Thursday, July 15, 2010

किताबें कभी झूठ नहीं बोलतीं

किसी ने कहा है कि तुम मुझे बताओ - तुम कौनसी पुस्तकें पढ़ते हो, मैं तुम्हें बता दूंगा कि तुम कैसे इंसान हो. भारत में एक किताब है जिसे हम कानून की किताब के नाम से जानते हैं. इसमें लिखा है कि किसी भी युवती का विवाह कम से कम १८ वर्ष की उम्र में किया जाना चाहिए. यह पुस्तक युवकों की न्यूनतम विवाह योग्य उम्र २१ वर्ष मानती है. अब यदि इस पुस्तक की बात मानकर एक युवक और एक युवती विवाह बंधन में बंधते हैं, तो -
उस विवाह के फलस्वरूप बनने वाले नए परिवार में पति २१ वर्ष का है और पत्नी १८ वर्ष की. हमारे यहाँ उम्र को वरिष्ठता का अच्छा ख़ासा आधार माना जाता है. यदि दो जुड़वां भाइयों में एक भाई पांच मिनट भी बड़ा हो तो उसे दूसरा भाई उम्र भर भैय्या कहता है और उसकी पत्नी को भाभी का दर्जा देता है जिसे भारतीय संस्कृति में माँ समान भी माना गया है. ज़ाहिर है कि पति से तीन वर्ष छोटी पत्नी उससे वरिष्ठ होना तो दूर, उसके समान भी नहीं मानी जा सकती. भारतीय शिक्षा प्रणाली के अनुसार एक १८ वर्षीय व्यक्ति सामान्यतः स्कूली शिक्षा प्राप्त कर सकता है, जबकि २१ वर्षीय व्यक्ति स्नातक भी हो सकता है. इसका सीधा सीधा अर्थ है कि इस नए परिवार में पति पत्नी से कहीं ज्यादा पढ़ा लिखा है.
अब यही किताब आगे कहीं यह भी कहती है कि पति-पत्नी का दर्ज़ा हर प्रकार समान होगा और उनमें किसी भी बात को लेकर भेद-भाव नहीं किया जा सकता. किन्तु हमने खुद ये व्यवस्था कर दी है कि इस नए बनने वाले परिवार में पत्नी एक दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में आये. परिवार की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए उसे शारीरिक ही नहीं, मानसिक दृढ़ता की भी ज़रुरत होती है. अतः दोनों को समान अधिकार देने के लिए आयु के बंधन की कोई आवश्यकता नहीं है. कुछ लोग यह भी मानते हैं कि लड़कियां उम्र की दृष्टि से कुछ जल्दी शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता प्राप्त करती हैं. यदि ऐसा है तो क्या दसवीं पास करने की न्यूनतम उम्र अथवा नौकरी पाने की उम्र या वोट देने की उम्र लड़कियों के मामले में लड़कों से कुछ कम नहीं होनी चाहिए? यहाँ १८ वर्ष के युवक के समान १६ वर्ष की युवती को क्यों नहीं माना जा सकता?
भ्रष्टाचार पर आजकल कोई कुछ न तो कहना चाहता है और न सुनना चाहता है. यही सोचकर मैंने आज भ्रष्टाचार की बात न करके विषयांतर किया था. लेकिन यहाँ तक आते आते मुझे लग रहा है कि यह किताब जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है, कहीं एक नए किस्म के भ्रष्टाचार को जन्म तो नहीं दे रही? कहीं युवतियों को एक हाथ से कुछ देकर दूसरे हाथ से कुछ छीन तो नहीं रही? समानता की आड़ में असमानता को प्रश्रय तो नहीं दे रही? मैं जानता हूँ कि इस बार आप कुछ न कुछ उत्तर अवश्य देंगे. परस्पर विरोधी बातों पर मौन रहना भी एक प्रकार का भ्रष्टाचार ही है.

2 comments:

  1. सच तो यह है कि संविधान में उल्लिखित विवाह की आयु हमारी सामाजिक परम्‍परा को देखते हुए बतायी गयी है। समाज ने सैकड़ों वर्षों से इस परम्‍परा का निर्वहन किया है। मैंने इस बात को अनेक बार इंगित किया है कि समाज के माध्‍यम से पुरुष ने विवाह के समय बड़ी ही चतुराई से काम लिया और अपने से छोटी (आयु, शिक्षा, कद) में स्‍त्री को पत्‍नी बनाया। जिससे उसे किसी भी प्रकार का मानसिक और शारीरिक आघात नहीं हो वह पूर्णतया सुरक्षित रहे। इसलिए महिलाओं को अब समझना चाहिए और इस भेदभाव को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

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  2. आपकी बात सही है...अधिकांश रूप से यही होता आया है...लेकिन अब कहीं कहीं वर्जनाएं टूट रही हैं....और हर हक मिलता नहीं है...हक छीन लेना पड़ता है...

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