मुझे याद है बचपन में जब हम स्कूल में पढ़ते थे, तब आख़िरी पीरियड हमेशा चित्रकला, अर्थात ड्राइंग का आता था। टीचर द्वारा हमें कागज़ बांटा जाता और हम उस पर चित्रकारी किया करते थे। सालभर में सौ कागज़ पूरे करने होते थे।
मैं अक्सर देखता कि बच्चों का मन चित्रकारी में ज्यादा नहीं लगता था। वे कागज़ लेकर उस पर जल्दी- जल्दी कुछ भी बनाते और इस फ़िराक में रहते कि कागज़ वापस जमा करा कर जल्दी से बाहर खेलें। टीचर बार-बार उन्हें समझाकर चित्र को और गहराई से बनाने तथा कागज़ को पूरा इस्तेमाल करने को कहतीं।
सत्र शुरू होने पर ख़बरें आती थीं कि कागज़ की कमी होने से कॉपी- किताबें महंगी हो रही हैं। आसानी से नहीं मिल रही हैं। देर से बाज़ार में आरही हैं। पढ़ाई बाधित हो रही है। बड़ी कक्षाओं के बच्चे भी स्लेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, आदि-आदि।
नौकरी लगी तो ऑफिस में कागज़ व स्टेशनरी की बचत की हिदायतें सुनीं। कभी बड़े अफसर दौरे पर आते तो हमारी मेजों पर यह देखते कि कहीं हमने कागज़ खराब तो नहीं किये? रफ कार्य करने के लिए रद्दी कागज़ प्रयोग करने की सलाह दी जाती। एक अधिकारी तो बड़े गर्व से बताते कि वे उनके पास आने वाली चिट्ठियों के लिफ़ाफ़े फाड़ कर ड्राफ्टिंग के काम में लेते हैं।
मुंबई में मैं एक बार एक अखबार के लिए डॉ. हरिवंश राय बच्चन का साक्षात्कार लेने गया तो वे बोले- " किताबों में बीच में खाली जगह छोड़ना मुझे लक्ज़री लगती है। नईकविता में पंक्तियाँ तो बहुत कम होती हैं, सफा खाली छूटा रहता है। मेरा मन करता है कि इस खाली पड़े कागज़ पर अपनी कविता लिख दूं। "
अमृता प्रीतम ने तो यहाँ तक कहा था कि मेरी आत्मकथा के लिए कागज़ नहीं चाहिए, वह तो एक टिकिट पर लिखी जा सकती है। कई बड़े कवियों के सिगरेट की डिब्बियों पर कविता लिखने की बात सुनी। कई मशहूर ग़ज़लों के शेर, सुना है सिगरेट की डिब्बियों पर ही लिखे गए हैं। पुराने कवियों के पास कागज़ नहीं था। वे पत्तों पर ही लिख कर अपने समय की अँगुलियों के अक्स हमारे लिए छोड़ गए। लिखने की सुविधा न होने से कुछ कवियों ने गाने और बोलों को कंठस्थ करने की प्रक्रिया अपनाई।
जब अमेरिका में आया तो सवेरे की शुरुआत कागज़ से ही हुई, शौचघर में।
जब भी बाहर खाना खाने जाते हैं तो चाहे थाई, मलेशियन, वियतनामी, टर्किश,चाइनीज़ या भारतीय, कोई भी खाना हो, परोसने वाले पहले बड़ी सी शफ्फाक कागज़ की शीट मेज़ पर बिछाते हैं। ऐसी, जैसी हमें केवल परीक्षा के दौरान चित्र बनाने को मिलती थी, और हम उस पर रंग का एक-एक कतरा हिफाज़त से इस्तेमाल करते थे, क्योंकि दोबारा लेने की मनाही थी। खाने के बाद में हाथ पोंछने के लिए कागज़, मुंह पोंछने के लिए कागज़।
यहांतक कि न्यूयॉर्क में एक पार्क में घूमते हुए एक बूढ़ी महिला को देखा, जो अपना सामान लिए सड़क के किनारे गुमसुम बैठी थी। मैंने बेटे से पूछा- क्या,यह कुछ बेचने वाली है? उसने मुझे बताया कि बेच नहीं रही, शायद होमलैस है या धन की मदद मांग रही है। मैं उसे गौर से देखने लगा। थोड़ी ही देर में उसने एक सफ़ेद- साफ कागज़ का नेपकिन अपने झोले से निकाला, और अपनी नांक पोंछने लगी।
बचपन में मेरे पिता कहा करते थे कि मेरी गणित इसीलिये कमज़ोर है, क्योंकि मैं सवालों को लिख कर बार-बार नहीं दोहराता। पर मेरा मन कहता था कि बार-बार नया कागज़ लेकर सवाल कैसे लिखूं? मैं कागज़ बचाने के लिए अंगुली से मिट्टी में लिख कर सवाल हल करता था।
आज यदि मेरे पिता जीवित होते तो मैं उनसे कहता कि एक सवाल के लिए बार-बार कागज़ लेने वाला गणितज्ञ बनने की नहीं, मेरी ख्वाहिश तो ज़िन्दगी के हर सवाल का जवाब एक ही कागज़ पर इस तरह लिख लेने की है जिसे हजारों बार पढ़ा जाए।
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
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शरुआत में आपने बह्पन की याद दिलाई और अंत में ऐसे गंभीर विषय पर लाकर अटका दिया की मेरे पास शब्द ही नहीं है कुछ कहने के लिए| बेशक आपने अच्छा लिखा है|
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