जब किसी लेखक की कोई रचना लोक को अर्पित होकर सार्वजनिक हो जाती है तो उस पर किसी का, खुद लेखक का भी अधिकार नहीं रह जाता. उसे "काल"कब क्या बना दे यह कोई नहीं जानता.
कुछ दिन पहले एक सुबह अचानक ऐसा ही हुआ.
देखते-देखते बरसों पहले लिखी गई जयशंकर प्रसाद की महान रचना "कामायनी" एकाएक छोटी, अधूरी सी हो गई. जैसे एक लेखक समय के प्रताप से दिवंगत होकर भी दुनिया के नेपथ्य में बड़ा होता चला जाता है, वैसे ही मनु और श्रद्धा की यह कालातीत प्रेमकथा सहसा छोटी हो गई.
ऐसा कैसे हुआ?
क्या किसी ने इसके कुछ पृष्ठ मिटा डाले? या फिर इसके पात्रों की अहमियत कम हो गई.यह सर्वकालिक प्रणयगाथा सीमित क्यों और कैसे हो गई? किसने किया यह सब?
भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने !
उसने स्त्री और पुरुष के साथ-साथ अब "किन्नरों" को भी तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देदी. देशवासियों को "तीसरे इंसान" के जन्म की ढेरों बधाइयाँ !
कुछ दिन पहले एक सुबह अचानक ऐसा ही हुआ.
देखते-देखते बरसों पहले लिखी गई जयशंकर प्रसाद की महान रचना "कामायनी" एकाएक छोटी, अधूरी सी हो गई. जैसे एक लेखक समय के प्रताप से दिवंगत होकर भी दुनिया के नेपथ्य में बड़ा होता चला जाता है, वैसे ही मनु और श्रद्धा की यह कालातीत प्रेमकथा सहसा छोटी हो गई.
ऐसा कैसे हुआ?
क्या किसी ने इसके कुछ पृष्ठ मिटा डाले? या फिर इसके पात्रों की अहमियत कम हो गई.यह सर्वकालिक प्रणयगाथा सीमित क्यों और कैसे हो गई? किसने किया यह सब?
भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने !
उसने स्त्री और पुरुष के साथ-साथ अब "किन्नरों" को भी तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देदी. देशवासियों को "तीसरे इंसान" के जन्म की ढेरों बधाइयाँ !
क्या कहें जी।
ReplyDeleteIs faisle se kuchh virodhabhas bhi janme hain. Pratikriya ke liye Aabhaar!
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