Saturday, April 21, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [भाग 47 ]

     वह बदला हुआ मौसम था. कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी. बफलो का तापमान शून्य से बहुत नीचे उतर गया था, ठीक वैसे ही, जैसे भारतीय बावड़ियों में घुमावदार सीढ़ियों से पानी लेने के लिए ग्रामीण उतरते चले जाते हैं.जैसे-जैसे धरती के गर्भ में कदम धसते जाते हैं, ठंडक बढ़ती जाती है.नदी सरोवर वहां बर्फ की सिल्लियों से ढँक से गए थे. शालीन सफेदी ने सब्ज़ पत्तों के राग मंद कर छोड़े थे. पेड़ों ने बहरूपिया रूप धर लिए थे. आसमान धरती को पानी नहीं बर्फ़ परोस रहा था.सड़कों पे यायावर इने-गिने रह गए थे. सैलानी भी केवल जिगर वाले घूम रहे थे. 
     किन्ज़ान और पेरिना डिनर के बाद डेला को उसके कमरे में भेज कर बिस्तर पर कागजों की छोटी-छोटी थैलियों को फैलाए बैठे थे. इन थैलियों  में तरह-तरह के पन्ने जमा थे. पेरिना को ये बहुत प्रिय थे. उसका जी न इन्हें गिन कर भरता था, और न इन्हें देख-देख कर. पिछले कुछ दिनों से किन्ज़ान के मन में यह विचार आने लगा था, कि वह भारत से ऐसे कीमती रत्न लाकर यहाँ उनका कारोबार करे. वह देख रहा था कि यहाँ  लोग न केवल उन्हें पसंद करते हैं, बल्कि उनके लिए अच्छी कीमत देने को भी तैयार रहते हैं. पेरिना इसे अपने शौक और किन्ज़ान की कारोबारी नज़र के योग  के  रूप में देख कर अत्यंत प्रसन्न थी. पेरिना तो क्या, खुद किन्ज़ान को भी यह पता न था, कि उसके अवचेतन में कहीं भारत देखने की इच्छा भी दबी है. 
     जबसे उसने जेद्दा से आये  अपने मामा से अपनी माँ के पिछले जीवन के बारे में जाना था, वह अपने तार कहीं उस परिवेश से भी जुड़े पाता था.उसकी दिलचस्पी अपनी माँ रस्बी के रसबानो और रसबाला रूप से परिचित होने में  भी हो गई थी. अपनी जड़ों को भला कौन नहीं टटोल कर छूना चाहता? 
     अचानक तेज़ हवा चलने लगी. किसी तूफ़ान के आने से पहले की तीखी और सनसनाती हवा. ठंडक और भी बढ़ती जाती थी. थोड़ी ही देर में ख़बरों से किन्ज़ान ने सुना, कि नायग्रा झरना जम गया है. इस कल्पना-मात्र से ही रोमांच हो आता था, कि आसमान से ज़मीन पर छलांग लगाता विराट सागर किसी तपस्वी की तरह हवा में समाधि लेले. अतिवृष्टि का शिकार ज़लज़ला अचानक स्लो-मोशन में नर्तन करता हुआ पाषाण-पर्वत  बन जाये.
     उस रात नींद में किन्ज़ान ने अपने को स्केटिंग करके बर्फ़ के झरने से नीचे आते कई बार देखा. वह हवा में उड़कर ऊपर जाता था, और फिर जमे हुए बर्फ़ के झरने से फिसलता हुआ नीचे आता था. उसे बच्चों की तरह इस खेल में मज़ा आ रहा था. 
     यहाँ तक कि सुबह जब कॉफ़ी टेबल पर रख कर पेरिना उसे नींद से जगाने आई, तो वह अपने बेड से नीचे फिसल कर फर्श पर पड़ा मिला.उसे इस तरह ज़मीन पर बेसुध पड़ा  देख कर पेरिना खिलखिला कर हंसी. हंसती ही चली ही गई. ठंडी रात की गुनगुनी सुबह...ऐसी हज़ार रातें...ऐसे हज़ारों सवेरे...ऐसे हज़ार सपने... ऐसी हज़ार ख्वाहिशें... जिंदगी की नाव को समय की लहरों पर खेते हुए ...हंसी की इस मादक खनक ने डेला को भी जगा दिया, वह भी अपने कमरे से निकल कर आँखें मलते हुए चली आई और अपने पापा को फर्श पर पड़ा देख, अपनी मम्मी की खिलखिलाहट में शामिल हो गई...[जारी...]                 

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...