भला इतना खाना वह कैसे बनाती। उसने तो आजतक अपने लिए खाना अपने हाथ से न बनाया था। सदा यहाँ-वहां सूंघती , चखती ही अपना पेट भरती रही थी। उसके लिए भोजन बनाना बड़ा ही मुश्किल काम था। और दूसरों के लिए भोजन तैयार करना, ये तो उसके खानदान में कभी किसी ने न किया था। उसके पुरखे तो अपने पूर्वजों का श्राद्ध तक दूसरों के घर मनाते आये थे।
उसने सोचा, जैसे आजतक निभी है, आगे भी निभेगी। जिसने आलस दिया है वही रोटी भी देगा।
वह किसी ऐसे शिकार की तलाश में निकल पड़ी, जो उसे तो भोजन खिला ही दे, साथ में फितूरी के लिए भी टिफिन में भरकर भोजन देदे।
वह ऐसे सोच में डूबी चली जा रही थी कि उसे एक तरकीब सूझ गई। उसे मालूम था कि भालू मधुसूदन इस समय अपने घर में नहीं होता। वह शहद इकठ्ठा करने के लिए दोपहरी में जंगल की खाक छानता रहता है। वह अपने घर पर कभी ताला लगाकर भी नहीं रखता था। और सबसे मजेदार बात तो यह थी कि उसके घर में खाने-पीने की तरह-तरह की चीज़ें हमेशा रहती थीं। आलसी जो ठहरा। क्या पता कब जंगल न जाने की इच्छा हो जाये, और घर बैठे-बैठे खाकर ही काम चलाना पड़े।
बस फिर क्या था, लाजो ने मधुसूदन के घर की राह पकड़ी। सचमुच चारों ओर कोई न था। मधुसूदन की रसोई में घुस कर लाजो ने छक कर शहद पिया। फिर उसी के यहाँ से एक छोटा बर्तन ले, फितूरी के लिए भी शहद भर लिया। साथ में कुछ मीठे शहतूत भी रखना न भूली, जिन्हें मधुसूदन कल ही रामखिलावन बन्दर से झपट कर लाया था।
अब लाजो खुश थी। उसने फितूरी के घर की राह पकड़ी। दोपहर का समय था। चारों ओर तेज़ लू चल रही थी। ऐसे में भला फितूरी जाता भी कहाँ। वहीँ था। जिस पेड़ पर फितूरी रहता था, उसी के नीचे पहुँच लाजो ने दम लिया। [जारी]
रोचक!
ReplyDeletebahut achchha laga yah shabd-rochak...kyonki bahut din baad suna.dhanywad
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