जब हम अपने भोजन के लिए थाली के सामने आते हैं तब हम जानते हैं कि चाहे कितना भी पौष्टिक या विविधता भरा भोजन हो, यह कुछ घंटों का ही खेल है,चंद घंटों बाद फिर भूख लगेगी।
इसी तरह जब हम अपने तन के लिए कपड़ा खरीदते हैं तब भी यह अहसास हमें रहता है कि कितना भी महंगा या टिकाऊ कपड़ा हो,कुछ दिन बाद यह हमारा साथ छोड़ेगा.चाहे हम स्वयं ऊबकर उसे फेंके या किसी को दें।
लेकिन न जाने क्यों अधिकांश लोग जब अपना मकान बनवाने पर आते हैं तो जीवन की नश्वरता को भूल जाते हैं और इसकी शान-शौकत को अपनी हैसियत से बाहर ले जाने में बजट से भी बाहर हो जाते हैं.बहुत से लोग मकान के कारण जीवन भर कर्ज़दार रहते हैं.बहुत ही कम लोग ऐसे होते हैं जो मकान को भी जीवन की एक मूल आवश्यकता मानते हुए इसे थोड़े में समेट कर चैन से रहें.मैंने ऐसे सैंकड़ों परिवारों को देखा है जो अच्छे-भले खातेपीते होने के बाद भी मकान बनाते समय क़र्ज़ में डूब गए.या अपनों से दूर हो गए क्योंकि वह अपनी सारी कमाई को केवल सीमेंट पत्थरों में झोंकने के फेर में पड़ गए.नौकरीपेशा लोंगो ने तो यह नियम ही बना लिया कि जब तक नौकरी में रहेंगे मकान के क़र्ज़ की किश्तें देते ही रहेंगे.व्यवसाय वाले भी बैंकों के कर्ज़दार होकर आलीशान दबडों के पंछी बन गए.आज यदि किसी शहर में शानदार मकानों की बस्ती में हम ऐसे लोग ढूंढे जो कर्ज़दार न हों तो मुश्किल से ही मिलेंगे.लोग मकान में सीमेंट,पत्थर,संगमरमर,ग्रेनाईट,सागवान,चन्दन और न जाने क्या-क्या जड़वाने में यह भी भूल जाते हैं कि जो मकान हम लाखों करोड़ों में खडा कर रहे हैं वह चाहे अमर हो जाए पर हम अमर नहीं हैं।
लोग तर्क देते हैं कि हमारे बाद हमारे बच्चे इनमें रहेंगे लेकिन यहाँ भी शायद आप यह भूल जाते हैं कि आप जैसे करोड़पतियों के बच्चे भी पुराने मकानों में क्यों रहना चाहेंगे?वे यातो तोड़-फोड़ कराकर आपके बनाए बेल-बूटे गिराएंगे या फिर नए फैशन के दूसरे आशियाने बनायेंगे.फैशन रोज़ बदलते हैं.आज आपको ग्रेनाईट अच्छा लगता है कल आपके बच्चों को कुछ और अच्छा लगेगा जो उनके समय के फैशन में होगा.सोचिये,जिन लोगों ने महल,किले या मीनारें बनवा डाले उनके भी बच्चे आज उनमें नहीं रहते.जिन्होंने दीवारों में सोनाचांदी लगवाया वहां भी उन परिवारों का कोई वाशिंदा अब रहता नहीं है.तब क्यों न अपनी आमदनी के अनुसार सीमित बजट की छत बनाकर रहा जाए?कम से कम आपके हाथ में जीवन की अन्य खुशियों के लिए पैसा तो रहेगा.किले,हवेली या महलनुमा मकान बना लेने वाले फिर सुरक्षा कारणों से उन्ही में कैद होकर रह जाते हैं.वे अपने ही घर में बंद गाडी में काले शीशे चढ़ाकर घुसने लग जाते हैं मानो उन्होंने कोई बड़ा अपराध कर डाला हो।
सुना है,देश के सबसे बड़े अमीर माननीय मुकेश अम्बानी मुंबई में अपने रहने के लिए ३७ मंजिला मकान बना रहे हैं.जैसे उनके पिता के बनाए मकान में ,माँ के रहते हुए भी दो भाई एक साथ न रह सके,क्या उन्हें भरोसा है कि उनकी कई पीढियां एक साथ एक ही छत के नीचे रह पाएंगी?
किसी किसी आलीशान बस्ती में तो आपको केवल वरिष्ठ नागरिक जीवन काटते मिलेंगे क्योकि बच्चे नौकरियों या काम के चलते बाहर चले गए और जो बच्चे कहीं नहीं जा पाए वे प्रायः इस स्थिति में भी नहीं रह जाते कि अपने पुरखों की हवेलियों पर रंग-रोगन भी करवा सकें.मकान से लगाव भी प्रायः उसी को होता है जो उसे बनाता है.सोचिये,ज़िंदगी चुनेंगे कि अपनी हैसियत से बड़ा आशियाना?
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
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पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा
ReplyDeleteसोचने पर मजबूर करता लेख
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