Tuesday, August 10, 2010

लक्ष्य के समीप

मैं कल जयपुर पहुँच जाऊंगा। राही पत्रिका के लिए लोगों ने रूचि दिखानी शुरू कर दी है। साहित्य की आज जो स्थिति है, वह कोई विचित्र बात नहीं है। लगभग हर काल में ही ऐसा रहा है कि बहुत कम लोग इसके ग्रीन रूम से जुड़ते हैं। बाकी तो मंचाकान्क्शी हैं। या फिर सामने बैठे दर्शक। मुझे कुछ ग्रीन-रूम कार्यकर्ताओं की ही तलाश है। १५ अगस्त के बाद हम यह कवायद शुरू कर देंगे। हमारे पास कुछ ऐसे लोग भी आये हैं जो अभी अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास कर रहे हैं। इन के लिए हम आवासीय और गैर- आवासीय रोज़गार कार्यक्रम भी शुरू कर रहे हैं। इनकी देखभाल और मदद के लिए कुछ सेवाभावी युवा भी हमारी ज़रुरत हैं। मेरा मानना है कि इस मानसिकता के लोग हमें बहुत कम और दूर-दूर फैले मिलते हैं। वे हम पर भरोसा कर के हमारे पास चले आयें, इसमें भी वक़्त लगेगा। जल्दी में हम भी नहीं हैं, हम इंतज़ार करेंगे। बहरहाल हमारे पास एक अजनबियों का मासूम व इमानदार परिवार गढ़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना है। वरना मैं,मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरी जाति, मेरी संपत्ति जैसी अवधारणाएं तो स्वार्थी गुटों के रूप में समाज को बाँट ही रही हैं। यदि आपको लगता है कि हम सब दुनिया में मेहमान की तरह आये हैं, और हंसी-खुशी अपना वक़्त बिता कर जाएँ, तो निःसंकोच हमसे संपर्क कीजिये।

Sunday, August 8, 2010

बरसात ने रोका

भारत आते ही सबसे पहले अहमदाबाद आया। यहाँ की लगातार बारिश ने मेरा सारा कार्यक्रम आगे बढ़ा दिया है। अब १५ अगस्त को पहले मैं एक स्कूल में बच्चों से बात करूंगा। उन्हें बहुत सारे पुरस्कार भी दूंगा। फिर अपना तय कार्यक्रम आगे बढेगा।मुझसे कुछ मित्रों ने पूछा है कि शीघ्र प्रकाशित होने वाली पत्रिका किस भाषा में होगी? मैं बतादूँ, पत्रिका हिंदी में ही निकालने की योजना है। पत्रिका में लगभग ३० पेज में सामयिक लेख होंगे। १६ पेज में साहित्य होगा। २ पेज सम्पादक की अपनी बात के लिए होंगे। पत्रिका मासिक होगी। संपादक तन से ज्यादा मन से युवा हो तो ज्यादा अच्छा होगा। क्योंकि उसे पूरी आजादी देकर उसका काम दूर से देखने की योजना है। पत्रिका में कई छोटे-बड़े निर्णयों के लिए संपादन मेज़ पूरी तरह स्वाधीन होगी। रहना जयपुर में होगा। आवास की सुविधा रहेगी। अपने काम के सिलसिले में यात्रा-पसंद व्यक्ति कार्य का ज्यादा आनंद लेसकेगा। कुछ पत्रों में विज्ञापन भी दिया जा रहा है। पत्रिका की संभावित द्रष्टि के बारे में यही कहा जा सकता है कि जीवन की हलचल से सीधे उठाई गयी ताज़ा सामग्री का प्रकाशन हो, अन्य भाषाओं या पत्रिकाओं से तैयार की गयी सामग्री से बचा जाये। ९४१४०२८९३८ पर विस्तार से बात की जा सकती है।

Saturday, July 31, 2010

असमंजस

आज मेरा मन लिखने में नहीं लग रहा। लेकिन यह भी अच्छा नहीं लग रहा कि आज मैं कुछ नहीं कहूं। अपने इस असमंजस का कारण भी आपको बताता हूँ। आज दरअसल मैं भारत जा रहा हूँ। अभी वहां दो ज़रूरी काम हैं। १५ सितम्बर को मुझे जयपुर के नज़दीक एक विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम का आयोजन करना है। यदि इस काम के लिए मुझसे कुछ नए और उत्साही लोग जुड़ते हैं तो मुझे अच्छा लगेगा। मेरी उम्मीद है कि उनमें कुछ साहित्यिक रुझान हो तो मैं उन्हें ज्यादा करीब समझूंगा। इसका कारण मेरा दूसरा काम है। जल्दी ही मैं जयपुर से एक पत्रिका भी निकालना चाहता हूँ। मेरी एक पत्रिका " राही अन्तःक्षेप" काफी समय तक चली भी थी पर मेरे उसे समय न दे पाने और उसके लिए कोई ताजगी भरे दिमाग का युवा संपादक न मिल पाने के कारण वह नियमित न रह सकी। इस बार मैं उसके लिए कोई उपयुक्त पात्र तलाश करूंगा। कार्यालय और आवास उपलब्ध है। पत्रिका का भारत सरकार से पंजीकरण भी है। रात को न्यूयॉर्क से निकल कर एक सप्ताह गुजरात में ठहर कर जयपुर पहुंचूंगा। इस के बाद मुझसे संपर्क किया जा सकता है। यह दो काम तो तत्काल हैं ही, पर इनके साथ यह भी बतादूँ, कि भारत के कुछ स्थानों की यात्रा भी करनी है। यदि मुझे मेरे प्रोजेक्ट के लिए उपयुक्त लोग मिल गए तो वे भी यात्रा में साथ रह सकते हैं। बस, इस समय इतना ही। भारत से अगली पोस्ट में और बातें होंगी।

Friday, July 30, 2010

बदन बाग़

हमारा शरीर भी किसी अच्छे-खासे महानगर की तरह ही है। सारे विभाग हैं। सारा कारोबार । दिन-भर चलती उठा-पटक और चिल्लपों।
पेट में दिन भर का बजट आते ही सारे विभाग अपनी-अपनी मांगें रखने लग जाते हैं। कहीं बढ़ोतरी तो कहीं कटौती।
ह्रदय पूरे शहर में पेट्रोल की तरह खून पहुंचाने वाला महकमा और दिमाग महानगरपरिषद् के दफ्तर की तरह, जहां सब विभागों की फाइलें रहती हैं। स्वच्छता, निकासी, जलापूर्ति, विद्युतनिगम किसी को कभी फुर्सत नहीं। जब शहर नया, अर्थात युवा होता है तो कहीं किसी बात की कमी नहीं, सब मिलता रहता है। पुराना हो तो सौ झंझट। मुंह से दांत गिरा तो लगता है जैसे कोई पुराना कर्मचारी रिटायर हो गया। अब यदि इसकी जगह नई भर्ती हो जाए तो ठीक, सब काम फिर सुचारू हो जाएगा, पर बजट कटौती के चलते पद खाली ही रखा गया तो नई मुसीबतें।
सर पर होता है शहर का कंपनी बाग़, या सेन्ट्रल पार्क। कहीं घने पेड़-पौधे, तो कहीं मामूली घास - फूस और कहीं केवल मैदान ही मैदान।
इसी शहर में आँखों के रास्ते दिमाग को जाने वाली एक लाइब्रेरी भी होती है। इसमें जितना कुछ जमा रहता है, बदन बाग़ उतना ही गुलज़ार रहता है।
जब हम कोई किताब पढ़ते हैं तो किताब में फ़ैली सारी दुनिया हमारी इस लाइब्रेरी में छप जाती है। एक उपन्यास या कहानी में देखा सारा का सारा परिद्रश्य या कैनवास जाकर हमारे जेहन में ऐसे बस जाता है, जैसे किसी बड़े नगर के दालान में छोटी-छोटी असंख्य बस्तियां। कहानियाँ हमारे जिगर-कुंड को आबाद करती हैं, तो कवितायेँ इसकी फुलवारियों में रंग भी भरती हैं।
कभी-कभी किसी मासूम युवा कवि की उदासी-भरी कविता भी मन के पतझड़ को मिटा कर वहां कोंपलों ही कोंपलों की सावनी आवनी लिख जाती है। जी हरा-भरा हो जाता है। कभी किसी सिद्धहस्त कलमकार की कहानी मन-क्यारी में विचरते मयूरों को दाना डाल जाती है तो मानस गुनगुनाने लग जाता है। कभी किसी नए मौसम की कवयित्री का गीत फडफडाते नयनों से किसी परदेसी युवक को पानी पिलाते नीर-सागर की थाप सा अँगुलियों-अंजुरियों में गुदगुदा जाता है।

Thursday, July 29, 2010

सॉरी नानाजी अब आप बूढ़े हो गए

हमने कभी पढ़ा था कि धरती सूरज के टूटने से ही बनी है, इसी से सूरज के इर्द-गिर्द परिक्रमा करती रहती है। बचपन से ही सूर्य की महिमा जीवन में घुली-मिली देखी। हमें कहा जाता था कि सूर्योदय से पहले उठो। ब्रह्ममुहूर्त, जब सूरज निकलने को हो, सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय माना जाता। पढ़ने के लिए इसी समय के उपयोग की सलाह दी जाती।
दिन के कार्यकलाप भी सूरज के रथ के साथ ही आगे बढ़ते। सांझ को जब सूर्य के क्षितिज पर ओझल होने की घड़ी आती, कहा जाता कि इस समय घर में मत बैठो, बाहर खेलो या टहलो। जाते सूरज की लालिमा आँखों में भरने के लिए लोग सूर्यास्त को निहारा करते। यहाँ तक कि मशहूर दर्शनीय स्थलों पर घूमतेसैलानियों के लिए विशेष सनसेट पॉइंट बनाए जाते।
गावों में तो यह आलम था कि इसी समय को गोधूलि वेला कहा जाता, और यह सारे दिन का पटाक्षेप मानी जाती। दिन ढलते ही घर लौटने और दिया-बाती होते समय घर में ही रहने की कोशिशें की जातीं।
अब सब कुछ बदल गया है। सूरज की कहीं किसी को परवाह नहीं रही। समष्टि रूप में चाहे हो भी, व्यष्टिगत रूप में तो सब बेपरवाह हैं सूरज से। रात देर तक चलते काम या पढ़ाई के कारण देर तक सोना स्वाभाविक है। जल्दी उठना लोगों की आदत में ही नहीं रहा। जहां कभी बच्चों की परीक्षाएं सुबह-सवेरे ली जाती थीं, १५ अगस्त और २६ जनवरी को सूर्योदय के समय प्रभात-फेरियां निकाली जाती थीं, अब सुविधाजनक समय पर सब हो गया है। सुबह उठना कष्टकर है और बिना बात कष्ट सहा भी क्यों जाए? कष्टों से निजात पाना, जीवन को सरल बनाना ही हमारा अभीष्ट भी है। परन्तु हम चाहे सूरज को अनदेखा कर दें, वह अपना काम कर रहा है, पार्श्व में रह कर घर का संरक्षण कर रहे किसी बूढ़े की तरह।
क्या आपने यह कहानी सुनी है - सुबह के समय स्कूल जाते एक बच्चे ने साथ चलते अपने दोस्त से पूछा - बादल क्या है?
दोस्त ने जवाब दिया, यह धरती ने अपनी गर्म साँसों से आसमान को संदेश भेजा है। तभी बरसात होने लगी। बच्चा बोला,शायद धरती के संदेश का जवाब आ गया। सूरज धुंध में छिपकर सब देख रहा था। मगर बच्चों को विद्यालय के लिए देर हो रही थी, इसलिए बोला - नो कमेन्ट।

Wednesday, July 28, 2010

रोगियो अपने गिरेबान में भी झांको

डाक्टरों का काम बड़ा मुश्किल है। उन्हें मरीज़ को स्वस्थ करने से नाम मिलता है, और बीमार रखने से काम। यदि वे लोगों को यह समझाने लगे कि रोग का इलाज करने से अच्छा है, उससे बचाव, तो वे खायेंगे क्या?
असल में डाक्टर भी अब दो तरह के हो गए हैं। एक वे, जो सोचते हैं कि यह सम्मान का पेशा है, सेवा का काम है, पैसा भी ठीक मिलता है। [यद्यपि यह नस्ल बहुत ही कम बची है, और विलुप्त होने के कगार पर है]
दूसरे वे, जो सोचते हैं कि हम लाखों रुपये खर्च करके डाक्टरी में गए, सालों तक कड़ी मेहनतवाली पढ़ाई कर के जीवन का सबसे कीमती समय किताबों में गुज़ारा,तो अब हमें हर तरह से कमाने का भी पूरा हक़ है।
वे मरीज़ से हाल बाद में पूछते हैं, पहले यह पूछते हैं कि क्या उन्हें इलाज़ के पैसे की प्रतिपूर्ति होती है? यदि उत्तर हाँ में मिलता है तो बस फिर उन्हें ऐसा लगता है, कि जितना भी हो सके, खींच लो। वे अपने मन को यह कह कर समझा लेते हैं कि हम रोगी से थोडेही ले रहे हैं, हम तो बीमा कंपनी या नौकरी देने वाली कंपनी से ले रहे हैं।
यदि रोगी कहता है कि उसे इलाज का पैसा कहीं से नहीं मिलेगा, तो उनके चेहरे पर ऐसा भाव आ जाता है कि भगवान् पर भरोसा रखो।
उदयपुर, राजस्थान के मशहूर त्वचा रोग विशेषग्य डॉ असित मित्तल कहते हैं कि जिस तरह कपड़ा महंगा भी होता है, और सस्ता भी, खाना साधारण ढाबे का भी होता है, फाइवस्टार होटल का भी, उसी तरह दवाइयों में भी वर्गीकरण है-सस्ती भी होती हैं, महंगी भी। यदि रोगी अच्छा अफोर्ड कर सकता है तो क्यों न करे? यदि पैसा कंपनी देगी तो आसानी होगी।
दिल्ली की सुविख्यात डाक्टर प्रतिमा के अनुसार ऐसा हम इसलिए पूछते हैं कि यदि पैसा वापस मिल जाने की सुविधा है तो अच्छा -पूरा इलाज लिख देते हैं, नहीं तो ज़रूरी मात्र। अब यदि हम किसी दिहाड़ी मजदूर से कह दें कि रोज फल खाओ, दूध पियो, तो वह क्या करेगा?
डाक्टर अजय गोयला का मानना है कि हम महंगी दवा लिखें या सस्ती, मरीज़ तो अपना बजट देखता है। महंगी दवा होती है तो कम ले लेता है, बीच में छोड़ देता है। इसलिए उसकी आर्थिक स्थिति जानना ज़रूरी होता है।
दिल्ली के डॉ दीपक गोविल ने एक बार मुझे बताया था कि रोगी भी तो अलग-अलग मानसिकता वाले होते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं कि जब तक आप महँगा इलाज नहीं लिखो, उन्हें विश्वास ही नहीं होता। वह बड़े डाक्टर का पैमाना ही यह मानते हैं कि जो ज्यादा फीस ले, महंगा इलाज करे।
जयपुर के कान,नाक और गला विशेषज्ञ डॉ प्रकाश मिश्रा का विचार है कि आजकल मिलावट का भी ख़तरा रहता है। सस्ती चीज़ लिखते हैं तो डर रहता है कि कहीं नकली न मिल जाए। इसी से महंगे इलाज पे जाते हैं, कि कुछ नामी कंपनियों पर ये भरोसा तो होता ही है कि ये चीटिंग नहीं करेंगी।
दिल्ली की मेडिकल छात्रा अदिति का कहना है कि मैं चाहे थोड़े लोगों का इलाज करूं पर मन से करूंगी। धन की भूमिका बीच में नहीं आयेगी। पैसे कमाने के लिए तो और भी बहुत सारी सुविधाएं हैं, रोगी को गलत जानकारी देकर क्या कमाना?
रेलवे के वरिष्ठ डाक्टर बृजेश तो उलटा सवाल ही दाग देते हैं- आज पढ़ाई सस्ती रह गयी है? ज़मीनों के भाव कम हो रहे हैं? पेट्रोल और साग-सब्जी की महंगाई कम हो रही है? फिर इलाज ही कैसे सस्ता होगा। डाक्टरों की फीस के बराबर पैसे तो नाई बाल काटने के ले रहे हैं।
स्त्री रोगों की सुप्रसिद्ध विशेषज्ञा डॉ रीना बताती हैं कि जब मेरे सामने कोई रोगी आता है तो पैसा, फीस, सुविधाएं, ये कोई बात मेरे जेहन में नहीं आती। मेरा दिमाग तो इस बात के लिए दौड़ता है कि इसे कैसे जल्दी से स्वस्थ किया जाए।
चिकित्सकों की इन गहरी बातों से तो यही लगता है कि मरीज़ यदि विश्वास करके डाक्टरों में भगवानढूंढेगा, तो उसे भगवान ही मिलेंगे। हाँ, हर बात पे शक करेगा तो हकीम लुकमान भी शायद कुछ न कर सकें।

कागज़ की नाव और छोटे- बड़े सफ़र ज़िंदगी के

मुझे याद है बचपन में जब हम स्कूल में पढ़ते थे, तब आख़िरी पीरियड हमेशा चित्रकला, अर्थात ड्राइंग का आता था। टीचर द्वारा हमें कागज़ बांटा जाता और हम उस पर चित्रकारी किया करते थे। सालभर में सौ कागज़ पूरे करने होते थे।
मैं अक्सर देखता कि बच्चों का मन चित्रकारी में ज्यादा नहीं लगता था। वे कागज़ लेकर उस पर जल्दी- जल्दी कुछ भी बनाते और इस फ़िराक में रहते कि कागज़ वापस जमा करा कर जल्दी से बाहर खेलें। टीचर बार-बार उन्हें समझाकर चित्र को और गहराई से बनाने तथा कागज़ को पूरा इस्तेमाल करने को कहतीं।
सत्र शुरू होने पर ख़बरें आती थीं कि कागज़ की कमी होने से कॉपी- किताबें महंगी हो रही हैं। आसानी से नहीं मिल रही हैं। देर से बाज़ार में आरही हैं। पढ़ाई बाधित हो रही है। बड़ी कक्षाओं के बच्चे भी स्लेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, आदि-आदि।
नौकरी लगी तो ऑफिस में कागज़ व स्टेशनरी की बचत की हिदायतें सुनीं। कभी बड़े अफसर दौरे पर आते तो हमारी मेजों पर यह देखते कि कहीं हमने कागज़ खराब तो नहीं किये? रफ कार्य करने के लिए रद्दी कागज़ प्रयोग करने की सलाह दी जाती। एक अधिकारी तो बड़े गर्व से बताते कि वे उनके पास आने वाली चिट्ठियों के लिफ़ाफ़े फाड़ कर ड्राफ्टिंग के काम में लेते हैं।
मुंबई में मैं एक बार एक अखबार के लिए डॉ. हरिवंश राय बच्चन का साक्षात्कार लेने गया तो वे बोले- " किताबों में बीच में खाली जगह छोड़ना मुझे लक्ज़री लगती है। नईकविता में पंक्तियाँ तो बहुत कम होती हैं, सफा खाली छूटा रहता है। मेरा मन करता है कि इस खाली पड़े कागज़ पर अपनी कविता लिख दूं। "
अमृता प्रीतम ने तो यहाँ तक कहा था कि मेरी आत्मकथा के लिए कागज़ नहीं चाहिए, वह तो एक टिकिट पर लिखी जा सकती है। कई बड़े कवियों के सिगरेट की डिब्बियों पर कविता लिखने की बात सुनी। कई मशहूर ग़ज़लों के शेर, सुना है सिगरेट की डिब्बियों पर ही लिखे गए हैं। पुराने कवियों के पास कागज़ नहीं था। वे पत्तों पर ही लिख कर अपने समय की अँगुलियों के अक्स हमारे लिए छोड़ गए। लिखने की सुविधा न होने से कुछ कवियों ने गाने और बोलों को कंठस्थ करने की प्रक्रिया अपनाई।
जब अमेरिका में आया तो सवेरे की शुरुआत कागज़ से ही हुई, शौचघर में।
जब भी बाहर खाना खाने जाते हैं तो चाहे थाई, मलेशियन, वियतनामी, टर्किश,चाइनीज़ या भारतीय, कोई भी खाना हो, परोसने वाले पहले बड़ी सी शफ्फाक कागज़ की शीट मेज़ पर बिछाते हैं। ऐसी, जैसी हमें केवल परीक्षा के दौरान चित्र बनाने को मिलती थी, और हम उस पर रंग का एक-एक कतरा हिफाज़त से इस्तेमाल करते थे, क्योंकि दोबारा लेने की मनाही थी। खाने के बाद में हाथ पोंछने के लिए कागज़, मुंह पोंछने के लिए कागज़।
यहांतक कि न्यूयॉर्क में एक पार्क में घूमते हुए एक बूढ़ी महिला को देखा, जो अपना सामान लिए सड़क के किनारे गुमसुम बैठी थी। मैंने बेटे से पूछा- क्या,यह कुछ बेचने वाली है? उसने मुझे बताया कि बेच नहीं रही, शायद होमलैस है या धन की मदद मांग रही है। मैं उसे गौर से देखने लगा। थोड़ी ही देर में उसने एक सफ़ेद- साफ कागज़ का नेपकिन अपने झोले से निकाला, और अपनी नांक पोंछने लगी।
बचपन में मेरे पिता कहा करते थे कि मेरी गणित इसीलिये कमज़ोर है, क्योंकि मैं सवालों को लिख कर बार-बार नहीं दोहराता। पर मेरा मन कहता था कि बार-बार नया कागज़ लेकर सवाल कैसे लिखूं? मैं कागज़ बचाने के लिए अंगुली से मिट्टी में लिख कर सवाल हल करता था।
आज यदि मेरे पिता जीवित होते तो मैं उनसे कहता कि एक सवाल के लिए बार-बार कागज़ लेने वाला गणितज्ञ बनने की नहीं, मेरी ख्वाहिश तो ज़िन्दगी के हर सवाल का जवाब एक ही कागज़ पर इस तरह लिख लेने की है जिसे हजारों बार पढ़ा जाए।

Tuesday, July 27, 2010

शिष्यों से क्यों न सीखें?

न्यूयॉर्क के बहुत बड़े हिस्से को घेर कर हडसन नदी बहती है। आसमान चूमते इमारती जुनून की सबसे चकाचौंध बस्ती मेनहट्टन के एक ओर से यह अथाह पानी अठखेलियाँ करता विचरता है। इस पर मिनट-दर-मिनट लुभावने जहाज और कश्तियाँ ऐसे फिसलते से गुज़रते हैं कि सैलानी तो आनंद-विस्मित होते ही हैं, देखने वाले भी आल्हादित होते हैं। योर्क एवेन्यू पर रौकफेलर विश्वविद्यालय के समीप गुज़रती हडसन के किनारे देर रात तक बैठे रहने का अपना अलग ही आनंद है। यहाँ से नदी के पार जाते पुलों और बस्तियों की लाइटें रात में नौ लाख सितारों व नौ करोड़ जुगनुओं की दीवाली का सा अहसास देती हैं।चन्द्रमा भी यहाँ इमारतों के बीच के आकाश की पतली फांकों से झांकता सकुचाता सा निकलता है। तीन-चार विश्वस्तरीय मेडिकल कालेज यहीं स्थित हैं जिनकी भव्यता नयनाभिराम है। यहाँ रोग-शोक स्थापत्य की आधुनिक कारीगरी में ऐसे छिपकर बैठा है कि यह नज़ारा कहीं से भी बीमारों से वाबस्ता नहीं लगता।
जॉगिंग, साइकलिंग व घूमने के अलावा शाम और रात को कई लोग अपने कुत्तों को टहलाने भी यहाँ लाते हैं। दुनिया के कई देशों के लोग, एक से एक आभिजात्य-पसंद और सम्पन्न लोग। लेकिन हवाखोरी के लिए घूमते समय जब इनके साथ चलते कुत्ते कहीं शौच कर देते हैं तो तुरंत ये हाथ में पकड़े पोलीथिन बैग में कुत्ते की विष्ठा खुद उठा लेते हैं और उसे एवेन्यू में जगह-जगह लगे बंद कचरा पात्रों में इस तरह डालते हैं कि बाहर न मैल रहे न दुर्गन्ध।
इस द्रश्य की तुलना जब मैं भारत की पवित्र मानी जाने वाली नदियों व आलीशान मानी जाने वाली गलियों से करता हूँ तो लगता है कि हम ऐसी बातों में भी इनलोगों से कितना पीछे छूट गए जो हम आसानी से कर सकते हैं।
इतना सा यदि हम कुत्तों क्या अपने बच्चों के लिए भी कर दें तो हमारे कई पवित्र धाम दूषित होने से बच जाएँ।
माना कि प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान में हम यूरोप और अमेरिका के भी गुरु रहे हैं, पर चंद अच्छी बातें यदि गुरु भी शिष्यों से सीख लें, तो क्या हर्ज़ है?

श्राप नहीं शुभकामनाएँ

पिछले दिनों अमेरिका के कई शहरों- वाशिंगटन, बोस्टन, बफलो, अल्बनी, पिट्सबर्ग, अटलांटिक सिटी,ट्रॉय, नेशुआ, न्यूजर्सी, ग्रोव सिटी आदि में जाने का संयोग हुआ। न्यूयॉर्क में मैं काफी समय से रह रहा हूँ। यहाँ रहते हुए मुझे हमेशा मुंबई की याद आती है, जहां मैंने जीवन के ग्यारह वर्ष गुज़ारे हैं। दिल्ली में मेरे सातवर्ष निकले हैं जिसकी स्वाभाविक तुलना वाशिंगटन से है। भारत में मैं जयपुर, जबलपुर, उदयपुर, कोटा, कोल्हापुर, ठाणे, पुणे आदि शहरों में भी रहा हूँ। भारत के लगभग सभी प्रान्तों के सैंकड़ों शहरों और गाँवों में भी मैं घूमा हूँ। मैं विभिन्न मंदिरों, मस्जिदों, चर्च, गुरुद्वारों और अन्य पूजास्थलों में भी गया हूँ। मैंने लोगों को बहुत करीब से और तरह-तरह से देखा है। तीन वर्ष पहले तो मुझे चार महीने के समय में सड़कमार्ग से ६४००० किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ी थी, जहां मैं राजस्थान प्रदेश के सभी ३३ जिलों में कई बार गया। बीच में एक राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय सचिव के रूप में भी मेरी लगातार यात्राएं हुईं।
इन सब स्थानों को याद कर के मैं केवल यह कह रहा हूँ कि इंसान आधारभूत रूप से हर जगह कमोबेश एक सा ही है। सुख- सुविधाएँ मिलें तो अपने और अपनों में खोया हुआ, और कष्ट-मुसीबतें मिलें तो दूसरों की ओर देखता हुआ। सुख-सुविधा में होते हुए भी यदि अपवाद-स्वरुप लोग दूसरों की ओर देखते हुए मिलते हैं तो उन में अपनी सुख-सुविधा का प्रदर्शन करके उसे और कई गुना बढ़ा लेने की प्रवृत्ति ही अधिक दिखती है।
मैं किसी जगह के इंसान की बुराई नहीं कर रहा। फिर भी मैं मन से चाहता हूँ कि इंसान के जीवन में थोड़े कष्ट-मुसीबतें बने रहें ताकि वह दूसरों की ओर देखने की अपनी प्रवृत्ति बनाए रखे। यह इंसानियत को कोई श्राप नहीं बल्कि शुभकामनाओं जैसा है।

Monday, July 26, 2010

पश्चाताप रजिस्टर

कई बार ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति जब अपने उदगार व्यक्त करता है तो वह उदगार एकाएक प्रसिद्ध हो जाते हैं। महान व्यक्तियों की बातें तो आगे चलकर सूक्तियां बन जाती हैं। ऐसे में बाद में यदि स्वयं वह व्यक्ति भी उन विचारों को बदलना चाहे तो लोग यकीन नहीं करते।
कल रात सोते समय कुछ महान हस्तियाँ मेरे स्वप्न में आगईं। ऐसा लगता था जैसे उन्हें अपनी कही बातों पर पश्चाताप हो रहा हो। वे अपनी कही गई बातों में कुछ परिवर्तन करना चाहते थे।
मैंने तुरंत एक रजिस्टर और पैन अपने सिरहाने रख लिया। और उस पर स्वप्न में आने वाली हस्तियों के लिए नोट लिख दिया, कि आप अपने उद्गारों में जो भी परिवर्तन करना चाहें, कृपया इस पर लिख कर हस्ताक्षर कर दें।
सुबह रजिस्टर के कई पृष्ठ मुझे भरे हुए मिले। नीचे हस्ताक्षर भी थे। कुछ बानगियाँ आपके लिए प्रस्तुत हैं-
आराम हराम है [सरकारी कर्मचारियों पर लागू नहीं ]
बातचीत से हर बात का हल निकल सकता है [पाकिस्तान और नक्सलियों को छोड़कर ]
तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा , पर तुम्हें आज़ादी मिल गयी तो तुम खूनखराबा करोगे।
आज़ाद व्यक्ति ही कुछ मांग सकता है, बंदी क्या मांगेगा [ फ़िल्मी सितारा हो तो गद्दा और मच्छरदानी मांग सकता है]
तुम जीवनभर बच्चे नहीं बने रह सकते, किन्तु बचकानी बातें उम्रभर करते रह सकते हो।
परहित के समान कोई धर्म नहीं है, पर धर्म परहित नहीं स्वहित है।
स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, यह बात अलग है कि हमें ढंग से स्वराज चलाना आता नहीं।
जय जवान, जय किसान, कुछ मारे जा रहे हैं, कुछ आत्महत्या कर रहे हैं।
सत्य की विजय होती है, पर काफी समय बाद और खूब खर्चा कर के।
ज्ञान ऐसा खज़ाना है जो कभी नष्ट नहीं होता पर डिग्रियां सम्हाल कर रखना, काम वही आयेंगी।
मेरा भारत महान, आंकड़े चाहें कुछ भी कहते रहें।
हरिजन ईश्वर की संतानें हैं, बाकी के लिए डी एन ए रिपोर्ट देखें।

ईर्ष्या क्यों न खरीदे कोई ?

जब हम जीवन में कोई भी बड़ा काम करते हैं तो उसके परिणाम भी अलग-अलग होते हैं।
कई लोग अपनी पढ़ाई में ऊंचाइयां छूते हैं। कोई नौकरी में सफलता-दर-सफलता से गुज़रता है। कोई व्यापार में शिखर चूमता है।
कभी सोच कर देखिये, आपकी कोई भी उपलब्धि होने के बाद लोगों को कैसा लगा?
हम घर में कोई नया सामान भी खरीद कर लाते हैं तो हम फूले नहीं समाते। अपनी खुशी की लहर में वो चीज़ हम अपने मिलने वालों,पड़ोसियों या रिश्तेदारों को भी चाव से दिखाते हैं। क्या आपको लगता है कि आपकी खुशी दूसरों को भी खुश करती है?उन्हें यह अच्छा ही लगता है कि आपने कोई सफलता अर्जित की।
औरों की छोड़िये खुद अपनी बात कीजिये, क्या आप दूसरों को सफल होते देख कर खुश होते हैं? या तुरंत उनकी तुलना अपने से करने लग जाते हैं- क्या हुआ जो उन्हें यह चीज़ मिल गयी। हमें तो इससे भी अच्छी मिली थी। कहीं ऐसा तो नहीं सोचते आप?
यदि ऐसा सोचते भी हैं तो यह गलत नहीं है। क्योंकि आपकी यह सोच कोई सोची-समझी प्रतिक्रया नहीं बल्कि एक स्वाभाविक प्रतिक्रया है। मानव श्रेष्ठता की होड़ का एक मोहरा है ही। यही स्पर्धा तो जीवन में और बेहतर बनाती है। इसी से तो हम जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होते हैं।
कभी-कभी आप साफ देख लेते हैं कि दूसरे आपकी सफलता से जल रहे हैं। लेकिन फिरभी दूसरों की ईर्ष्या की वजह से हम सफल होना या सफल होने की कोशिश करना छोड़ तो नहीं सकते। क्यों छोड़ें?
हम जीवन केवल दूसरों के लिए नहीं जी रहे। हमें जो अच्छा लगता है उस पर पहला हक़ हमारा है। हमें जो वस्तु पसंद है उसे हासिल करना कोई गलत नहीं है। उलटे यदि हम दूसरों को खुश करने के लिए कोई उपलब्धि छोड़ते हैं तो वह अस्वाभाविक है।
दुनिया में कोई एक सबका जीवन अच्छा नहीं बना सकता। सबको अपना-अपना बनाना ही चाहिए। आज़ादी के लिए किसी गांधी, शान्ति के लिए किसी गौतम, मर्यादा के लिए किसी राम या प्रेम के लिए किसी कृष्ण का इंतज़ार यह युग नहीं कर सकता। सब अपनी-अपनी इबारत ठीक से लिख दें, वही बेहतर होगा।
कहते हैं-एक बार एक अध्यापक अपने विद्यार्थियों को समझा रहा था कि दुनिया में हमारा जन्म दूसरों की सेवा करने के लिए हुआ है। एक छात्र ने पूछ लिया - सर, दूसरों का किसलिए हुआ है?
यह एक सामान्य वार्तालाप है। पर देखिये, क्या आपको नहीं लगता कि छात्र के विचार यहाँ शिक्षक से ज्यादा व्यावहारिक हैं?

Sunday, July 25, 2010

घोटालों का थर्मामीटर

जब कोई खिलाड़ी रिकार्ड तोड़ता है तो इसका मतलब यह है कि वह अपने पूर्ववर्ती खिलाड़ियों से बेहतर खेला.जब कोई फिल्म रिकार्ड तोड़ती है तो इसका भी मतलब यही है कि उसने अपने पूर्व प्रदर्शित फिल्मों से ज्यादा कमाई की.ऐसी घटनाएं हमें आल्हादित करती हैं, रोमांचित करती हैं.
लेकिन जब हम किसी अखबार में पढ़ते हैं कि किसी नेता ने रिकार्ड तोड़ा,तो हम भयभीत हो जाते हैं.हमारा सर शर्म से झुक जाता है क्योंकि हम तुरंत समझ जाते हैं कि इस बार इतना बड़ा घोटाला हुआ जितना पहले कभी नहीं।
हमारी नई पीढ़ी को यह जानना ही चाहिए कि आखिर घोटाला किसे कहते हैं? नौजवानों को घोटाले की परिभाषा भी मालूम होनी चाहिए और इसके गुण-अवगुण भी. क्योंकि देश अब उन्हीं के हवाले है. यदि घपलों-घोटालों की आंधियां ऐसे ही चलती रहेंगी तो युवाओं को ही देश की नैया इन तूफानों से निकाल कर ले जानी है.ऐसा कह कर मैं देश के सभी उम्रदराज़ लोंगों का अपमान नहीं कर रहा.मेरा मतलब यह भी नहीं है कि सभी प्रौढ़ या वृद्ध लोग बेईमान हैं.मैं जो कह रहा हूँ उसका मतलब यह है कि उम्रदराज़ लोग धीरे-धीरे शरीर और मन से अशक्त हो जाते हैं.उन में सुधार का जज्बा नहीं रह जाता. वह यथास्थितिवाद के आदी हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि अब कुछ नहीं हो सकता, जो हो रहा है होने दो, बस अपना दामन किसी तरह बचालो।
पर नए लोग ऐसा नहीं सोचते.उन्हें ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए.उन्हें तो हर ऐसी बात की तह में जाना चाहिए जो देश या समाज को नुकसान पहुंचाती हो.उसके बारे में जानने के बाद उसके सुधार के भरपूर प्रयास भी करने चाहिए.शक्ति युवा हाथों में ही होती है.हौसला युवा जिगर में ही होता है।
घोटाले की सब से आसान परिभाषा है -चीज़ों,बातों या नियमों को आपस में इस तरह अस्तव्यस्त कर देना कि वे आसानी से पहचानी न जा सकें, फिर सुविधाएं हड़प लेना।
घोटालों की प्रवृत्ति पहचानने के लिए कुछ साधारण से प्रयोग कीजिये.आपने देखा होगा कि जब हम किसी बस में चढ़ते हैं तो वहां सीटों पर नंबर पड़े हुए होते हैं.हमें अपनी टिकट पर दिए नंबर के अनुसार सीट लेनी होती है.आप गौर से देखिये और लोगों की बातें सुनिए. कुछ लोग आपको ऐसे मिलेंगे - अरे क्या फर्क पड़ता है, कोई कहीं बैठ जाओ... कुछ ऐसे मिलेंगे - ये मेरी सीट है, आपका सामान हटाओ. तीसरे ऐसे मिलेंगे - ये सीट मेरी है, आपकी उधर है, लाइए आपका सामान उधर रख दूं।
यहाँ पहले किस्म के लोग घपले की मानसिकता को प्रश्रय देने वाले हैं.दूसरे खालिस आम आदमी हैं, और तीसरे अनुशासन व न्यायसंगतता के पक्ष धर हैं।
बचपन में ही बच्चों में घोटाले की प्रवृत्ति परखने के लिए यह प्रयोग कीजिये - एक कक्ष में २५ कुर्सियां रख कर उन पर कोई भी २५ नंबर डाल दीजिये. क्रम से नहीं, कैसे भी रखिये. अब बच्चों को बाहर खड़ा कर के १ से २५ नंबर अलॉट कर दीजिये. अब उन्हें कहिए कि एक मिनट में उन्हें भीतर जाकर अपने नंबर की कुर्सी ढूंढकर उसपर बैठना है. १ मिनट तक घंटी बजेगी. घंटी रुकते ही उन्हें कुर्सी पर ज़रूर बैठ जाना है अन्यथा वे आउट हो जायेंगे।
अब खेल शुरू कीजिये और परिणाम देखिये।
जो बच्चे निर्धारित समय में अपनी सही जगह ढूंढ कर बैठ जायेंगे वे जीवन में अनुशासन मानने वाले हैं. जो नंबर नहीं ढूंढ पाने पर खड़े ही रह जायेंगे वे परिस्थितियों के हाथों भविष्य सौंपने वाली मानसिकता के हैं. और जो नंबर नहीं ढूंढ पाने पर भी बैठ जायेंगे, वे आगे चल कर घपलों की मानसिकता वाले हैं.

Saturday, July 24, 2010

मैं उस पर गर्व क्यों करूं?

मैं शाम के समय एक बगीचे में टहल रहा था ,तभी मुझे एक छोटा सा,प्यारा सा बच्चा दिखा.मैंने बच्चे से कुछ बात करने की गरज से उसकी ओर हाथ हिला दिया .मैंने सोचा था किवह हंस कर जवाब देगा पर इसके विपरीत उसने तो दूसरी ओर मुंह फेर लिया.मुझे लगा, कोई उसके साथ होगा जिसे आगे-पीछे हो जाने के कारण बच्चा ढूंढ रहा है,इसी से परेशान सा भी दिख रहा है.पर बड़ी दूर तक बच्चे के आगे पीछे कोई न दिखा.मैं हैरान था कि इतने से बच्चे को पार्क में अकेला भला कौन छोड़ गया.मैं आगे बढ़ कर बच्चे से मुखातिब हुआ-तुम कहाँ जा रहे हो?आओ ,हमारे साथ खेलो।
अब मेरे चौंकने की बारी थी .बच्चा उसी तरह गंभीर मुद्रा में चला जा रहा था और चलते-चलते ही भारी आवाज़ में बोला -आत्माएं किसी के साथ खेलती नहीं हैं.मैं भयभीत होकर ठिठक गया.फिर भी साहस कर बोला-तुम किस की आत्मा हो,और कहाँ से आरहे हो?
बच्चा बोला-मैं अपनी ही आत्मा हूँ ,बगीचे के दूसरी तरफ आज मेरी माँ की मूर्ति लगाईं जा रही थी , उसी को देखने आया था।
तुम्हारी माँ कौन हैं और उनकी मूर्ति क्यों लगाईं जा रही थी?मैंने पूछा।
बहुत साल पहले मेरी माँ एक राजा के यहाँ काम करती थी.वह मेरे साथ-साथ राजा के पुत्र की देखभाल भी करती थी.मेरे हिस्से का अपना दूध भी कभी-कभी उसे पिला देती थी.एक दिन राजा के ऊपर किसी ने आक्रमण कर दिया.वह राजा के बेटे को भी मारने के लिए हाथ में नंगी तलवार लेकर आने लगा.तब मेरी माँ ने मुझे झटपट राजकुमार के कपड़े पहना कर उसकी जगह सुला दिया और राजकुमार को गोद में लेकर छिप गयी।
अरे,फिर? मैंने पूछा।
फिर मैं मारा गया.राजकुमार बच गया.मेरी माँ को कर्तव्यनिष्ठा का पुरस्कार मिला और इतिहास ने उसे महान घोषित कर दिया.इसी से आज कई सौ वर्ष बीतने के बाद भी उसकी स्वामिभक्ति की मिसाल को ज़िंदा रखने के लिए उसकी प्रतिमा यहाँ बगीचे में लगाईं गयी है।
अरे,तब तो तुम महान हो.फिर आत्मा के रूप में भटक क्यों रहे हो?
वह बोला-मैं महान नहीं हूँ.मेरी माँ महान है.उसने राज्य के राजा को बचाने के लिए मेरी कुर्बानी देदी.अपने बेटे की।
तब तो तुम्हे अपनी माँ पर गर्व होना चाहिए .उसने अपने कलेजे के टुकड़े से ज्यादा अपने राज्य को माना।
यह सब बड़ी-बड़ी बातें हैं.मैं यह नहीं समझता.मैं तो यह जानता हूँ कि वह मेरी माँ थी,मेरे ऊपर आने वाले किसी भी संकट को अपने ऊपर लेने की जगह उसने तो मुझे ही संकट में डाल दिया.क्या माँ की ममता यही होती है?एक कर्मचारी के रूप में उसकी कर्तव्यनिष्ठा ही सब कुछ थी?क्या माँ की ममता का कोई महत्व नहीं था?
मैं निरुत्तर हो गया.वह बोला- मेरे ह्रदय में बैठ कर सारी बात को सोचो.फिर बताओ मैं उस पर गर्व क्यों करूं?
मैंने डरते-डरते कहा-पर अब कई युग बीत चुके हैं.करोड़ों बच्चे तुम्हारी माँ की महानता के बारे में जान चुके हैं,तुम इतनी देर से यह सवाल क्यों उठा रहे हो?
क्योंकि इस युग में स्वार्थी,निकम्मे और भ्रष्ट राजा आये हैं.इनके लिए गलती से भी कहीं इनकी प्रजा जान न देदे ,इसलिए।
[मेरी नई किताब -" इतिहास बदलने की अनुमति है", से उद्धृत अंश ]

Friday, July 23, 2010

वह किलकारी भरेगी,कराह नहीं

हमारे देश ने जब अपना राष्ट्रगीत,राष्ट्रध्वज,राष्ट्रीय पशु या राष्ट्रीय पक्षी चुना तो शायद कोई बड़ा विवाद सामने नहीं आया.सब कुछ आसानी से हो गया.किन्तु जब राष्ट्रभाषा की बारी आयी तो काफी बावेला मचा.इसका कारण यही था कि विविधता भरे हमारे देश में अनेकों भाषाएं मौजूद थीं.अपने-अपने तर्क,वितर्क और कुतर्कों के सहारे हम अभी तक इस रहस्य भरे इंतजार में हैं कि यह लड़ाई आखिर कौन सी भाषा ने जीती?हर साल चौदह सितम्बर को लगता है कि हिंदी,हिंदी और हिंदी, परन्तु बाकी के
तीन सौ चौंसठ दिन दिखाई देता है कि हिंदी ???बेचारी हिंदी।
हिंदी की जंग अपने-अपने तरीके से असंख्य लोग लड़ रहे हैं.और अभी तक के परिणाम शर्मनाक भले ही हों खतरनाक नहीं हैं.खतरा हिंदी को किसी से नहीं बल्कि हिंदी से कई लोगों को दिखता है।
यहाँ हम बात करते हैं देश के एक और गौरव - राष्ट्रपिता की.कभी-कभी लगता है कि हमने राष्ट्रपिता बनाकर कहीं देश के लिए बुढापे का पेड़ तो नहीं बो दिया? राष्ट्रपिता के चलते ही देश के पहले प्रधानमंत्री चाचा हो गए.देखते-देखते पीढियां बदल गयीं और देश ने राष्ट्रदीदी और फिर सन ऑफ इंडिया देखे.देश के साठसाल का होते-होते राष्ट्रपोतों का ज़माना आना ही था.और भारतमाता सबके देखते-देखते दादी अम्मा बन गयीं.इस तरह देश बूढा होता चला गया।
क्या इस बुढापे का कोई इलाज नहीं है?
इलाज है न .मेरे एक पुराने परिचित हैं.एक दिन विस्तार से अपने जीवन के बारे में बताने लगे.बोले-बचपन में मोहल्ले की टीम में क्रिकेट खेलता था,थोड़ा बड़ा हो गया तो लड़कों ने खिलाना बंद कर दिया.मैं गाँव की युवा टीम में आ गया.कुछ साल में वहां भी ओवर एज हो गया.तो खेल से जी ही उचाट हो गया.तब मैं लिखने लगा और साहित्यकार बन गया.यहाँ लोग मुझे युवा लेखक कहते थे.जी खुश हो जाता था.पर कुछ साल निकले कि लोग मुझे वरिष्ठ साहित्यकार कहने लगे.मैंने झटपट लिखने से तौबा कर ली.सोचा,इस से पहले कि लोग मुझे वयोवृद्ध साहित्यकार कहें मैं फील्ड ही बदल लेता हूँ.तब मैं अपने कस्बे की राजनीति में आ गया.अब लोग मुझे युवा नेता कहने लगे.फिर मन हराभरा हो गया.अब आलम ये है कि घरवाले तो कहते हैं कि मैं यमदूतों के इंतज़ार में हूँ परन्तु हमारी पार्टी मुझे अगले चुनाव के लिए अपना लीडर इन वेटिंग मानती है।
वाह,यह तो चिरयुवा बने रहने का अच्छा नुस्खा है, मैंने कहा,तो वे बोले-अब चलता हूँ.शाम को पार्टी की युवा शाखा की बैठक है।
मैं सोचता रहा कि देश बेकार में बूढा हो गया.इनके नुस्खे से तो उम्र उल्टी चलती और युवावस्था बनी रहती।
लगता है हिंदी भी इसी चाल से चल रही है,और रोज़ तरोताजा हो रही है.अंग्रेज़ी चाहे आज राष्ट्रमाता बन गयी हो,पर यह माता जिसे लोरी गाकर सुला रही है वह हिंदी ही है.जिस दिन जागेगी किलकारी भरेगी,कराह नहीं.

Thursday, July 22, 2010

आशियानों ने उजाड़ी ज़िंदगी

जब हम अपने भोजन के लिए थाली के सामने आते हैं तब हम जानते हैं कि चाहे कितना भी पौष्टिक या विविधता भरा भोजन हो, यह कुछ घंटों का ही खेल है,चंद घंटों बाद फिर भूख लगेगी।
इसी तरह जब हम अपने तन के लिए कपड़ा खरीदते हैं तब भी यह अहसास हमें रहता है कि कितना भी महंगा या टिकाऊ कपड़ा हो,कुछ दिन बाद यह हमारा साथ छोड़ेगा.चाहे हम स्वयं ऊबकर उसे फेंके या किसी को दें।
लेकिन न जाने क्यों अधिकांश लोग जब अपना मकान बनवाने पर आते हैं तो जीवन की नश्वरता को भूल जाते हैं और इसकी शान-शौकत को अपनी हैसियत से बाहर ले जाने में बजट से भी बाहर हो जाते हैं.बहुत से लोग मकान के कारण जीवन भर कर्ज़दार रहते हैं.बहुत ही कम लोग ऐसे होते हैं जो मकान को भी जीवन की एक मूल आवश्यकता मानते हुए इसे थोड़े में समेट कर चैन से रहें.मैंने ऐसे सैंकड़ों परिवारों को देखा है जो अच्छे-भले खातेपीते होने के बाद भी मकान बनाते समय क़र्ज़ में डूब गए.या अपनों से दूर हो गए क्योंकि वह अपनी सारी कमाई को केवल सीमेंट पत्थरों में झोंकने के फेर में पड़ गए.नौकरीपेशा लोंगो ने तो यह नियम ही बना लिया कि जब तक नौकरी में रहेंगे मकान के क़र्ज़ की किश्तें देते ही रहेंगे.व्यवसाय वाले भी बैंकों के कर्ज़दार होकर आलीशान दबडों के पंछी बन गए.आज यदि किसी शहर में शानदार मकानों की बस्ती में हम ऐसे लोग ढूंढे जो कर्ज़दार न हों तो मुश्किल से ही मिलेंगे.लोग मकान में सीमेंट,पत्थर,संगमरमर,ग्रेनाईट,सागवान,चन्दन और न जाने क्या-क्या जड़वाने में यह भी भूल जाते हैं कि जो मकान हम लाखों करोड़ों में खडा कर रहे हैं वह चाहे अमर हो जाए पर हम अमर नहीं हैं।
लोग तर्क देते हैं कि हमारे बाद हमारे बच्चे इनमें रहेंगे लेकिन यहाँ भी शायद आप यह भूल जाते हैं कि आप जैसे करोड़पतियों के बच्चे भी पुराने मकानों में क्यों रहना चाहेंगे?वे यातो तोड़-फोड़ कराकर आपके बनाए बेल-बूटे गिराएंगे या फिर नए फैशन के दूसरे आशियाने बनायेंगे.फैशन रोज़ बदलते हैं.आज आपको ग्रेनाईट अच्छा लगता है कल आपके बच्चों को कुछ और अच्छा लगेगा जो उनके समय के फैशन में होगा.सोचिये,जिन लोगों ने महल,किले या मीनारें बनवा डाले उनके भी बच्चे आज उनमें नहीं रहते.जिन्होंने दीवारों में सोनाचांदी लगवाया वहां भी उन परिवारों का कोई वाशिंदा अब रहता नहीं है.तब क्यों न अपनी आमदनी के अनुसार सीमित बजट की छत बनाकर रहा जाए?कम से कम आपके हाथ में जीवन की अन्य खुशियों के लिए पैसा तो रहेगा.किले,हवेली या महलनुमा मकान बना लेने वाले फिर सुरक्षा कारणों से उन्ही में कैद होकर रह जाते हैं.वे अपने ही घर में बंद गाडी में काले शीशे चढ़ाकर घुसने लग जाते हैं मानो उन्होंने कोई बड़ा अपराध कर डाला हो।
सुना है,देश के सबसे बड़े अमीर माननीय मुकेश अम्बानी मुंबई में अपने रहने के लिए ३७ मंजिला मकान बना रहे हैं.जैसे उनके पिता के बनाए मकान में ,माँ के रहते हुए भी दो भाई एक साथ न रह सके,क्या उन्हें भरोसा है कि उनकी कई पीढियां एक साथ एक ही छत के नीचे रह पाएंगी?
किसी किसी आलीशान बस्ती में तो आपको केवल वरिष्ठ नागरिक जीवन काटते मिलेंगे क्योकि बच्चे नौकरियों या काम के चलते बाहर चले गए और जो बच्चे कहीं नहीं जा पाए वे प्रायः इस स्थिति में भी नहीं रह जाते कि अपने पुरखों की हवेलियों पर रंग-रोगन भी करवा सकें.मकान से लगाव भी प्रायः उसी को होता है जो उसे बनाता है.सोचिये,ज़िंदगी चुनेंगे कि अपनी हैसियत से बड़ा आशियाना?

Wednesday, July 21, 2010

मजदूरी तय करने से पहले मजदूर बनाइये तो

आजकल आरक्षण को लेकर बड़ी विचित्र स्थिति है.आरक्षण मांगने के लिए संगठन और पार्टियाँ बन रही हैं ,तो आरक्षण हटाने के लिए भी कुछ संगठन और पार्टियाँ सामने आरही हैं.क्या हम इस विचार-विभाजन को एक स्वस्थ बहस का रूप दे सकते हैं?जो लोग आरक्षण मांग रहे हैं वे इसके लिए मुख्यतर्क इस प्रकार देते हैं-
कुछ जातियों को अतीत में इतना दबा कर रखा गया कि वे अबतक अपने पिछड़ेपन से उबर नहीं पाई हैं.उनके उत्थान के लिए उनकी सफलता कुछ नौकरियों में सुनिश्चित कर दी जाए ताकि वे समानता से आगे बढ़ सकें ।
जो लोग आरक्षण हटाने की बात कहते हैं उनका तर्क है कि आरक्षण प्राप्त करके नौकरियों में जाने वालों से देश में कार्य का स्तर गिरता जा रहा है और उनका भी उत्थान नहीं हो रहा बल्कि बिना योग्यता के जीवन भर कमाते जाने की प्रवृत्ति पनप रही है।
इन दोनों बातों पर ईमानदारी से सोचिये और बताइये कि इन दोनों में से कौन सी बात आपको ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है-पहली या दूसरी?
एक तीसरी बात भी है.कुछ लोग कहते हैं कि जब हमारे संविधान ने आरक्षण की व्यवस्था दी है तो इसका लाभ हम क्यों न लें?लेकिन यहाँ एक बात यह भी याद रखनी होगी कि संविधान ने यह व्यवस्था हमेशा के लिए नहीं दी थी .अब यदि यह व्यवस्था लगातार चलती जा रही है तो इसके पीछे उन लोगों का प्रयास भी काम कर रहा है जो आरक्षण से ऊँचे पदों पर पहुंचे हैं।
परन्तु इन तीनों बातों से ऊपर एक चौथी बात भी है .देश की युवा पीढी यह नहीं कहती कि कौन सी बात सही है कौन सी गलत ,वह तो केवल यह कहती है कि रोजगार का साधन उन्हें मिलना ही चाहिए.यह मांग किसी भी देश में नाजायज़ नहीं है.हर हाथ को काम देने की जिम्मेदारी देश के नियंताओं को लेनी ही चाहिए.हमारे नीतिनिर्माताओं को यह भी सोचना चाहिए कि यदि युवाओं को काम दिया जाता है तो वे अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार ही फल की कामना करते हैं.पर यदि काम नहीं दिया जाता तो हर एक व्यक्ति असीमित इच्छाएं लेकर रोज़गार के बाज़ार में उतरता है जहाँ फिर टैक्सचोरी भी होती है,गैर-कानूनी कारोबार भी,छलकपट से पैसे कमाने की प्रवृत्ति भी और भ्रष्टाचार भी.अराजकता के जंगल में एक चौड़ा रास्ता इस लापरवाही से ही जाता है.

Tuesday, July 20, 2010

हर मौसम डरावना है ?

मैं नहीं जानता कि जनसंचार और पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में आजकल अखबार की परिभाषा क्या बतायी जाती है.लेकिन व्यावहारिकता के नाते देखने पर तो यही लगता है कि अखबार कागज़ के उस कैनवास को कहते हैं जो हर सुबह हमें हत्याओं ,दंगों,चोरी ,ठगी ,बलात्कार ,आगजनी,दुर्घटनाओं और नेताओं की अन्य गतिविधियों की जानकारी देता है.ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर अखबार हम क्यों पढ़ें ?
पर तभी यह भी लगता है कि अखबार हम क्यों न पढ़ें ?यह सारी हिंसा और अमानवीय कृत्य क्या हमारे आँखें मूँद लेने से ही बंद हो जायेंगे?कम से कम हम इनके बारे में जानकर इनसे बचने की जुगत तो करेंगे.हमें इनसे बचाव करने के तरीके सोचने में तो मदद मिलेगी.इससे हम में कठिनाइयों को सामूहिक रूप से सहने की क्षमता तो पैदा होगी।
जब हम कमरतोड़ महंगाई के बारे में पढ़ते हैं तो यह भी जान पाते हैं कि महंगाई सभी के लिए है.यदि पेट्रोल-डीजल की किल्लत है तो वह सभी के लिए है.अखबार हमें बता देता है कि किल्लत क्यों है,महंगाई किस कारण है,दंगे-फसाद किनके कारण हैं.अब यह बात अलग है कि सबका कारण जान कर भी हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं.हम सरकार या दूसरों के इंतज़ार में रहते हैं कि वे कुछ करें.क्या हमारी अपनी कोई भूमिका नहीं है?
सोचिये ,क्या हो सकती है आपकी भूमिका?
आप इतना तो कर ही सकते हैं कि जिस चीज़ की कमी या किल्लत है उसे किफ़ायत से काम में लें.कोई चीज़ बिना बात खर्च न करें.उसकी बर्बादी रोकने की चेष्टा करें.हो सकता है इससे आपको लगे कि कुछ नहीं होगा.एक आदमी या कुछ आदमी कुछ नहीं कर सकते।
पर ज़रा गहराई से सोचिये .सुबह के अखबार को याद कीजिये.चाहें तो उसे दुबारा पढ़िए.सारे शहर ने चोरी नहीं की है,एक-दो लोगों ने ताले तोड़े हैं.हर ट्रेन का एक्सीडेंट नहीं हुआ ,एक-दो का हुआ है.हर चीज़ की किल्लत नहीं हुई ,एक-दो चीज़ों की हुई है।
वाह,जब बर्बादी एक-दो लोग कर सकते हैं तो बर्बादी रोकने का काम कुछ लोग क्यों नहीं?आपकी भूमिका छोटी कहाँ है?

Monday, July 19, 2010

उन मासूमों की जाति कौन सी ?

पिछले महीने हम ग्रोव सिटी जा रहे थे .ला गार्डिया हवाई अड्डे से हमने डेटरोइट के लिए जहाज़ पकड़ा .वहां पहुंचकर हमें दो घंटे बाद दूसरा जहाज़ पिट्सबर्ग के लिए पकड़ना था.जब हम पिट्सबर्ग पहुंचे तो शाम होने को आगई थी.रस्ते के थाई और मलेशियन स्वादिष्ट भोजन के बाद भी अबतक भूख लग आई थी.पिट्सबर्ग से लिमोजिन कारें टेक्सी के रूप में चलती हैं.हम कुछ ही देर में ग्रोव सिटी पहुँच गए.यह एक छोटा सा बेहद सुन्दर क़स्बा था जहां कालेज व स्कूलों की अत्यंत शालीन क्लासिक इमारतें इसे एक धीर गंभीर शिक्षा केंद्र का रूप दे रही थीं.हम रात का खाना खाने के बाद पास के बाज़ार तक घूमना चाहते थे,पर शहर से हट कर बसे इस इलाके में उस समय टेक्सी मौजूद नहीं थी.होटल की मैनेजर युवती बहुत मिलनसार थी.उसने थोड़ी देर में ही हमें रास्ता सुझा दिया.वह बोली-मेरी एक मित्र अपनी कार में आपको घुमा देगी .उस महिला की कार में जाते हुए हम थोड़ी देर में ही उस से ऐसे मित्रवत हो गए मानो बरसों से उसे जानते हों.उसने हमें बताया कि उसे भारत से बड़ा लगाव है.वह कभी भारत देखना भी चाहती थी.हम ख़ुशी मिश्रित आश्चर्य से इसका कारण पूछने लगे.वह बोली-अभी हाल ही मेरी आंटी ने भारत के बच्चों को गोद लिया है.उनके कोई संतान नहीं थी,अब वह बच्चों को अमेरिका में पढ़ा रही हैं....मेरा मन उदास हो गया.बनाना रिपब्लिक के चमचमाते शो रूम पर जब गाड़ी रुकी ,मैं अपने मन के किसी सूने कोण से यह सोच रहा था कि भारत में जहाँ आरक्षण मांगने ,हड़ताल करने,पटरियां उखाड़ने,और अपनी अपनी जाति के नेताओं को वोट देने के लिए हर जाति अपने अपने वाशिंदों को गिनने में लगी है,ऐसे में ये नन्हे मासूम किस जाति में गिने जायेंगे?

तनहाई को तरसते बुत


कल रविवार था.शाम को हम लोग न्यूयार्क के टाइम्स स्क्वायर के मैडम तुसाद संग्रहालय में घूम रहे थे.दुनिया के ख्यातनाम लोगों के मोम के पुतलों का यह म्यूजियम किसी भीड़ भरे बाज़ार की तरह गुलज़ार था.एक अद्भुत नज़ारा था.एक ही कक्ष में गाँधी,पोप,दलाईलामा,आइन्स्टाइन ,मार्टिन लूथर किंग,लिंकन,वाशिंगटन गोर्बाचौफ,क्लिंटन आदि को एक साथ बैठे देखना कौतूहल की पराकाष्ठा थी .लोगों ने उन्हें चारों ओर से घेर रखा था.दुनिया भर से आये लोग तरह तरह से उनके साथ अपनी तस्वीरें खिंचवा रहे थे.ये सभी पुतले थे.इनके साथ कैसा भी सलूक किया जा सकता था.सिवा उन्हें कोई भौतिक नुक्सान पहुंचाने के,क्योंकि बड़ी संख्या में संग्रहालय के कर्मचारी वहां मौजूद थे.लोग हॉलीवुड स्टारों के साथ ऐसे फोटो खिंचवा रहे थे,मानो वे उनके मित्र ही हों.अमिताभ बच्चन,मर्लिन मुनरो,सेरेना विलियम्स,मोहम्मद अली,जूलिया राबर्ट्स,नील आर्मस्ट्रोंग,मेडोना,अराफात,बिल गेट्स माइकल जैक्सन या ब्रिटनी लोगों के लिए सहज सुलभ थे.ये सभी ऐसे लोग थे जिनकी हकीकत में एक झलक पाना लाखों लोगों का सपना होता है और जो फिर भी ज़िंदगी में पूरा नहीं हो पाता.यहाँ तक कि एक कक्ष में बड़ी आफिस टेबल पर फोन हाथ में लेकर लोग किसी महान शख्सियत की तरह फोटो खिंचवाते थे और उनके पीछे ओबामा सपत्नीक खड़े मुस्करा रहे होते थे.एक कल्पनातीत दुनिया का लुत्फ़ .जिन्हें अकेलापन या सुकून भरी तनहाई मुश्किल से ही नसीब होती रही,उनके बुतों को भी लोगों ने तनहा नहीं छोड़ा था.सिर्फ अहसास का व्यापार वहां जारी था.नयनसुख का हैरत भरा कारोबार .शायद जीवन की सफलता का एक मापदंड यह भी है कि लोगों से घिरे रहना आपने कितना सीखा.लोग आपको देखना चाहें ,चाहे आप न भी हों.

Sunday, July 18, 2010

हलके स्पर्श से साफ हो जाता है शीशा

मैंने कुछ दिन पहले हिंदी साहित्य के इतिहास की पड़ताल करते समय देखा था क़िकुछ लेखकों के बारे में गलत जानकारियां दर्ज हैं.पता नहीं ये उनकी खुद की भूल है या किसी और की.बहरहाल हम सब को कभी कभी ऐसी बातोंको जाँच कर दुरुस्त करने का श्रम करना चाहिए.कभी कभी मैं सोचता हूँ क़ि हमारी नई पीढी बहुत ताज़ा विचारों को लेकर आती है.ऐसे में मुझे लगता है क़ि हमें मंच के एक ओर हटकर उन्हें जगह देनी चाहिए.याद रहे क़ि ऐसा करतेसमय हमारे मन में कोई अहसान का भाव नहीं आना चाहिए क्योंकि युवाओं की खुद्दारी इसे कभी बर्दाश्त नहीं करेगी .युवा मन किसी सहारे को भी आसानी से स्वीकार नहीं करता.इसे उसकी जिद नहीं बल्कि आत्मविश्वास समझना चाहिए.हाँ इतना ज़रूर है क़ि यदि हम उन्हें कोई ऐसी गलती करते देखें तो पार्श्व में रह कर उसे दुरुस्त करने की कोशिश ज़रूर करें.यहाँ भी ये सुनिश्चित कर लेना बहुत ज़रूरी है क़ि वह वास्तव में गलती हो.मेरा आशय ये कदापि नहीं है क़ि हम युवाओं से डर कर रहें.क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो युवाओं का अपने भविष्य परविश्वास कम होगा.उन्हें भी तो आखिर कभी युवावस्था त्यागनी है.सब इसी तरह चलेगा क्योंकि आखिर जीवन एक रिले रेस ही तो है.

Saturday, July 17, 2010

क्या आपको दाल में से कंकड़ बीनना आता है?

समय के साथ साथ बातें बदल जाती हैं. कभी लगता था कि यदि कुछ लिखना है तो किताब लिखनी होगी. आज जब किसी को अपनी किताब पढ़ने के लिए देते हैं तो हनुमानजी की याद जाती है. क्योंकि लक्ष्मण के मूर्छित होने पर जब वैद्य सुषे ने उनसे संजीवनी लाने को कहा था, वे पूरा पर्वत ले आये थे. आज हम बच्चों को इस तरह नहीं बता सकते. हमें किताब मेंसे वह अंश निकाल कर उन्हें दिखाना होगा जो हम उन्हें सिखाना चाहते हैं. लिखने वाले एक कदम और बढ़ गए. वे किताबकी जगह अंश ही लिख देते हैं और बाद में उन्हें मिला कर किताब बना ली जाती है. यह आसान रहता है. लेकिन हमारे कुछलेखक मित्र जेट गति से आगे बढ़ गए हैं. वे जानते हैं कि लिखा गया अंश छपेगा, फिर किताब छपेगी, फिर वह पढ़ी जाएगी.और तब कहीं जाकर उनके अमर होने का नंबर आएगा. इतना समय उनके पास नहीं है. इसलिए वे पहले सीधे ही कालजयी होने की तरकीब निकाल लेते हैं. आप मिलना चाहते है ऐसे विद्वत्वीरों से? आप हिंदी साहित्य के इतिहास की किसी साईट पर चले जाइये. वहां ये तथाकथित सितारे खुद खुद बीच में चमकते हुए आपको दिख जायेंगे. पहचान लेंगे आप इनको?बस, देखते जाइये, सूर, तुलसी, कालिदास, निराला, प्रेमचंद, महादेवी, पन्त, प्रसाद आदि के बीच बीच में बोल्ड अक्षरों में ये आपको दिख जायेंगे. इन्हें ढूंढ निकालिए और खुद फैसला कीजिये कि इनका क्या करना है. लीजिये आज हमने भ्रष्टाचार की बात नहीं की.

Friday, July 16, 2010

माचिस, आग और धुआँ एक ही जाति के शब्द हैं

मैं अपने एक मित्र के घर बैठा था. कुछ ही देर में मित्र की माताजी बाज़ार से लौट कर आयीं. घर में घुसते ही वह उस रिक्शा वाले को कोसने लगीं, जो उन्हें अभी अभी बाज़ार से घर छोड़ कर गया था. हम आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगे. वे कह रही थीं - "कैसा बदतमीज़ आदमी है, बात करने का भी ढंग नहीं है. मेरे पास डेढ़ रूपया कम था, उसी के लिए झिक झिक कर रहा था. डेढ़ रूपया कम लेने को तैयार नहीं हुआ. ये भी नहीं सोचा कि छह हज़ार रुपये की तो मैंने बनारसी साड़ी पहनी हुयी है. बोलते बोलते आप से तुम पर उतर आया."
अब चकित होने की बारी मेरी थी. सारा माजरा समझ में आ गया. माताश्री ने बीस रुपये मजदूरी ठहरा कर साढ़े अठारह रुपये उसे दिए और वे चाहती थीं कि वह उनकी छह हज़ार रुपये की साड़ी के कारण उन्हें बड़ा रईस समझे और चुपचाप चला जाए.
मुझे बेचारे रिक्शे वाले पर तरस आने लगा. हम क्या महंगे कपड़े इसीलिए पहनते हैं कि उनके रौब में आकर हमारे छोटे मोटे काम सध जाएँ? मुझे कुछ दिन पहले की घटना याद आ गयी जब मेरे एक परिचित ने बैंक में अपना लोन का फॉर्म जमा कराने के लिए चपरासी द्वारा दस रुपये की रिश्वत मांगने की बात कही थी. उन्होंने भी चपरासी को काफी भला बुरा कहा था. फॉर्म जमा कराने के लिए दस रुपये की रिश्वत देना या छह हज़ार रुपये की ड्रेस पहनकर अपने व्यक्तित्व का दबाव बनाकर किसी मजदूर को कम मजदूरी देना, एक ही बात नहीं है? यहाँ भ्रष्टाचार का केवल मौद्रीकरण ही तो हुआ है. चपरासी करेंसी में रिश्वत ले रहा था, माताजी दबंगता में रिश्वत ले रही थीं. बल्कि इसे तो और भी बड़ा भ्रष्टाचार कहा जाएगा कि यहाँ रिश्वत लेने वाला, न देने वाले को कोस रहा था. आग, माचिस और धुआँ, ये एक ही जात के शब्द हैं और एक ही चीज़ के अलग अलग रूप हैं. जिस तरह पैसों में घूस और आचरण में भ्रष्टता दोनों एक सी बातें हैं.

Thursday, July 15, 2010

किताबें कभी झूठ नहीं बोलतीं

किसी ने कहा है कि तुम मुझे बताओ - तुम कौनसी पुस्तकें पढ़ते हो, मैं तुम्हें बता दूंगा कि तुम कैसे इंसान हो. भारत में एक किताब है जिसे हम कानून की किताब के नाम से जानते हैं. इसमें लिखा है कि किसी भी युवती का विवाह कम से कम १८ वर्ष की उम्र में किया जाना चाहिए. यह पुस्तक युवकों की न्यूनतम विवाह योग्य उम्र २१ वर्ष मानती है. अब यदि इस पुस्तक की बात मानकर एक युवक और एक युवती विवाह बंधन में बंधते हैं, तो -
उस विवाह के फलस्वरूप बनने वाले नए परिवार में पति २१ वर्ष का है और पत्नी १८ वर्ष की. हमारे यहाँ उम्र को वरिष्ठता का अच्छा ख़ासा आधार माना जाता है. यदि दो जुड़वां भाइयों में एक भाई पांच मिनट भी बड़ा हो तो उसे दूसरा भाई उम्र भर भैय्या कहता है और उसकी पत्नी को भाभी का दर्जा देता है जिसे भारतीय संस्कृति में माँ समान भी माना गया है. ज़ाहिर है कि पति से तीन वर्ष छोटी पत्नी उससे वरिष्ठ होना तो दूर, उसके समान भी नहीं मानी जा सकती. भारतीय शिक्षा प्रणाली के अनुसार एक १८ वर्षीय व्यक्ति सामान्यतः स्कूली शिक्षा प्राप्त कर सकता है, जबकि २१ वर्षीय व्यक्ति स्नातक भी हो सकता है. इसका सीधा सीधा अर्थ है कि इस नए परिवार में पति पत्नी से कहीं ज्यादा पढ़ा लिखा है.
अब यही किताब आगे कहीं यह भी कहती है कि पति-पत्नी का दर्ज़ा हर प्रकार समान होगा और उनमें किसी भी बात को लेकर भेद-भाव नहीं किया जा सकता. किन्तु हमने खुद ये व्यवस्था कर दी है कि इस नए बनने वाले परिवार में पत्नी एक दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में आये. परिवार की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए उसे शारीरिक ही नहीं, मानसिक दृढ़ता की भी ज़रुरत होती है. अतः दोनों को समान अधिकार देने के लिए आयु के बंधन की कोई आवश्यकता नहीं है. कुछ लोग यह भी मानते हैं कि लड़कियां उम्र की दृष्टि से कुछ जल्दी शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता प्राप्त करती हैं. यदि ऐसा है तो क्या दसवीं पास करने की न्यूनतम उम्र अथवा नौकरी पाने की उम्र या वोट देने की उम्र लड़कियों के मामले में लड़कों से कुछ कम नहीं होनी चाहिए? यहाँ १८ वर्ष के युवक के समान १६ वर्ष की युवती को क्यों नहीं माना जा सकता?
भ्रष्टाचार पर आजकल कोई कुछ न तो कहना चाहता है और न सुनना चाहता है. यही सोचकर मैंने आज भ्रष्टाचार की बात न करके विषयांतर किया था. लेकिन यहाँ तक आते आते मुझे लग रहा है कि यह किताब जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है, कहीं एक नए किस्म के भ्रष्टाचार को जन्म तो नहीं दे रही? कहीं युवतियों को एक हाथ से कुछ देकर दूसरे हाथ से कुछ छीन तो नहीं रही? समानता की आड़ में असमानता को प्रश्रय तो नहीं दे रही? मैं जानता हूँ कि इस बार आप कुछ न कुछ उत्तर अवश्य देंगे. परस्पर विरोधी बातों पर मौन रहना भी एक प्रकार का भ्रष्टाचार ही है.

Tuesday, July 13, 2010

गिरती दीवारें और बढ़ते नाखून

हमें बचपन में सिखाया जाता है कि झूठ बोलना पाप है. कुछ बड़े होने पर हम सुनते हैं कि गंगा में नहाने से पाप धुल जाते हैं. संस्कृति की यह लाइसेंसिंग प्रणाली लोगों को वयस्क होते न होते भ्रमित कर देती है. अपने जीवन मूल्यों के वजन को वे खुद नहीं जान पाते.
अधिकाँश लोग अपने समय में किसी न किसी तरह अपने होने के एहसास छोड़ना चाहते हैं. इसमें कुछ गलत भी नहीं है. इसके कई तरीके हैं. आपके पास डाक टिकिट के बराबर का कागज़ हो तो भी आप अमृता प्रीतम बन सकते हैं और ज़िन्दगी को शान और सुकून से रसीदी टिकिट दे सकते हैं. आपके पास पूरा आसमान कैनवास की तरह मौजूद हो, तब भी कई बार वह अनकहा ही रह जाता है, जो आप कहना चाहते हैं. पुरातत्व विभाग प्रायः इस बात से परेशान दिखाई देता है कि कीमती पुरा-दीवारों पर हम लोग कोयले से लिखने के आदी होते हैं. अपना नाम लिखने की तल्लीनता में न तो हमें कोयले की कालिख से परहेज़ होता है, और न ही दीवार के मटमैलेपन से. कोई भी ऐसा कार्य जिसे करते समय नहीं, बल्कि करने के बाद हमें यह महसूस हो कि ये हमने क्या कर दिया, शायद वही भ्रष्टाचार है.
अब सवाल यह है कि भ्रष्टाचार को मिटाने की कोशिश करनी चाहिए या नहीं. उसे मिटाने की कोशिश हम करें या न करें, वह स्वयं एक न एक दिन ऐसी कोशिश करता है. पश्चाताप की एक सील हमारी ज़िन्दगी के प्रमाण पत्र पर जिस दिन वह लगाता है, हमारा बहुत सा हिसाब बराबर हो जाता है. भ्रष्टाचार कुछ जल्दी पैसा दिला सकता है, कुछ जल्दी तरक्की दिलवा सकता है, कुछ जल्दी मिल्कियत दिलवा सकता है, लेकिन पैसा, तरक्की या मिल्कियत से मिलने वाले संतोष को जब हम तोलते हैं, तो हमें महसूस होता है कि हम ठगे गए. इसलिए हम संतुष्ट रहे, कि भ्रष्टाचार बढ़ने या रुकने की प्रक्रिया हम पर अवलंबित नहीं है. वह एक स्वचालित प्रक्रिया है जो एक न एक दिन पूरे गणितीय तरीके से हमारे सामने उजागर हो जाती है. कभी किसी की मृत्यु के पचास साल बाद भी उसे पुरस्कृत करने की मांग उठती है, तो कभी किसी के जीते-जी उसकी समाप्ति की कामना की जाती है. इतना हम सब जान सकते हैं कि हमें क्या चाहिए. उसे पाने का ऐसा तरीका जो उजाले में सार्वजनिक तौर पर हम अपना सकें, तो शायद भ्रष्टाचार की दलदल से हम बचे रहेंगे.
यदि आपको लगता है कि आप भ्रष्टाचार को हटाने की दिशा में कुछ ठोस करना चाहते हैं, तो कृपया हमें लिखिए.

Thursday, July 8, 2010

दो रास्ते

कमाने के दो रास्ते हैं. एक माँगना और दूसरा कुछ बेचना. बाकी सभी बातें इन्ही दो रास्तों पर आकर ठहरती हैं. एक डाकू जब किसी को लूट रहा होता है, वस्तुतः वह भी अपना दुस्साहस बेच रहा होता है. एक जेबकतरा भय और सतर्कता बेचता है. किसान और मजदूर भी अपना श्रम बेच कर ही कुछ कमा पाते हैं. आपके पास बेचने के लिए क्या है, कितना है, और आप समय पर उसे किस तरह उपलब्ध करा पाते हैं, इस पर आपकी कमाई निर्भर करती है. किसी मंदिर में जो भक्त तरह तरह के प्रसाद से ईश्वर को लाद रहे होते हैं, वे भी वास्तव में ईश्वर की भक्त वत्सलता खरीद रहे होते हैं.
किसी बच्चे को थोड़ी शक्कर खिलाइए. फिर उसे एक इमली खिलाइए और बाद में ज़रा सी मिर्च का स्वाद चखा दीजिये. उसके बाद उसे अलग अलग तरह के स्वादों के बारे में बताइए. केवल किताबों से पढ़कर स्वाद नहीं सीखे जा सकते. ठीक वैसे ही जैसे प्रशिक्षक से सुन कर तैरना नहीं सीखा जा सकता. भ्रष्टाचार मिटाने की बात तो बहुत दूर है, पहले हमें यह पता करना पड़ेगा कि भ्रष्टाचार क्या है और कौन कौन उसके बारे में कितना जानता है. थोड़ा समय निकालिए और उन बातों की एक सूची बनवाइए जिन्हें हम भ्रष्टाचार कह सकते हैं. जहां तक कमाई की बात है, रास्ते दो ही हैं. किसी भूखे व्यक्ति को खाना खिला कर देखिये. वह यह नहीं पूछेगा कि आपने उसके भोजन के लिए जो रकम खर्च की है, वह खरी कमाई की है या खोटी.
जहां तक मांगने का सवाल है, माँगा हुआ धन बहुत अनिश्चित और रिसता हुआ आता है. हाँ, यदि मांगने में भी आप कुछ बेच सकते हों, तो अच्छी कमाई हो सकेगी. मुझे याद है मैं एक बार भोपाल से रतलाम गाड़ी में जा रहा था. एक छोटे स्टेशन पर ट्रेन की खिड़की में एक औरत हाथ फैलाती हुयी बढ़ रही थी. कोई उसे खाली हाथ जाने देता था, कोई २५-५० पैसे रख देता था. अचानक खिड़की में बैठे एक युवक ने उस औरत को १० रुपये का नोट दिया. औरत चाय की दुकान पर अपने बच्चे के लिए दूध लेने दौड़ पड़ी. शायद उसने आँखों ही आँखों में युवक को करुणा बेच दी थी.

Tuesday, July 6, 2010

नहाना बुरा कब?

मैंने भारतीय मनोवृत्ति में कुछ शब्दों और विचारों के पुनरीक्षण की बात की थी. इसमें दबी छिपी एक और बात निकल आयी. जयपुर के भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान के डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने भ्रष्टाचार का सवाल उठाया. अच्छी बात है, जीवन मूल्यों से जुड़ी हुयी ही है. यह सुखद है कि अब जब पिछले तीन महीने से अमेरिका में हूँ, जयपुर से ही यह विचार पीछा करता हुआ मुझ तक पहुंचा है. प्रसंगवश बता दूं, राजस्थान जन सतर्कता समिति के प्रदेश महामंत्री का कार्य पिछले कुछ वर्षों से देखते देखते कई बार यह सुनने को मिला कि अब भ्रष्टाचार हमारा गहना या कपड़ा नहीं, बल्कि शरीर की चमड़ी है. इसे अब उतार कर फेंका नहीं जा सकता. एक पूर्व राज्यपाल ने तो एक सार्वजनिक समारोह में यहाँ तक कह दिया कि अब हमें भ्रष्टाचार को हटाने की बात करना छोड़ देना चाहिए. इसके साथ हम कैसे जी पायें, यही सोचना है. राजस्थान के पिछले विधान सभा चुनाव में नयी नयी उभरी जागो पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और राजस्थान प्रदेश प्रभारी के रूप में जब मैं राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री दीपक मित्तल के साथ ३२ उम्मीदवारों को टिकट दे रहा था, मन ही मन मुझे लग रहा था कि भ्रष्टाचार को लेकर हम नहीं जानते कि हमें क्या करना है. यदि हम अपने उम्मीदवारों से कहते हैं कि चुनाव में भ्रष्ट तरीके मत अपनाओ तो इसका सीधा सीधा अर्थ यही दिख रहा था कि हम उन्हें श्राप दे रहे हैं. जोधपुर में एक मंच से यह बात कहते समय मैं साफ़ देख रहा था कि एक अन्य दल के कार्यकर्ता हमारी सभा में आये लोगों के वाहनों की हवा निकाल रहे हैं. खैर, ये सब बातें अलग भी हैं और लम्बी भी. मैं एक बार फिर आप से पूछ रहा हूँ कि भ्रष्टाचार या बेईमानी हटाने की कोशिश हमें करनी चाहिए या नहीं. नयी पीढ़ी के पास इसका उत्तर नहीं है. उसे तो यदि हम कहेंगे कि कोशिश करो तो वो करेगी, यदि कहेंगे कि इसी के साथ जियो, तो वह उसकी कोशिश करेगी. अपने पिछले ब्लॉग में मैंने रामायण और महाभारत का जिक्र इसीलिए किया था कि स्त्री का अपमान, जुआ, बहुपत्नी अथवा बहुपति प्रथा, भीषण हिंसा और अराजकता इन दोनों गठरियों में बाँध कर भी तो हम अरसे से ढोते चले आ रहे हैं. आपके उत्तर या वैचारिक सहयोग के बाद ही आगे कोई बात बनेगी.
ई गुरु राजीव जी ने अच्छा सुझाव दिया है कि हम भारत का ही नाम बदल दें. बदला जा चुका है. वैसे भी नाम अपने लिए नहीं होता. राजीव जी राजीव और प्रबोध जी प्रबोध भला कब उच्चारते हैं. नाम तो दूसरे ही लेते हैं. सो सैंकड़ों देशों की जमात ने अपनी सुविधा से इंडिया कर ही लिया है. रशिया को रूस और चाइना को चीन कहने का अधिकार हमारे पास कहाँ है जो हम इंडिया और भारत के विवाद में पड़ें. इमरान अंसारी, अजय कुमार, अरविन्द और संगीता जी ने जो सहयोग किया है, उसका भी शुक्रिया.

Friday, July 2, 2010

आत्मीयता से सोचें

जिस तरह कुछ समय बाद अपने रहने की जगह की साफ़ सफाई की जाती है, वैसे ही अब यह भी ज़रूरी हो गया है कि हम अपने समय के शब्दकोषों की सफाई करें. बहुत सारे शब्द हमारी डिक्शनरियों में लदे पड़े हैं, जिनसे हमारा कोई लेना देना नहीं रहा. उन्हें हटायें. अगली पीढ़ियों के लिए चाहें तो उन्हें किसी म्यूसियम गैलेरी में रख सकते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे कुछ देशों ने डायनासौर के अंडे रखे हैं. हमारी पीढियां यही जान लें कि ये शब्द कभी इतिहास में काम आते थे तो काफी है. उन्हें अपने गहने की तरह गले में लटकाए रहने का अब कोई मतलब नहीं है. सच बात तो ये है कि ये मौसम ज्यादा बोलने का है भी नहीं. कभी कभी लगता है कि जो हम कहना चाहते हैं, वह पहले से ही हवा में है. जो हम बताना चाहते हैं, वह दीवारों पर चस्पां है. ऐसे में आपको कुछ भी कहकर या कुछ भी लिख कर वो संतोष नहीं मिलता, जो आपके कद को एक अंगुल भी बढ़ाये. तब यह प्रश्न अपने आप उठ खड़ा होता है कि अब आखिर क्या कहा जायेगा. कौन किससे क्या कहेगा? किसे किसी से कुछ पूछना है? कौन है जिसे जिज्ञासा है? इन प्रश्नों के साफ़ उत्तर नहीं हैं.
यह सब बातें किसी नकारात्मक बंद गली में गुज़रते हुए नहीं कही जा रहीं. बल्कि आने वाले समय पर अतिविश्वास के चलते कही जा रही हैं. वास्तव में कमाते जाना ही किसी का उद्देश्य नहीं होना चाहिए. बीच बीच में कमाए हुए का आनंद लेना भी ज़रूरी है. हमारे जीवन मूल्य एक ऐसे ही दौर में आ गए हैं, जब उनकी सार्थकता अच्छी तरह दिखती है. एक अच्छे भले लम्बे चौड़े घर में चौबीस घंटे में जो भी कुछ घटता है, वह टीवी के किसी न किसी चैनल पर किसी न किसी सीरिअल में दिखाया जा रहा है. ऐसे में अपने जीवन पर मीमांसा कि ज़रुरत किसे और कहाँ रह जाती है? आप यदि यह पढ़ रहे हैं, तो एक छोटी सी गुजारिश आप से भी है - शब्दकोष के ऐसे शब्द जिन्हें अब हटाया जाना चाहिए, आपकी नज़र में कौनसे हैं? हमें बताइए. आपके विचारों का स्वागत है. उदाहरण के लिए - हम भारतीय जनमानस से रामायण और महाभारत हटा दें?

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...