Friday, July 25, 2014

कर्म और भाग्य

एक जगह किसी विशाल दावत की तैयारियाँ चल रही थीं।  शाम को हज़ारों मेहमान भोजन के लिए आने वाले थे।  इसलिए दोपहर से ही विविध व्यंजन बन रहे थे।
पेड़ पर बैठे कौवे को और क्या चाहिए था।  उड़कर एक रोटी झपट लाया।  रोटी गरम थी।  तुरंत खा न सका, किन्तु छोड़ी भी नहीं, पैरों में दाब ली और उसके ठंडी होने का इंतज़ार करने लगा।
समय काटने के लिए कौवा रोटी से बात करने लगा।  बोला-"क्यों री,तू हमेशा गोल ही क्यों होती है?"
रोटी ने कहा-"मुझे दुनिया के हर आदमी के पास जाना होता है न, पहिये की तरह गोल होने से यात्रा में आसानी रहती है।"
-"झूठी, तू मेरे पास कहाँ आई? मैं ही उठा कर तुझे लाया!" कौवे ने क्रोध से कहा।
-"तुझे आदमी कौन कहता है रे?" रोटी लापरवाही से बोली।
कौवा गुस्से से काँपने लगा।  उसके पैरों के थरथराने से रोटी फिसल कर पेड़ के नीचे बैठे एक भिखारी के कटोरे में जा गिरी।
वेताल ने विक्रमादित्य को यह कहानी सुना कर कहा- "राजन,कहते हैं कि दुनिया में भाग्य से ज्यादा कर्म प्रबल होता है, किन्तु रोटी उस कौवे को नहीं मिली जो कर्म करके उसे लाया था, जबकि भाग्य के सहारे बैठे भिखारी को बिना प्रयास के ही मिल गयी। यदि इस प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी तुमने नहीं दिया, तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा।"
विक्रमादित्य बोला-"भिखारी केवल भाग्य के भरोसे नहीं था, वह भी परिश्रम करके दावत के स्थान पर आया था और धैर्यपूर्वक शाम की प्रतीक्षा कर रहा था। उधर कौवे ने कर्म ज़रूर किया था पर कर्म के साथ-साथ सभी दुर्गुण उसमें थे-क्रोध, अहंकार, बेईमानी। ऐसे में रोटी ने उसका साथ छोड़ कर ठीक ही किया।"
वेताल ने ऊब कर कहा- "राजन, तुम्हारा मौन भंग हो गया है,इसलिए मुझे जाना होगा, लेकिन यह सिलसिला अब किसी तरह ख़त्म करो, जंगल और पेड़ रोज़ कट रहे हैं, मैं भला वहां कब तक रह सकूँगा?"         
  

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