रसबाला के जन्म की कहानी भी अजब थी. नन्ही बच्ची अभी गर्भ में ही थी, कि एक दिन गाँव के बाहर ऊँट पर पीने का पानी बेचने वाला आया. सुबह से उसके इंतज़ार में खड़ी रसबाला की माँ का पारा तब एकाएक चढ़ कर सातवें आसमान पर पहुँच गया, जब उसके आगे खड़ी औरत ने दो हांडियां खरीद लीं, और ऊँट वाले का डोल ख़ाली हो गया.पानी की कीमत चुकाने के लिए लाये गए अंडे उसके हाथ में न होते तो रसबाला की माँ दोनों का मुंह नोंच लेती- मुए ऊँट वाले का भी, और कलमुही पानी की उस लुटेरी का भी. मुनाफाखोरों की तरह पानी की कालाबाजारी करने चली थी!
लेकिन दोनों हाथों में पानी भरी हांडियां लिए इतराती वो मटक्को जैसे ही पलटी, उसकी कोहनी रसबाला की माँ के हाथ से टकरा गई, और तीनों अंडे हाथ से छूट कर रेत में गिर गए.एक तो ऐसा फूटा, कि मिट्टी पर जलती धूप में आमलेट ही बन गया. बाक़ी दोनों भी फूट कर मिट्टी में जा मिले.
रसबाला की माँ ने आव देखा न ताव, पहले तो बाल पकड़े उस औरत के, और फिर झटके से उसकी दोनों हांडियां फोड़ डालीं. ऊँट घबरा कर लीद करता हुआ आगे भागा. भगदड़ मच गई.
अब एक तरफ फूटे अंडे, दूसरी तरफ बिखरा पानी, दोनों तरफ पैनी प्यास...जम कर लड़ाई हुई दोनों में. बात केवल मार-पीट पर ही नहीं रुकी, हाथ में पहने मोटे कड़े के वारों से रसबाला की माँ ने उस अंडे फोड़ने वाली को बेदम करके ही छोड़ा. थोड़ी ही देर में गर्म रेत ने उबलते लहू के थक्के भी देखे. तमाशबीन तितर-बितर और रसबाला की माँ की कलाई में हथकड़ी भी आ गई. जो हाथ पानी लेने गए थे, वो हथकड़ी पहन कर लौटे.
उसका आदमी तो पैदाइशी मजदूर था. हथकड़ियों को जमानत के झमेलों से तोड़ पाता, तब तक तो रसबाला की माँ जेल में आ गई.
और इस तरह रसबाला का जन्म भी जेल में ही हुआ. दादी ने पोती का मुंह नहीं देखा था, बस, नाम रख दिया रसबाला.वह भी इतनी समर्थ नहीं थी कि बच्ची को अपने साथ रख सके. बीमार, कृशकाय व जर्जर.
और अपने बचपन को रसबाला ने सूखी धूप में खेलते और सूरज ढलते ही अँधेरी बैरकों में बंद हो जाते देखा.
कैदियों के बच्चों की सार-सम्हाल करने वाली किसी संस्था के कदम उस जेल में पड़े, तब रसबाला चार साल की थी. एक समाज-सेविका ने जेल में ही सब औरतों से मिल कर उन्हें समझाया कि अपने साथ-साथ अपने बच्चों का भविष्य तबाह मत करो. नसीब की मारी माओं को भला इसमें क्या ऐतराज़ होता,कि उनके बच्चों को कोई अँधेरी सुरंग से उजाले की दुनियां में निकाल ले जाये.
रसबाला कैदियों के बच्चों की एक आवासीय पाठशाला में चली गई. बच्चे इसी आसरे में पलने लगे. रसबाला की माँ का कारावास जब तक पूरा होता, एक मुस्लिम परिवार ने उसे गोद ले लिया...[जारी...]
लेकिन दोनों हाथों में पानी भरी हांडियां लिए इतराती वो मटक्को जैसे ही पलटी, उसकी कोहनी रसबाला की माँ के हाथ से टकरा गई, और तीनों अंडे हाथ से छूट कर रेत में गिर गए.एक तो ऐसा फूटा, कि मिट्टी पर जलती धूप में आमलेट ही बन गया. बाक़ी दोनों भी फूट कर मिट्टी में जा मिले.
रसबाला की माँ ने आव देखा न ताव, पहले तो बाल पकड़े उस औरत के, और फिर झटके से उसकी दोनों हांडियां फोड़ डालीं. ऊँट घबरा कर लीद करता हुआ आगे भागा. भगदड़ मच गई.
अब एक तरफ फूटे अंडे, दूसरी तरफ बिखरा पानी, दोनों तरफ पैनी प्यास...जम कर लड़ाई हुई दोनों में. बात केवल मार-पीट पर ही नहीं रुकी, हाथ में पहने मोटे कड़े के वारों से रसबाला की माँ ने उस अंडे फोड़ने वाली को बेदम करके ही छोड़ा. थोड़ी ही देर में गर्म रेत ने उबलते लहू के थक्के भी देखे. तमाशबीन तितर-बितर और रसबाला की माँ की कलाई में हथकड़ी भी आ गई. जो हाथ पानी लेने गए थे, वो हथकड़ी पहन कर लौटे.
उसका आदमी तो पैदाइशी मजदूर था. हथकड़ियों को जमानत के झमेलों से तोड़ पाता, तब तक तो रसबाला की माँ जेल में आ गई.
और इस तरह रसबाला का जन्म भी जेल में ही हुआ. दादी ने पोती का मुंह नहीं देखा था, बस, नाम रख दिया रसबाला.वह भी इतनी समर्थ नहीं थी कि बच्ची को अपने साथ रख सके. बीमार, कृशकाय व जर्जर.
और अपने बचपन को रसबाला ने सूखी धूप में खेलते और सूरज ढलते ही अँधेरी बैरकों में बंद हो जाते देखा.
कैदियों के बच्चों की सार-सम्हाल करने वाली किसी संस्था के कदम उस जेल में पड़े, तब रसबाला चार साल की थी. एक समाज-सेविका ने जेल में ही सब औरतों से मिल कर उन्हें समझाया कि अपने साथ-साथ अपने बच्चों का भविष्य तबाह मत करो. नसीब की मारी माओं को भला इसमें क्या ऐतराज़ होता,कि उनके बच्चों को कोई अँधेरी सुरंग से उजाले की दुनियां में निकाल ले जाये.
रसबाला कैदियों के बच्चों की एक आवासीय पाठशाला में चली गई. बच्चे इसी आसरे में पलने लगे. रसबाला की माँ का कारावास जब तक पूरा होता, एक मुस्लिम परिवार ने उसे गोद ले लिया...[जारी...]
No comments:
Post a Comment