Friday, July 30, 2010

बदन बाग़

हमारा शरीर भी किसी अच्छे-खासे महानगर की तरह ही है। सारे विभाग हैं। सारा कारोबार । दिन-भर चलती उठा-पटक और चिल्लपों।
पेट में दिन भर का बजट आते ही सारे विभाग अपनी-अपनी मांगें रखने लग जाते हैं। कहीं बढ़ोतरी तो कहीं कटौती।
ह्रदय पूरे शहर में पेट्रोल की तरह खून पहुंचाने वाला महकमा और दिमाग महानगरपरिषद् के दफ्तर की तरह, जहां सब विभागों की फाइलें रहती हैं। स्वच्छता, निकासी, जलापूर्ति, विद्युतनिगम किसी को कभी फुर्सत नहीं। जब शहर नया, अर्थात युवा होता है तो कहीं किसी बात की कमी नहीं, सब मिलता रहता है। पुराना हो तो सौ झंझट। मुंह से दांत गिरा तो लगता है जैसे कोई पुराना कर्मचारी रिटायर हो गया। अब यदि इसकी जगह नई भर्ती हो जाए तो ठीक, सब काम फिर सुचारू हो जाएगा, पर बजट कटौती के चलते पद खाली ही रखा गया तो नई मुसीबतें।
सर पर होता है शहर का कंपनी बाग़, या सेन्ट्रल पार्क। कहीं घने पेड़-पौधे, तो कहीं मामूली घास - फूस और कहीं केवल मैदान ही मैदान।
इसी शहर में आँखों के रास्ते दिमाग को जाने वाली एक लाइब्रेरी भी होती है। इसमें जितना कुछ जमा रहता है, बदन बाग़ उतना ही गुलज़ार रहता है।
जब हम कोई किताब पढ़ते हैं तो किताब में फ़ैली सारी दुनिया हमारी इस लाइब्रेरी में छप जाती है। एक उपन्यास या कहानी में देखा सारा का सारा परिद्रश्य या कैनवास जाकर हमारे जेहन में ऐसे बस जाता है, जैसे किसी बड़े नगर के दालान में छोटी-छोटी असंख्य बस्तियां। कहानियाँ हमारे जिगर-कुंड को आबाद करती हैं, तो कवितायेँ इसकी फुलवारियों में रंग भी भरती हैं।
कभी-कभी किसी मासूम युवा कवि की उदासी-भरी कविता भी मन के पतझड़ को मिटा कर वहां कोंपलों ही कोंपलों की सावनी आवनी लिख जाती है। जी हरा-भरा हो जाता है। कभी किसी सिद्धहस्त कलमकार की कहानी मन-क्यारी में विचरते मयूरों को दाना डाल जाती है तो मानस गुनगुनाने लग जाता है। कभी किसी नए मौसम की कवयित्री का गीत फडफडाते नयनों से किसी परदेसी युवक को पानी पिलाते नीर-सागर की थाप सा अँगुलियों-अंजुरियों में गुदगुदा जाता है।

2 comments:

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