Friday, July 16, 2010

माचिस, आग और धुआँ एक ही जाति के शब्द हैं

मैं अपने एक मित्र के घर बैठा था. कुछ ही देर में मित्र की माताजी बाज़ार से लौट कर आयीं. घर में घुसते ही वह उस रिक्शा वाले को कोसने लगीं, जो उन्हें अभी अभी बाज़ार से घर छोड़ कर गया था. हम आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगे. वे कह रही थीं - "कैसा बदतमीज़ आदमी है, बात करने का भी ढंग नहीं है. मेरे पास डेढ़ रूपया कम था, उसी के लिए झिक झिक कर रहा था. डेढ़ रूपया कम लेने को तैयार नहीं हुआ. ये भी नहीं सोचा कि छह हज़ार रुपये की तो मैंने बनारसी साड़ी पहनी हुयी है. बोलते बोलते आप से तुम पर उतर आया."
अब चकित होने की बारी मेरी थी. सारा माजरा समझ में आ गया. माताश्री ने बीस रुपये मजदूरी ठहरा कर साढ़े अठारह रुपये उसे दिए और वे चाहती थीं कि वह उनकी छह हज़ार रुपये की साड़ी के कारण उन्हें बड़ा रईस समझे और चुपचाप चला जाए.
मुझे बेचारे रिक्शे वाले पर तरस आने लगा. हम क्या महंगे कपड़े इसीलिए पहनते हैं कि उनके रौब में आकर हमारे छोटे मोटे काम सध जाएँ? मुझे कुछ दिन पहले की घटना याद आ गयी जब मेरे एक परिचित ने बैंक में अपना लोन का फॉर्म जमा कराने के लिए चपरासी द्वारा दस रुपये की रिश्वत मांगने की बात कही थी. उन्होंने भी चपरासी को काफी भला बुरा कहा था. फॉर्म जमा कराने के लिए दस रुपये की रिश्वत देना या छह हज़ार रुपये की ड्रेस पहनकर अपने व्यक्तित्व का दबाव बनाकर किसी मजदूर को कम मजदूरी देना, एक ही बात नहीं है? यहाँ भ्रष्टाचार का केवल मौद्रीकरण ही तो हुआ है. चपरासी करेंसी में रिश्वत ले रहा था, माताजी दबंगता में रिश्वत ले रही थीं. बल्कि इसे तो और भी बड़ा भ्रष्टाचार कहा जाएगा कि यहाँ रिश्वत लेने वाला, न देने वाले को कोस रहा था. आग, माचिस और धुआँ, ये एक ही जात के शब्द हैं और एक ही चीज़ के अलग अलग रूप हैं. जिस तरह पैसों में घूस और आचरण में भ्रष्टता दोनों एक सी बातें हैं.

1 comment:

  1. बिल्कुल सही कहा है। अगर अपना लाभ हो रहा हो तो हमारी आंखें हर गलती और भ्रष्टाचार के लिये बन्द ही रहती हैं।

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