सना और सिल्वा दोनों ही बहुत खुशमिजाज़ थीं. उनका दिमाग अपनी उम्र से कुछ आगे ही था. लेकिन फिर भी उनकी इच्छा बहुत पढ़ने से ज्यादा दुनिया देखने की थी. उन्हें जब भी कोई घूमने का अवसर मिलता, वे उसे छोड़ती नहीं थीं.पानी दोनों की पहली पसंद था, नदी,समंदर, सरोवर और झीलें उनके प्रिय स्थान होते थे. पिछले शनिवार को एशिया से आये एक पॉप-स्टार का जीवंत कार्यक्रम देखने के बाद से उन्हें कई बार गुनगुनाते सुना गया था...
"कभी पत्थर पे पानी, कभी मिट्टी में पानी...कभी आकाश पे पानी, कभी धरती पे पानी...
दूर धरती के तल में, बूँद भर प्यास छिपी है, सभी की नज़र बचा कर वहीँ जाता है पानी..."
सच में पानी की बेचैनी भी बड़ी अजब है, सफ़ीने इसी में तैरते हैं, इसी में डूबते हैं...सना मेंडोलिन बजाती, सिल्वा गुनगुनाती. दुनिया ने अपने को जवान बनाये रखने के कितने नुस्खे ईज़ाद कर रक्खे हैं.जो लोग दुनिया से चले जाते हैं, वे भी फिर-फिर लौट कर आते हैं. और क्या, सिल्वा रस्बी की तरह दीन-दुनिया खोकर ही तो गाती थी.
पेरिना डेला के आने की तैयारियों में जुट गई.बहुत सालों के बाद ऐसा मौका आ रहा था, जब डेला अपने पति के साथ स्वदेश आ रही थी. किन्ज़ान की उम्र से भी कम से कम दस वर्ष घट गए थे.सना और सिल्वा तो अपने पिता से पिछली बार तब मिलीं थीं, जब वे टीन एज में भी नहीं आईं थीं.और अब ...अब तो उनके कमरे के बाहर उनकी नेम-प्लेट्स लगी थीं- 'सना रोज़ और सिल्वा रोज़'.
किसी पिता के लिए यह बेहद गौरव का क्षण होता है, जब वह दीवार पर अपने बच्चों की नेम-प्लेट लगी देखे. पेरिना ने डेला के ख़त को कई बार पढ़ा था. और किन्ज़ान ने तो झटपट मकान के पिछवाड़े ख़ाली पड़े मैदान में दो कमरे और बनवाने ही शुरू कर दिए थे.
माता-पिता के लिए तो उनके बच्चों के आने की खबर-गंध ही तमाम दुनिया छोटी पड़ने की निशानी होती है.उन्हें लगता है कि उनका बस चले तो आकाश को थोड़ा और ऊंचा बाँध दें,क्षितिज को ज़रा दूर खिसका दें...
सना और सिल्वा ने नए कमरों की साज-सज्जा में पूरा दखल दिया.
जब किसी बसेरे में तीन पीढ़ियाँ एक साथ रहने का ख्वाब सजाती हैं, तो स्थिति बड़ी दिलचस्प होती है.एकदम नई पीढ़ी अपने लिए ज्यादा जगह नहीं चाहती, उसे लगता है, अभी दुनिया देखनी है, किसी सोन-पिंजरे में कैद होकर थोड़े ही रहना है.
वर्तमान पीढ़ी को लगता है, हर काम के लिए अलग जगह हो,जितनी जगह अपने नाम हो, उतना ही अच्छा. जीवन के आखिरी पड़ाव पर बसर कर रही पीढ़ी अपना दायरा सिमटने नहीं देना चाहती. युवा लोग इसे उनकी लालसा कहते हैं, पर वह वास्तव में उनका अकेलेपन से लगता हुआ डर होता है.वे कह नहीं पाते, पर मन में सोचते हैं कि एकांत को हमारे करीब मत लाओ, हमारे बाद तो सब तुम्हारा ही है.
लेकिन जिस तरह कोई माता-पिता अपनी संतान को अपनी उतरन नहीं पहनने देते, वैसे ही नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के कमरे रहने के लिए तब तक नहीं लेना चाहती, जब तक कि कोई विवशता न हो. युवा पीढ़ी का रहने का अपना तरीका होता है. उसमें पूर्वजों की आँखों के अक्स भला कौन पसंद करेगा. यह बड़ों के प्रति उनकी अवज्ञा नहीं, बल्कि सम्मान ही तो है.
... डेला के आने के दिन नज़दीक आ रहे थे...[जारी...]