"बड़े शौक से सुन रहा था ज़माना...'नाना' ने जब यह कहानी पूरी की। रोज़ का यही नियम था, डिनर के बाद दोनों बच्चे नाना के पास आ बैठते, और कहानी शुरू हो जाती। भारतीय दंपत्ति, उन बच्चों के माता-पिता भी दांतों में अंगुली दबा कर नाना की यह लम्बी कहानी सुनते। इस कहानी का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि बच्चों के मन से "आत्मा"का डर निकल गया। उन्हें अहसास हो गया कि आत्मा तो खुद एक निरीह प्राण होती है, वह भी केवल अपने दुःख में सराबोर ...वह भला किसी को क्या कष्ट पहुंचाएगी? नाना ने बताया- आत्मा केवल पानी के बुलबुलों जैसा अहसास है, जो कभी-कहीं स्थाई नहीं रहता। उससे जो भी कष्ट या भय होता देखा जाता है, वह भी केवल क्षणिक प्रभाव के लिए ही होता है ...बाकी सब अपने चित्त की ही कमजोरी है।
बच्चों को यह बात दिलचस्प लगी कि जब भी कोई नया जन्म होने को होता है, चाहे किसी रूप में, किसी भी योनी में हो, तभी क्षणांश के लिए जीव छटपटाता है, और यदि वह पिछले जन्म की किसी अतृप्त आत्मा का प्राण होता है, तो वही "आत्मा" रुपी अवस्थिति से अपने मन की बात कहने की कोशिश करता है ...किसी उपाय-प्रयास- प्रायश्चित से संतुष्ट होकर वह अपने अगले जन्म की ओर बढ़ जाता है ...किसी अंडाशय में डिम्ब की ओर निषेचन पूर्व दौड़ते शुक्राणु की भांति ...
बहुत दिन हो गए थे, इसलिए अब भारतीय मेहमान वापस भी लौटना चाहते थे। तय हुआ कि अगले दिन शाम को वे लोग वापस न्यूयॉर्क के लिए प्रस्थान कर जायेंगे। बच्चे अब पूरी तरह स्वस्थ थे। उनके आश्चर्य का पारावार न रहा जब उन्होंने उन्होंने नाना के साथ घर के बाहर पेड़ पर लगे घोंसले को देखा। सचमुच किसी जादू से उस घोंसले में छोटे प्यारे-प्यारे तीन अंडे आ गए थे। अण्डों ने मानो बच्चों की निगाह में नाना की सारी कहानी को विश्वसनीय बना दिया था।
अगले दिन शनिवार था। दोपहर तक नाना की वे दोनों नातिनें भी आ जाने वाली थीं। वे ही तो उस परिवार को वहां लाई थीं, बच्चे उनसे मिले बिना और उन्हें धन्यवाद दिए बिना भला कैसे जा सकते थे? फिर उन्हें अगले साल भारत आने के लिए भी तो निमंत्रित करना था। बच्चों की मम्मी रसोई में व्यस्त हो गईं, और बच्चे दोनों दीदियों का बेसब्री से इंतज़ार करते हुए खेलने के लिए बाहर लॉन में आ गए। बच्चों ने एक पुरानी झाड़ी के पीछे से ढूंढ कर लकड़ी के दो पट्टे उठा लिए, जिन्हें वे खेलने के लिए बैट बना सकें।
अचानक एक कार आकर रुकी, उसमें से दोनों लड़कियां उतरीं और बच्चों से लिपट गईं. चहचहा कर बच्चे भीतर की और दौड़े, मम्मी-पापा को दीदी के आने की खबर देने के लिए। लेकिन बच्चों का ध्यान तभी अपने हाथ में पकड़ी लकड़ी की पट्टियों पर गया। उन पर लिखा था- सना रोज़ और सिल्वा रोज़ ...
बच्चे एकसाथ चिल्ला पड़े- " नाना किन्जान हैं...नाना किन्जान हैं ...
उधर मम्मी ने सूप की प्लेट आराम-कुर्सी पर बैठे नाना की ओर बढाई तो प्लेट हाथ में ही रह गई, क्योंकि नाना का चेहरा एक ओर निढाल होकर लुढ़क गया।
सना और सिल्वा समझ नहीं पाई कि पहले नाना को सम्भालें , या पहले बच्चों को ...जो गश खाकर गिरने लगे थे...वे प्यारे-प्यारे बच्चे, जिन्हें किसी आत्मा के प्रभाव से बचाने के लिए वे नाना के पास छोड़ गईं थीं। [ समाप्त ]
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