डाक्टरों का काम बड़ा मुश्किल है। उन्हें मरीज़ को स्वस्थ करने से नाम मिलता है, और बीमार रखने से काम। यदि वे लोगों को यह समझाने लगे कि रोग का इलाज करने से अच्छा है, उससे बचाव, तो वे खायेंगे क्या?
असल में डाक्टर भी अब दो तरह के हो गए हैं। एक वे, जो सोचते हैं कि यह सम्मान का पेशा है, सेवा का काम है, पैसा भी ठीक मिलता है। [यद्यपि यह नस्ल बहुत ही कम बची है, और विलुप्त होने के कगार पर है]
दूसरे वे, जो सोचते हैं कि हम लाखों रुपये खर्च करके डाक्टरी में गए, सालों तक कड़ी मेहनतवाली पढ़ाई कर के जीवन का सबसे कीमती समय किताबों में गुज़ारा,तो अब हमें हर तरह से कमाने का भी पूरा हक़ है।
वे मरीज़ से हाल बाद में पूछते हैं, पहले यह पूछते हैं कि क्या उन्हें इलाज़ के पैसे की प्रतिपूर्ति होती है? यदि उत्तर हाँ में मिलता है तो बस फिर उन्हें ऐसा लगता है, कि जितना भी हो सके, खींच लो। वे अपने मन को यह कह कर समझा लेते हैं कि हम रोगी से थोडेही ले रहे हैं, हम तो बीमा कंपनी या नौकरी देने वाली कंपनी से ले रहे हैं।
यदि रोगी कहता है कि उसे इलाज का पैसा कहीं से नहीं मिलेगा, तो उनके चेहरे पर ऐसा भाव आ जाता है कि भगवान् पर भरोसा रखो।
उदयपुर, राजस्थान के मशहूर त्वचा रोग विशेषग्य डॉ असित मित्तल कहते हैं कि जिस तरह कपड़ा महंगा भी होता है, और सस्ता भी, खाना साधारण ढाबे का भी होता है, फाइवस्टार होटल का भी, उसी तरह दवाइयों में भी वर्गीकरण है-सस्ती भी होती हैं, महंगी भी। यदि रोगी अच्छा अफोर्ड कर सकता है तो क्यों न करे? यदि पैसा कंपनी देगी तो आसानी होगी।
दिल्ली की सुविख्यात डाक्टर प्रतिमा के अनुसार ऐसा हम इसलिए पूछते हैं कि यदि पैसा वापस मिल जाने की सुविधा है तो अच्छा -पूरा इलाज लिख देते हैं, नहीं तो ज़रूरी मात्र। अब यदि हम किसी दिहाड़ी मजदूर से कह दें कि रोज फल खाओ, दूध पियो, तो वह क्या करेगा?
डाक्टर अजय गोयला का मानना है कि हम महंगी दवा लिखें या सस्ती, मरीज़ तो अपना बजट देखता है। महंगी दवा होती है तो कम ले लेता है, बीच में छोड़ देता है। इसलिए उसकी आर्थिक स्थिति जानना ज़रूरी होता है।
दिल्ली के डॉ दीपक गोविल ने एक बार मुझे बताया था कि रोगी भी तो अलग-अलग मानसिकता वाले होते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं कि जब तक आप महँगा इलाज नहीं लिखो, उन्हें विश्वास ही नहीं होता। वह बड़े डाक्टर का पैमाना ही यह मानते हैं कि जो ज्यादा फीस ले, महंगा इलाज करे।
जयपुर के कान,नाक और गला विशेषज्ञ डॉ प्रकाश मिश्रा का विचार है कि आजकल मिलावट का भी ख़तरा रहता है। सस्ती चीज़ लिखते हैं तो डर रहता है कि कहीं नकली न मिल जाए। इसी से महंगे इलाज पे जाते हैं, कि कुछ नामी कंपनियों पर ये भरोसा तो होता ही है कि ये चीटिंग नहीं करेंगी।
दिल्ली की मेडिकल छात्रा अदिति का कहना है कि मैं चाहे थोड़े लोगों का इलाज करूं पर मन से करूंगी। धन की भूमिका बीच में नहीं आयेगी। पैसे कमाने के लिए तो और भी बहुत सारी सुविधाएं हैं, रोगी को गलत जानकारी देकर क्या कमाना?
रेलवे के वरिष्ठ डाक्टर बृजेश तो उलटा सवाल ही दाग देते हैं- आज पढ़ाई सस्ती रह गयी है? ज़मीनों के भाव कम हो रहे हैं? पेट्रोल और साग-सब्जी की महंगाई कम हो रही है? फिर इलाज ही कैसे सस्ता होगा। डाक्टरों की फीस के बराबर पैसे तो नाई बाल काटने के ले रहे हैं।
स्त्री रोगों की सुप्रसिद्ध विशेषज्ञा डॉ रीना बताती हैं कि जब मेरे सामने कोई रोगी आता है तो पैसा, फीस, सुविधाएं, ये कोई बात मेरे जेहन में नहीं आती। मेरा दिमाग तो इस बात के लिए दौड़ता है कि इसे कैसे जल्दी से स्वस्थ किया जाए।
चिकित्सकों की इन गहरी बातों से तो यही लगता है कि मरीज़ यदि विश्वास करके डाक्टरों में भगवानढूंढेगा, तो उसे भगवान ही मिलेंगे। हाँ, हर बात पे शक करेगा तो हकीम लुकमान भी शायद कुछ न कर सकें।
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
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गोविल जी हर सिक्के के दो पहलु होते हैं| राम और रावण तो सबमे है| हाँ आपकी यह बात सही है कि विश्वास करके भगवान ढूंढने पर भगवान ही मिलेंगे|
ReplyDeleteDoctor अच्छे भी हैं और लालची भी । पर आपकी बात भी सही है ।
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