Tuesday, July 13, 2010

गिरती दीवारें और बढ़ते नाखून

हमें बचपन में सिखाया जाता है कि झूठ बोलना पाप है. कुछ बड़े होने पर हम सुनते हैं कि गंगा में नहाने से पाप धुल जाते हैं. संस्कृति की यह लाइसेंसिंग प्रणाली लोगों को वयस्क होते न होते भ्रमित कर देती है. अपने जीवन मूल्यों के वजन को वे खुद नहीं जान पाते.
अधिकाँश लोग अपने समय में किसी न किसी तरह अपने होने के एहसास छोड़ना चाहते हैं. इसमें कुछ गलत भी नहीं है. इसके कई तरीके हैं. आपके पास डाक टिकिट के बराबर का कागज़ हो तो भी आप अमृता प्रीतम बन सकते हैं और ज़िन्दगी को शान और सुकून से रसीदी टिकिट दे सकते हैं. आपके पास पूरा आसमान कैनवास की तरह मौजूद हो, तब भी कई बार वह अनकहा ही रह जाता है, जो आप कहना चाहते हैं. पुरातत्व विभाग प्रायः इस बात से परेशान दिखाई देता है कि कीमती पुरा-दीवारों पर हम लोग कोयले से लिखने के आदी होते हैं. अपना नाम लिखने की तल्लीनता में न तो हमें कोयले की कालिख से परहेज़ होता है, और न ही दीवार के मटमैलेपन से. कोई भी ऐसा कार्य जिसे करते समय नहीं, बल्कि करने के बाद हमें यह महसूस हो कि ये हमने क्या कर दिया, शायद वही भ्रष्टाचार है.
अब सवाल यह है कि भ्रष्टाचार को मिटाने की कोशिश करनी चाहिए या नहीं. उसे मिटाने की कोशिश हम करें या न करें, वह स्वयं एक न एक दिन ऐसी कोशिश करता है. पश्चाताप की एक सील हमारी ज़िन्दगी के प्रमाण पत्र पर जिस दिन वह लगाता है, हमारा बहुत सा हिसाब बराबर हो जाता है. भ्रष्टाचार कुछ जल्दी पैसा दिला सकता है, कुछ जल्दी तरक्की दिलवा सकता है, कुछ जल्दी मिल्कियत दिलवा सकता है, लेकिन पैसा, तरक्की या मिल्कियत से मिलने वाले संतोष को जब हम तोलते हैं, तो हमें महसूस होता है कि हम ठगे गए. इसलिए हम संतुष्ट रहे, कि भ्रष्टाचार बढ़ने या रुकने की प्रक्रिया हम पर अवलंबित नहीं है. वह एक स्वचालित प्रक्रिया है जो एक न एक दिन पूरे गणितीय तरीके से हमारे सामने उजागर हो जाती है. कभी किसी की मृत्यु के पचास साल बाद भी उसे पुरस्कृत करने की मांग उठती है, तो कभी किसी के जीते-जी उसकी समाप्ति की कामना की जाती है. इतना हम सब जान सकते हैं कि हमें क्या चाहिए. उसे पाने का ऐसा तरीका जो उजाले में सार्वजनिक तौर पर हम अपना सकें, तो शायद भ्रष्टाचार की दलदल से हम बचे रहेंगे.
यदि आपको लगता है कि आप भ्रष्टाचार को हटाने की दिशा में कुछ ठोस करना चाहते हैं, तो कृपया हमें लिखिए.

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