहराके अम्बर की नाव करी खाली
भादों को आना था खेत में
कुम्हलाई धूप  में

सपनों पे रंग छितराए रिश्तों के कण-कण चमके
रेत  में हीरों से आँखों के जोहड़ भी उफने
पपड़ाई धूप  में

किरणें जो टपकीं रूप से चंदा के
देहरी में क्यों रहती लाजो,आया था सोलहवां
फगुनाई धूप  में

मारा जो पनघट पे कंकड़ रूप ने,आँगन में रम गई  रंगोली
हल्दी का सुर्ख हुआ चेहरा
अलसाई धूप  में !

Thursday, June 14, 2012

[उगते नहीं उजाले [इक्कीस ] अंतिम भाग

     तभी लाजो के घर का दरवाज़ा खड़का। बख्तावर और दिलावर एक साथ ताली बजाते हुए अन्दर दाखिल हुए। दिलावर ने कहा- वाह, क्या जुगलबंदी है? आज तो लाजो बुआ कव्वाली गा रही हैं। क्या आवाज़ है।
       उन दोनों को देखते ही लाजो पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। उसे लगा कि  गीत गाने से आज उसकी तपस्या  फिर बेकार हो गई। वह भूखी तो थी ही, गुस्से में बगुले, खरगोश और झींगुर, तीनों पर झपट पड़ी। बोली- मैं तुम तीनों को खाऊँगी।
     बगुला झट से पंख फड़फड़ा कर छत पर जा बैठा। झींगुर भी उड़कर दीवार के एक छेद  से झाँकने लगा। खरगोश तो था ही चौकन्ना, झट एक बिल में घुस गया। तीनों हंसने लगे। लाजो लोमड़ी हाथ मलती रह गई। फिर खिसिया कर बोली- अरे मैं तो  मजाक  कर रही थी। आजाओ  तुम तीनों, मैं अभी खीर बनाती हूँ।
     तीनों में से कोई न आया। लोमड़ी खीज कर वहां से जाने लगी। पीछे से हँसते हुए बगुला बोला- "वो देखो, चालाक  लोमड़ी जा रही है!" खरगोश ने कहा-"शायद यहाँ के अंगूर खट्टे हैं!"
     तभी पेड़ से उड़कर मिट्ठू प्रसाद भी वहां आ बैठे। वे बुज़ुर्ग और अनुभवी थे। बोले- " देखो बच्चो, लाजवंती बहन  अपनी छवि तो सुधारना चाहती थी, लेकिन अपने कार्य नहीं सुधारना चाहती थी। हमारी छवि हमारे कार्यों से बनती है। यदि हम अच्छे काम नहीं करेंगे तो हमारी छवि कभी अच्छी नहीं हो सकती। बुरे कर्म करके अच्छी छवि बनाने की कोशिश करना अपने आप को और दूसरों को धोखा देना है। ऐसा करके हम कभी जनप्रिय  नहीं हो सकते। छवि हमारे कर्मों का अक्स  है। छवि बनाई नहीं जाती, जैसे कार्य होते हैं, वैसी ही बन जाती है।
     उजाला उगता नहीं है। सूरज उगता है तो उजाला स्वतः हो जाता है। हाँ, समय बहुत शक्तिशाली है, यह सब-कुछ बदल सकता है, लेकिन तब, जब हम ईमानदारी से कोशिश करें।    [ समाप्त ]
[इस रचना को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का बीस हज़ार रूपये का 'सूर'पुरस्कार प्राप्त]   

Wednesday, June 13, 2012

उगते नहीं उजाले [बीस]

     बगुला भगत बोला- लो, मैं आज से ही मछली खाना छोड़ देता हूँ। पर मेरी भी एक शर्त है !मैं रोज़ तुम्हारे  घर आऊँगा। वहां जो कुछ भी हो, तुम मुझे भोजन करा दिया करना। आखिर तुम भी तो भोजन पकाती ही होगी?
     लाजो लोमड़ी एक पल को ठिठकी, पर और कोई चारा न था। उसे ये शर्त माननी ही पड़ी। बगुला भगत ने भी लाजो को वचन दे डाला कि  वह अब कभी मछलियाँ नहीं खायेगा।
     लाजो ख़ुशी से झूम उठी। उसे लगा कि  अब उसकी तपस्या ज़रूर पूरी होगी। ख़ुशी में वह यह भी भूल गई कि  वह सुबह से भूखी है। फिर भी वह प्रसन्न होती हुई अपने घर की ओर  चल पड़ी।
     आज उसने सोच रखा था कि  चाहे जो भी हो, कोई भी गीत उसे नहीं गाना है। वह मन ही मन दुहराने लगी-
-मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है...वह चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती हुई जा रही थी कि उसे कहीं दिलावर झींगुर न मिल जाये। वह जोर-जोर से बोल रही थी- मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है ...
     चलती-चलती लाजो घर पहुँच गई। वह बड़ी खुश थी कि  आज उसने कोई गाना नहीं गाया  था, और उसकी तपस्या पूरी होने वाली थी।
     लाजो ने ज्योंही अपने घर का दरवाज़ा खोला, वह भौंचक्की रह गई। सामने चौक में बगुला भगत बैठे थे, जो उड़कर उससे पहले ही वहां  पहुँच गए थे।
     लाजो उन्हें देखते ही सकपकाई। उसे ध्यान आया कि  अब तो बगुला भगत को भी भोजन कराना पड़ेगा। उधर खुद भूख के मारे उसका हाल बेहाल था। मगर फिर भी आज वह अपनी तपस्या निष्फल नहीं होने देना चाहती थी। वह जोर-जोर से बोलने लगी- मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है ...
     बगुला भगत भूख से व्याकुल था। उसे लाजो की रट  से खीज होने लगी। वह भी जोर-जोर से बोलने लगा- मुझे भूख लगी, खाना है? मुझे भूख लगी खाना है?
     दोनों की जुगलबंदी चलने लगी।
"मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे  गीत  नहीं गाना है
मुझे भूख लगी, खाना है, मुझे भूख लगी खाना है?"

[कल पढ़िए 'उगते नहीं उजाले' का अंतिम  इक्कीसवां भाग ] 
       

उगते नहीं उजाले [उन्नीस ]

     लाजो ने हठ  न छोड़ा।
     आज लाजो लोमड़ी ने मन ही मन निश्चय किया कि  वह तालाब के किनारे जाकर बगुला भगत से मिलेगी। उसने सुन रखा था कि  सारे जंगलवासी बगुला भगत को पाखंडी कह कर उसका मज़ाक उड़ाते हैं, क्योंकि वह एक टांग  से पानी में खड़ा होकर दिनभर  मछलियाँ खाता है।
     उसने सोचा, वह बगुला भगत से मिलकर उसे समझाएगी कि  वह मछलियों को न खाया करे। जिस तालाब में वह रहता है उसी की मछलियों को खाना भला कहाँ का न्याय  है।
     भगत मछली खाना छोड़ देगा तो फिर जंगल में उसे कोई भी बुरा न कहेगा। इससे बगुला भगत की छवि अच्छी हो जाएगी, और फिर मूषकराज  के वरदान के अनुसार लाजो की अपनी छवि भी सुधर जायेगी। सब लाजो की तारीफ़  करेंगे और उसका जीवन सफल हो जायेगा।
     लाजो यह भी जानती थी कि  दूसरों की भलाई करने के बाद अपनी तारीफ़ में गाना गाने से उसका काम कई बार बिगड़ गया था। उसने मन ही मन ठान लिया कि  आज चाहे कुछ भी हो जाए, वह लौटते समय गाना नहीं गाएगी। इस तरह उसकी तपस्या पूरी होगी और उसकी तपस्या का फल मिल जाएगा।
     सुबह तड़के  ही लाजो बड़े तालाब की ओर  चल दी। उसे ज्यादा पूछताछ नहीं करनी पड़ी। बगुला भगत उसे किनारे पर ही खड़ा मिल गया। वह चुपचाप खड़ा  होकर ध्यान  लगा रहा था, ताकि उसे संत -महात्मा समझ कर मछलियाँ उसके पास आ जाएँ, और फिर वह तपाक से झपट्टा मार कर उन्हें खा डाले।
     लाजो सही समय पर पहुँच गई। उसे देखते ही भगत प्रणाम करता हुआ किनारे चला आया। हाथ जोड़ कर बोला- कहो मौसी, आज इधर कैसे आना हुआ? बगुला भगत को थोड़ी शंका भी हुई, क्योंकि उसने पंचतंत्र के दिनों में लोमड़ी द्वारा अपने चचेरे भाई लल्लू सारस को खीर की दावत के बहाने बुलाने और धोखा देने की कहानी "जैसे को तैसा" भी सुन रखी थी।
     लाजो ने झटपट उसे अपने आने का कारण  बता डाला। बोली- तुम आज से मछलियाँ खाना छोड़ दो, तो तुम्हारी बहुत प्रशंसा होगी। मुझ पर भी उपकार होगा।
     भगत हैरान रह गया। फिर भी बोला- अरे मौसी, इतनी सी बात? [जारी]

Tuesday, June 12, 2012

उगते नहीं उजाले [अठारह ]

     छन्नू गिरगिट तो यह भी नहीं जानता था कि  रंग लगा कर लाजो लोमड़ी ने किस तरह उसकी भलाई की है, इसलिए लाजो ने ज्यादा रुकना मुनासिब नहीं समझा। छन्नू ने लाजो को खूब मीठे-मीठे बेर खिलाये।
     लाजो मस्ती में झूमती घर वापस जा रही थी, कि  रास्ते में खूब सारे मोहल्ले वाले नाचते-गाते मिल गए। लाजो ने भी जम के ठुमके लगाए। ताली बजा-बजा कर चुहिया अनुसुइया गीत गा रही थी। अनु की आवाज़ बड़ी मीठी थी, सब उसका साथ दे रहे थे-

"रंग-रंगीली  होली  आई,  उड़ें  रंग   के   रंग   तमाम
किसने किसके रंग लगाए, पक्के, बोलो उसका नाम!"

     लाजो नाचती-नाचती हांफ गई थी, फिर भी ऊंचे स्वर में गा उठी-

"रंग बदलने वाले का जो, कर के आई पक्का काम
सारे  उसको लाजो कहते, लाजवंती  उसका  नाम !"

     लाजो का गीत सुनकर सब ख़ुशी से नाचने लगे। भीड़ से निकल कर दिलावर झींगुर  सामने आया, और लाजो के गुलाल लगाता हुआ बोला- होली मुबारक बुआ ! वाह, क्या गीत गाया।
     दिलावर को देखते ही लाजो जैसे आसमान से गिरी। नाचते-नाचते पाँव  के नीचे से ज़मीन ही निकल गई। होली का सारा मज़ा किरकिरा हो गया। लाजो धप्प से ज़मीन पर ही बैठ गई। दिलावर उछल कर सामने आया, और बोला- अरे बुआ जी, तुम तो नाच-गा कर इतना थक गईं। चलो, मेरे घर चलो, शकरकंद के छिलके के चिप्स खिलाऊंगा। ख़ास तुम्हारे लिए बनाए हैं मेरी घरवाली ने। कहती थी, बुआ जी को ज़रूर लाना दावत पर। [जारी ] 

Monday, June 11, 2012

उगते नहीं उजाले [ सत्रह ]

     लाजो लोमड़ी जानती थी कि  समझाने-बुझाने से तो गिरगिट बाबू मानने वाले हैं नहीं। उनसे  यह कहने का कोई लाभ नहीं था कि वह रंग न बदला करें।
     लाजो को एक ही रास्ता नज़र आया, कि  वह बाज़ार से पक्के रंग का कोई डिब्बा ले आये, और गिरगिट  छन्नू-मियां को रंग दे !फिर बार-बार रंग बदलने का झंझट ही ख़त्म।
     पर अब दो उलझनें थीं। एक तो यह , कि  लाजो रंग के लिए पैसे का बंदोबस्त कैसे करे, और दूसरी, रंग लगाया कैसे जाए। क्योंकि गिरगिट मियां इतने सीधे तो थे नहीं कि  चुपचाप  अपना शरीर रंगवा डालें। जोर जबरदस्ती लाजो करना नहीं चाहती थी। सेवा-पुण्य का  काम ठहरा। किसी को सुधारने का यह कौन सा तरीका था, कि  उससे जबरदस्ती ही की जाए। लाजो तो सबको खुश रखना चाहती थी।
     कुछ भी हो, लाजो नसीब की बड़ी धनी थी। आज होली का त्यौहार निकला। लो, सुबह से उसका ध्यान ही नहीं गया। दूर से ढोल-नगाड़ों की  आवाजें आ रही थीं। दोपहर में जंगल-भर में रंगारंग होली शुरू होने वाली थी।
     हो गया काम ! अब भला लाजो को क्या परेशानी। गिरगिट मियां को रंग डालने का अच्छा बहाना मिल गया। लाजो ने सोचा, हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आएगा।
     उधर जैकी-जेब्रा का बेटा एशियन पेंट्स की फैक्ट्री में माल ढोने  के लिए लगा हुआ था, वही रंग का एक डिब्बा लाजो बुआ को उपहार में दे गया।
     लाजो चल दी छन्नू-गिरगिट से होली खेलने। वह सोचती जा रही थी, आज गिरगिट पर ऐसा पक्का रंग चढ़ायेगी कि  मियां तरह-तरह के रंग बदलना ही भूल जायेंगे। फिर कोई नहीं कह सकेगा कि   "क्या गिरगिट की तरह रंग बदलते हो?" सुधर जाएगी छवि गिरगिट की।
     त्यौहार होने का यह लाभ हो गया लाजो को, कि  नाश्ता-पानी घर में नहीं बनाना पड़ा कुछ। अब आज तो जहाँ जाये, पकवान मिलने ही वाले थे। छन्नू कोरा होली खेलकर थोड़े ही छोड़ देता  लाजो भौजी को? खातिरदारी तो करनी ही थी। लाजो होली खेली, और खूब जमके खेली।
     सर से  लेकर पूंछ तक लाल ही लाल कर छोड़ा गिरगिट बाबू को। गिरगिट जी तो बेचारे यह भी नहीं जान पाए कि  अब कितना भी रगड़-रगड़ कर नहायें, यह रंग नहीं छूटने वाला। [ जारी ]

Sunday, June 10, 2012

उगते नहीं उजाले [सोलह ]

     लाजो ने हठ  न छोड़ा।
     आज उसे दिलावर पर भी क्रोध आ रहा था, जो बार-बार उसे गाने के लिए उकसाकर उसकी तपस्या निष्फल कर देता था। वह मूषकराज के प्रति भी ज्यादा खुश न थी। उसे लग रहा था कि  उन्होंने लाजो को कठिन परीक्षा में फंसा दिया है। किन्तु जल्दी ही लाजो संभल गई। उसने सोचा, देवता पर संदेह करना उचित नहीं है। वे इससे कुपित  होकर कोई अनिष्ट भी कर सकते हैं। वह सहम कर रह गई।
     किन्तु लाजो इतनी आसानी से हार मान कर बैठ जाने वाली नहीं थी। वह भी जीवट वाली  लोमड़ी थी। उसने सोचा कि  वह अबकी बार पूरी सावधानी रखेगी, और अपना तप  भंग न होने देगी।
     लाजो आज छन्नू गिरगिट के मोहल्ले में जाना  चाहती थी।
     छन्नू गिरगिट की भी कम फजीहत न थी। लोग कहते थे कि  वह रंग बदलने में माहिर है, इसीलिए उस पर कोई ऐतबार नहीं करता। भला ऐसे लोगों पर कौन यकीन करे जो पल में तोला , पल में माशा। यानि कभी कुछ और कभी कुछ। ऐसों को तो बिन-पेंदी का लोटा ही कहा जायेगा !
     गिरगिट घने पेड़ों वाले बगीचे में रहता था। कभी  हरा  रंग  बना  कर टिड्डों के पास पहुँच जाता, और उन्हें धड़ाधड़  खाने लग जाता। तो कभी तुरत-फुरत केसरिया रंग का होकर नारंगी के पेड़ पर पहुँचता, और आराम से बैठ कर खट्टा-मिट्ठा रस पीने लग जाता।
     बाग़ के माली को नारंगी पर बैठा गिरगिट दीखता ही नहीं, वह भला उसे कैसे पहचाने?और पहचाने ही नहीं, तो भगाए कैसे? मुसीबत थी।
     छन्नू को भूरा रंग बदलने में भी देर नहीं लगती। जब कोई मारने आये तो भूरा रंग धारण करके मिट्टी  में दौड़ना शुरू। अब मिट्टी  में भूरा गिरगिट कौन पहचाने ? बस, मारने वाला लाठी पीटता रह जाता, और छन्नू मियां रफूचक्कर!
     कितनी बदनामी होती थी। लोग दगा करने वाले से कहते- "क्या गिरगिट की तरह रंग बदलता है।"
     लाजो को यह सब जरा न भाया। उसने तय कर लिया कि  वह गिरगिट की छवि बदलकर ही रहेगी।
     पर अब सवाल ये था कि  छवि बदले कैसे? [ जारी ]   

Saturday, June 9, 2012

उगते नहीं उजाले [पंद्रह ]

     लाजो लोमड़ी को इस बात की ख़ुशी थी  कि  भैंस कृष्णकली को अब  कोई बुद्धू न कह सकेगा। जब लाजो लौटने लगी तो कृष्णकली ने उससे कहा- बहन, मैंने तो सुना है कि  विद्यालय में बच्चों को पढ़ाते समय उनसे प्रार्थना भी करवाई जाती है। तुमने तो मुझसे कोई प्रार्थना करवाई ही नहीं।
     अरे हाँ, वह तो मैं भूल ही गई। लाजो चहकी।
     तभी लाजो व कृष्णकली  एक साथ चौंक पड़ीं। कृष्णकली के खूंटे से कोई आवाज़ आ रही थी। दोनों ने एक-साथ उधर देखा, जैसे खूंटा गा रहा हो-

"हम सब पढ़-लिख जाएँ जग में, जन-जन का होवे सम्मान
जिसने  हमको  ज्ञान  दिया है, बोलो  क्या  है  उसका  नाम?"

     कृष्णकली आश्चर्य से खूंटे की ओर  देख ही रही थी कि  लाजो ऊंचे स्वर में गा उठी-

"ज्ञान-दीप की बाती बनकर, जो आती है सबके धाम
सारे  उसको  लाजो कहते,  लाजवंती  उसका   नाम !"

     लाजो का गीत सुनकर कृष्णकली बड़ी खुश हुई। वह ख़ुशी से अपनी पूंछ हिलाने लगी। तभी खूंटे से उड़ कर दिलावर झींगुर कृष्णकली की पूंछ पर बैठ गया।
     दिलावर को देखते ही लाजो के होश उड़ गए। लाजो को अपनी भूल का अहसास हो गया। पर अब हो ही क्या सकता था? वह कृष्णकली को अलविदा कहे बिना ही गर्दन झुका कर अपने डेरे की ओर  लौट पड़ी।
     दिलावर उसकी पीठ पर बैठ कर उसके साथ ही घर वापस आया। लाजो ने उस रात खाना तक न खाया। रात गहरी हो चली थी। [जारी] 

उगते नहीं उजाले [ चौदह]

     बख्तावर खरगोश ने कभी लाजो लोमड़ी को बताया था कि  आजकल के बच्चे कॉपी- किताब से पढ़ाई नहीं करते। उन्हें सब-कुछ टीवी-कंप्यूटर से सिखाया जाता है। इससे बैठे-बैठे मनोरंजन भी होता रहता है, और आसानी से पढ़ाई भी। हाँ, बस एक खतरा रहता है कि  आँखों पर बचपन में ही चश्मा लग जाता है।
     लाजो ने सोचा कृष्णकली को पढ़ाने का यही तरीका सबसे अच्छा रहेगा। चश्मा लगे तो लगे। कृष्णकली को चश्मा लगाने में कहाँ दिक्कत थी। लम्बे-लम्बे घुमावदार सींग थे, एक क्या दस चश्मे लग जाएँ।
     लाजो ने बैठे-बैठे ही सपना देखना शुरू किया- "वह कृष्णकली को पढ़ाने गई है। वह एक प्यारा सा टीवी और नन्हा सा कंप्यूटर लेकर कृष्णकली के सामने बैठी है। कृष्णकली भैंस एक अच्छी बच्ची की तरह सब कुछ याद कर-कर के सुना रही है। फिर वापस आते समय कृष्णकली ने ढेर सारे दूध की मलाईदार खीर लाजो को दी है। लाजो ने भरपेट  खाई है, और जो बची उसे एक बर्तन में साथ लेकर वापस आ रही है।"
     तभी लाजो जैसे नींद से जागी। उसका सपना टूट गया। उसने देखा, कि  उसके मुंह से पानी टपक-टपक कर  ज़मीन को भिगो रहा है। लाजो शरमा गई। उसने जल्दी से इधर -उधर देखा कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा। फिर पैर से फ़टाफ़ट ज़मीन साफ करने लगी।
     लाजो का भाग्य  आज बड़ा प्रबल था। वह बैठी सोच ही रही थी कि  गली में एक टीवी बेचने वाला आया। उसके कंधे पर एक झोला टंगा था जिसमें छोटे-छोटे कंप्यूटर भी थे।
     बेचने वाला बड़ा भला था। वह बोला, यदि लाजो किसी की जमानत दिला सके तो वह सौदा उधार भी कर सकता है। ऐसे में लाजो का पड़ौसी  बख्तावर खूब काम आया। सब झटपट हो गया।
     भैंस कृष्णकली के तो ख़ुशी के मारे पाँव ही ज़मीन पर न पड़ते थे। जब उसे पता लगा कि  लाजो लोमड़ी उसे पढ़ा-लिखा कर बुद्धिमती बनाना चाहती है तो उसने हुलस कर  लाजो को गले से लगा लिया।
     उसे पढ़ाकर लाजो लौटने लगी तो कृष्णकली ने उसे बताया कि  वह एक बच्चे को जन्म देने वाली है, इसलिए वह आजकल दूध नहीं दे रही। उसने लाजो को बिना दूध की चाय पिलाई। खूब कड़क। [जारी] 

Friday, June 8, 2012

उगते नहीं उजाले[तेरह]

     लाजो ने हठ  न छोड़ा। वह हताश थी पर निराश नहीं थी।
     उसे कठिन तपस्या के बाद मूषकराज से यह वरदान मिला था कि  यदि वह जंगल के ऐसे सभी जानवरों की सेवा करेगी, जिनकी छवि लोगों के बीच खराब है, तो उसकी अपनी छवि भी सुधर कर अच्छी हो जायेगी। और पंचतंत्र के ज़माने से उसे जो लोग धूर्त, मक्कार और चालाक समझते हैं, वे भी उसे भली, दयालु और ईमानदार समझने लगेंगे।
     पर मूषकराज ने यह भी कहा था कि  किसी की सेवा करने के बाद वह किसी भी कीमत पर गाना न गाये। यदि वह ऐसा करेगी तो उसकी तपस्या का फल न मिलेगा।
     कठिनाई यह थी, कि  लोमड़ी लाजवंती किसी की सेवा करने के बाद अपनी ही प्रशंसा में गीत गा उठती थी, और उसकी मेहनत  निष्फल हो  जाती थी।
     लाजो ने सोचा, वह तो फिर भी  एक  लोमड़ी है, उससे भी छोटे-छोटे कई जीव कई बार परिश्रम करके सफलता पाते हैं। उसने खुद अपनी मांद  में देखा था, नटनी  मकड़ी कितनी मेहनत  से रहने के लिए अपना जाला बुनती थी। नटनी  असंख्य  बार गिरती, परन्तु बार-बार उठकर फिर से कोशिश में जुट जाती। तब जाकर कहीं जाला बना पाने में सफल होती थी।
     भला लाजो नटनी  से कम थोड़े ही थी। उसने निश्चय किया कि  वह असफलता से नहीं घबराएगी, और एक बार फिर जनसेवा के अपने इरादे के साथ निकलेगी।
     आज उसने कृष्णकली से मिलने का मानस बनाया। कृष्णकली भारी-भरकम भैंस थी, जो ज्यादा समय जुगाली में ही गुजारती थी। उसका शरीर जितना विशाल  था, बुद्धि उतनी ही छोटी। शायद उसी के कारण  जंगल में यह चर्चा चलती थी, कि  अक्ल  बड़ी या भैंस !
     कृष्णकली को कुछ भी समझाना लोहे के चने चबाने जैसा था। बचपन में उसे पढ़ाने मास्टर मिट्ठू प्रसाद कई बार आये, पर हमेशा अपनी तेज़ आवाज़ में उसके आगे बीन बजा कर ही चले गए। कृष्णकली कुछ न सीखी। उसे तो बस दो ही चीज़ें प्रिय थीं, हरी-हरी घास और तालाब का मटमैला पानी। हाँ, दूध देने में कृष्णकली कभी कंजूसी न करती।
     लाजो ने सोचा, यदि इस कृष्णकली में थोड़ी भी बुद्धि आ सके तो उसकी छवि सुधर जाए। उसने कृष्णकली की सेवा करने को कमर कस  ली, और उसकी मदद को दिमाग दौड़ाना  शुरू कर दिया। [जारी] 

Wednesday, June 6, 2012

उगते नहीं उजाले[बारह]

     सामने से झुमरू बैल अपनी गाड़ी खींचता चला आ रहा था। लाजो ऐसा मौका भला कैसे छोड़ती ? झट सवार होली। झुमरू अपनी धुन में चला जा रहा था। हिचकोले खाती लाजो भी चल पड़ी। लाजो की आँखें नींद से बोझिल हो रही थीं। सहसा लाजो ने एक मधुर सी स्वर-लहरी सुनी। कोई गा रहा था-
"कौन भला गाड़ी पर चढ़कर, चला ठुमकता अपने गाँव
किसने सबका भला किया है, क्या है बोलो उसका नाम?"
     लाजो का गला जामुन खाने से ज़रा बैठा हुआ था, फिर भी सपनों के लोक से निकल कर नूरी जैसे ही स्वर में गा उठी-
"निकली वो सेवा करने को, सेवा करना उसका काम
सारे  उसको  लाजो  कहते, लाजवंती  उसका  नाम "
     लाजो को झूम-झूम कर गाते देख कर  झुमरू ने गर्दन घुमा कर देखा।  झुमरू बोला- वाह  लाजो बहन, तुम तो मेरे कोचवान के संग सुर मिला कर बड़ा सुरीला गा रही हो?
     कोचवान, कौन कोचवान? यहाँ तो कोई नहीं दिखाई देता।
     अरे, दिखाई कैसे देगा? मेरे कान में जो घुसा बैठा है। झुमरू के यह कहते ही उसके कान से कूद कर दिलावर झींगुर बाहर आया, और बुलंद आवाज़ में बोला- चलो बुआ जी, गाना बंद करो, अब घर आ गया।
     दिलावर को देखते ही लाजो ने सर पीट लिया। आज फिर उसकी तपस्या पर पानी फिर गया था। दिलावर झुमरू से कह रहा था, चाचा, लाजो बुआ से पैसा मत लेना। देखो, कैसा मीठा गीत सुनाया है। कह कर दिलावर जोर-जोर से हंसने लगा। लाजो नीची गर्दन करके चुपचाप घर के भीतर चली गई। [जारी]

Tuesday, June 5, 2012

उगते नहीं उजाले [ग्यारह]

     लाजो विचारमग्न बैठी ही थी कि  तभी मटकती हुई लोलो गिलहरी वहां आ गई। लाजो ने अपनी चिंता उसे बताई। लोलो इठलाती हुई बोली, बुआ, मैं तो हर हफ्ते अपनी दुम  को ट्रिम कराने वहां जाती हूँ।
     -क्या कहा? तू दुम  कटा के आती है।
     -ओहो, कटा कर नहीं, ट्रिम कराके! बारीक काट-छांट से सुन्दर बनाकर। लोलो ने शान से कहा।
     लाजो ईर्ष्या से भड़क उठी। यह पिद्दी सी गिलहरी वहां हमेशा जाती है? और लाजो को पता तक नहीं। लाजो को बड़ी खीझ हुई। खिसियाकर बोली- तो कौन सी बड़ी बात है, मुझे तो टाइम ही नहीं मिलता, नहीं तो मैं भी जाऊं।
     लाजो ने मन ही मन यह ठान लिया कि  यही ठीक रहेगा। वह अपनी दुम  की शेप सुधरवाने ब्यूटी-पार्लर में  जाएगी, और मौका ताक  कर वहां से  नूरी के लिए तरह-तरह के सौन्दर्य-प्रसाधन उठा लाएगी। उठाई-गीरी  में तो दूर-दूर तक कोई उसका सानी न था।
     उसने लोलो से कुछ रूपये उधार ले लिए और चल पड़ी।
     ब्यूटी-पार्लर को भीतर से देख कर लाजो दंग  रह गई। उसने शीशे के सामने तरह-तरह के पोज़ बना कर खुद को निहारा। वहां पड़ी बिंदी उठा कर अपने माथे पर लगा कर देखी। फिर मौका देख कर झट से अपने मुंह पर लाली भी लगा ली।
     लाजो लाज से दोहरी हो गई।
     थोड़ी ही देर में उसकी दुम  भी क़तर दी गई। वहां ऐसा पाउडर था, जिससे काला  रंग गोरा हो जाये। लाजो ने खूब सारा पाउडर नूरी के लिए छिपा कर रख लिया। लाजो जब बाहर निकली तो  पहचानने में भी नहीं आ रही थी। सब लेकर वह कोयल नूरी के यहाँ पहुंची।
     लाजो से इतने उपहार पा कर नूरी की आँखों में आंसू आ गए। वह ख़ुशी के आंसू थे। नूरी ने बुआ लाजो को जम कर जामुनों की दावत दी। जितनी मीठी नूरी की आवाज़, उतने ही मीठे वे रसीले जामुन। लाजो को ऐसा लगा कि  अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है।
     तीसरे पहर काफी सारे रसीले आम  खा कर लाजो ने नूरी से विदा ली।
      पेट इतना भर चुका  था, कि  लाजो को चलना दूभर हो रहा था। जैसे-तैसे आगे बढ़ी जा रही थी। लाजो ने सोचा, काश, कोई सवारी मिल जाये, तो कितना आनंद आ जाये।
     बिल्ली के भाग से छींका टूटा। [जारी]   

Monday, June 4, 2012

उगते नहीं उजाले [ दस]

     लाजो ने  हठ  न छोड़ा। अगली सुबह उसकी आँखों में फिर से आशा की किरण चमक उठी। उसने सुन रखा था कि  'गीता' में भी यही कहा गया है -कर्म ही प्रधान है, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। लाजो ने मूषकराज से जो वरदान पाया था, वह कड़ी तपस्या के बाद मिला था। लाजो उसे ऐसे ही व्यर्थ न जाने देना चाहती थी।
     उसने सोचा, ऐसे निराश होकर बैठने से काम नहीं चलेगा। उसे आज फिर बाहर जाकर किसी न किसी की मदद करनी चाहिए, ताकि किसी की बिगड़ी छवि सुधर सके।
     आज लाजो लोमड़ी को ध्यान आया बरगद के पेड़ पर रहने वाली कोयल नूरजहाँ का। नूरी कितना मीठा गाती  थी। बरगद के पेड़ पर तो बस उसका घर था। वह तो सुबह होते ही चहकती-फुदकती आमों के बाग़ में  आ जाती, और आमों जैसे ही मीठे रसीले गीत सबको सुनाया करती। लोग कहते, भई  गला हो तो कोयल नूरी सा।
     पर वही लोग पीठ -पीछे कहते, ये नूरजहाँ कितनी काली- कलूटी और कुरूप है। उसकी छवि जंगल- भर में एक बदसूरत गायिका की थी।
     खुद लाजो ने पहले कई बार नूरी का मज़ाक उड़ाया था। पर अब लाजो खुद को बदलना चाहती थी। वह चाहती थी कि  वह किसी तरह नूरी की मदद करे ताकि उसकी छवि बदल जाए और लोग उसके रंग-रूप के बारे में छींटा -कशी न कर सकें।
     लाजो ने ठान लिया कि  वह आज नूरजहाँ के पास ही जायेगी। वैसे भी नूरी को उसने बड़े दिन से देखा न था। वह नहा-धोकर जल्दी से निकलने की तैयारी में जुट गई।
     लाजो को खूब मालूम था कि  शहरों में ब्यूटी-पार्लर होते हैं। वह जानती थी कि  इनमें तरह-तरह की कारस्तानियाँ होती हैं। काले व भद्दे होठों को रंग कर लाल कर दिया जाता है। बालों का रंग काला, पीला, भूरा या हरा कर दिया जाता है। तरह-तरह के क्रीम-पाउडर से चेहरे की रंगत निखारी जाती है।
     लाजो ने सोचा, यदि उसे किसी ब्यूटी-पार्लर में जाने का मौका मिल जाए तो वह तरह-तरह का सामान नूरी के लिए उठा लाये।
     पर ब्यूटी-पार्लर में बिना किसी काम के घुसना टेढ़ी-खीर था। बाहर चौकीदार लकड़बग्घे का पहरा रहता था। [जारी]

उगते नहीं उजाले [नौ ]

     बसंती और दलदली ऐसा अनूठा उपहार पाकर फूले न समाये। उन्होंने झुक कर लाजो बुआजी के पैर छुए, और उनसे खाना खाकर ही जाने की जिद करने लगे। 
     खा पीकर लाजो जब घर लौटने लगी, दोपहर ढल रही थी। लाजो का सर गर्व से तना हुआ था। आज उसने दोनों बच्चों पर उपकार किया था। अब किसी की हिम्मत न थी कि  उन्हें धीमी चाल से चलने वाला कह सके। बुआ के दिए जूते जो उनके पास थे। 
     वह ऐसा सोच ही रही थी कि  उसका ध्यान सामने गया। एक पेड़ के नीचे काफी भीड़ इकट्ठी थी। लाजो से रहा न गया। वह भी भीड़ को चीरती पेड़ के नीचे पहुँच गई। देखा तो ख़ुशी से पागल हो गई। बसंती और दलदली दोनों अपने स्केटिंग वाले जूते पहन कर दौड़ते हुए तालाब से यहाँ तक आ गए थे, और सबको अपने जूते दिखा रहे थे। सब हैरानी से दोनों को दौड़ते-भागते देख रहे थे। 
     तभी पेड़ के तने से आवाज़ आई- 
"धीमी चाल छोड़ कर  सरपट, भागें अपने घोंघा राम 
किसने इनको ताकत दी ये, बोलो-बोलो उसका नाम "
     सबके सामने अपने गुणगान का ऐसा मौका लाजो भला कहाँ चूकने वाली थी? झट बोल पड़ी- 
"निर्बल को ऐसा बल देकर, जिसने किया अनोखा काम 
सारे   उसको   लाजो   कहते,   लाजवंती   उसका   नाम"
     लाजो का गीत सुनते ही पेड़ के तने की एक छोटी सी खोह से कूद कर दिलावर झींगुर बाहर आ गया। बोला- बुआ  आदाब अर्ज़  !
     -अरे दिलावर तू यहाँ कैसे? 
     -बस बुआ, मैं तो यहाँ बैठा था कि  तुम्हारा गाना सुना। मैं झट बाहर निकला। मैंने सोचा, ये लाजो बुआ तो हो ही नहीं सकतीं। उन्होंने तो गाना गाना छोड़ ही रखा है। भई, भारी जप-तप वाली जो ठहरीं। 
     लाजो का माथा ठनका। आज फिर उसका तप भंग हो गया था। वह फिर गीत गा बैठी थी। लाजो मुंह लटकाए घर की ओर  चल दी। शाम घिर रही थी।   

The Wrinkles

     After supper she removed the "Ramayana" and the rosary from her bed and shook the wrinkles off the bed-sheet. Then she called out to Vicky..."Come son, would you like listening to a story ?"
     -"No, I would watch a quiz on TV." came the voice from another room.
     She dropped off to bed, in such a manner that the bed-sheet appeared more wrinkled than ever...even her face.
इस छोटी कहानी के साथ ही लघु-कथाओं का सिलसिला समाप्त हो रहा है।...लाजो लोमड़ी की कहानी- "उगते नहीं उजाले" फिर से ...

Sunday, June 3, 2012

AS A MATTER OF FACT

     It was midnight. The suburb was concealed by a blanket of stillness.
     Tired of loneliness two souls rose from their graves. Deciding to go for a stroll, they started conversing, "When I was brought here, there was a cortege of five to seven thousand people. The office was closed for half a day. A grand condolence meeting was organised. Mourners shed tears and lamented. What happened when you..."
     -"Oh no ! Nothing of the sort happened."As a matter of fact he said "Actually when I died of cardiac arrest I  was about to retire in a few months."
     The deep sigh of the surrounding stillness could make just a distant drone...

BEING PRACTICAL

     He probably was the youngest man in such an important position. He decided that he would purge the city of prostitution. Wasting no time he passed the order to raid the places where sex workers traded their bodies.
-"In no time these shameful streets should be raided and demolished."
-But sir, you already know that this is a commercial town. Many businessmen and workers leave their homes and come here to earn their bread. Denied this pleasure, the crime-rate would escalate. Rape and harassment would be common.
     the officer looked aghast at this explanation and said- "But this is libido... immorality...degradation of humanity.It is this that is ruining this country."
     - Sir, this practice has one more benefit. Unlike the housewives, these harlots don't give birth to every child. This helps in controlling the population boom and...
     -"But this is shamelessness...inhumanity."
     - This is also a natural biological need. In the lower classes of the society marriage is not feasible for all. It needs money. Then the upkeep of the family...This practice has no such problem...The economic condition of this country...The demon of dowry...
     -"So what do you want ? Should we allow this vulgarity to go on ?The burden of this grand sin would one day..."
     -Don't misunderstand me sir, I only mean that administrators should pay attention to other more  practical matters. 

Saturday, June 2, 2012

MOTHER

     Her father went to work at the break of dawn. Her mother gave her food and went to the stream with a big bundle of washing. As soon as the mother left, her friend, who was a similar looking girl with dry-dirty-tangled hair, came in. She was wearing a misfit short frock, which was making her so self conscious that she was trying to pull it down again and again. Then one by one a couple of kids living in that slum also joined them.
-Come-on, let us play 'home-home'.
-I'll prepare a meal first. You go and collect some fuel. 
-And you clean this place. 
-Oh, not like this... light the fire first !
-I want this seat only. 
-Come, we two will go to wash the clothes. 
-No, all of you must come and sit here. Have your food first, only then can you go out. 
-I'll have my food in this plate only. 
-Oh, there is no more rice. So many people have come...its ok...you all eat first, I'll have my meal later. 
-"Are you playing the mother?" All were surprised. 

Friday, June 1, 2012

The Experienced Connoisseur

     It was not so that his business was not fetching him enough money. He earned a lot. There were four butcheries in the market yet none was as famous as his. And why not? He kept the best meat. He bought the healthiest billy-goats at the asking price. He fed them as if they were his own children. Then every morning when he slaughtered them and hanged the fresh meat in his shop its splendor caught everybody's sight. Customers liked to purchased meat from his shop even at a higher price.
     In spite of all this he didn't wish to carry on this business as a family trade. Angad was his only son after three daughters. Therefore he kept Angad away from the butchery and sent him to school. On growing-up he turned out to be bright and sensible. He even earned good reputation among the young lads of the village. 
     Gajraj Singh, his childhood friend,  was now a renowned leader of the town. After being a member of the municipality, he was now keen on becoming a member of the legislative assembly. One day in the village he saw Angad and dropped a word with his father while leaving "Send him to us, he'll work for the party and we'll make a man out of him. With you he would either be a butcher or would loiter here and there without a job."
     Next day Angad was sent to live with Gajraj Singh. Today, like always, when he visited them he ecstatically narrated " He keeps me just as a  son, gives me pocket-money lavishly, food also the same as he eats..."
     He was not able to sleep that  night. The image of that fat, healthy kid which he had butchered in the morning haunted his mind. The same kid that until yesterday he used  to feed with his own hands. He kept on turning and tossing over. He was thinking of calling Angad back to town the next morning.[Translation of Hindi short-story 'Pushtainee Parakh'] 

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...